गुनगुनी धूप

गुनगुनी धूप

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अपने स्कूल की कबड्डी टीम की कैप्टन, बैडमिंटन में माहिर, साईंस एक्सिबिशन और कक्षा में सदा प्रथम आने वाली शालू बचपन से ही पढ़ाई में बहुत होशियार और मेधा की धनी थी। स्टेज पर जाती तो कमाल कर देती। नाटक के हर संवाद उसे जुबानी याद होते और सब उसकी प्रतिभा का लोहा मानते। उसके घर का एक कोना उसके सर्टिफिकेट, मेडल्‍स और शील्ड के लिया निर्धारित था। शालू के माता पिता ओपन-डे पर जब भी स्कूल जाते बोर्ड पर उसका नाम देखकर फूले न समाते।

कक्षा के बाकी बच्चों के अभिभावक जब उनके सामने ही शालू की ओर इशारा करते हुए अपने बच्चों को डांँटते, "उसके कैसे इतने अच्छे नंबर आए, वो तो कोई ट्यूशन भी नहीं जाती, कुछ सीख उससे।" तब अपनी होनहार बेटी की तारीफें सुन कर उनकी छाती और चौड़ी हो जाती।

शालू शिक्षकों की लाडली तो थी ही। उसके अच्छे स्वभाव के कारण कक्षा के सब बच्चे भी उससे बहुत प्यार करते थे। दसवीं और बारहवीं दोनों की बोर्ड परीक्षाओं में लगातार जब उसने बिना किसी बाहरी सहायता अथवा ट्यूशन के 94 प्रतिशत अंक हासिल किए तो उसे और उसके माता-पिता को बधाई देने के लिए हर जगह से फोन आने लगे। अपनी खुशी जाहिर करने के लिए उन्होंने सबमें मिठाइयाँ बांटी। उन्हें लगने लगा था कि शालू का डॉक्टर बनने का बचपन का सपना अब जरूर पूरा हो जाएगा परंतु ईश्वर को शायद कुछ और ही मंजूर था।

निम्न मध्यम वर्गीय परिवार से होने के कारण मेडिकल की प्रवेश परीक्षा नीट के लिए भी उसके माता-पिता उसकी ट्यूशन नहीं लगवा सके थे। फिर भी दिन रात कठिन परिश्रम करके प्रवेश परीक्षा में उसने काफी अच्छे अंक हासिल किए जो आरक्षित वर्ग के विद्यार्थियों लिए निर्धारित अंकों से कहीं ज्यादा थे।

अनारक्षित सवर्ण वर्ग व सामान्य श्रेणी के विद्यार्थियों के लिए निर्धारित अंकों से मात्र दस अंक कम होने पर भी उसे किसी मेडिकल कॉलेज में दाखिला नहीं मिला।

लगातार महंगी होती पढ़ाई और आर्थिक पक्ष कमजोर होने के कारण शालू के माता-पिता अपनी बेटी के लिए किसी भी निजी मेडिकल कॉलेज में लाखों की रूपयों की सीट खरीदने में असमर्थ रहे। तकरीबन हर मेडिकल कॉलेज में उसे यही सुनने को मिलता कि "इतने कम अंकों में तुम्हें महाराष्ट्र में तो किसी मेडिकल कॉलेज में दाखिला नहीं मिलेगा। जाओ अगले साल इससे अच्छे अंक लाना तब देखेंगे।"

आज प्रतिभा ने आरक्षण के आगे घुटने टेक दिए थे। जिसने भी सुना उसने दाँतों तले उंगली दबा ली कि मात्र दस अंकों के कारण उसका सपना चूर-चूर हो गया। शालू अब धीरे-धीरे निराश होने लगी थी परंतु उसके हौसले टूटे नहीं थे। पैसों के आगे प्रतिभा कोई मोल नहीं। वह जानती थी कि माता-पिता उसकी नीट की ट्यूशन फीस नहीं भर सकते इसलिए वह अगले साल तक नहीं रुक सकती थी।

शालू ने माता- पिता से सलाह लेकर बिना एक भी वर्ष गंवाए विज्ञान से स्नातक की डिग्री प्राप्त की। उसमें भी अव्वल दर्जे से पास हुई।

शालू का बचपन का स्वप्न आरक्षण की बलि चढ़ चुका था।


पर जीवन की खुशनुमा गुनगुनी धूप की चाह रखने वाली शालू ने अब एक नया सपना देखा है। अब वह सिविल सर्विसेस में जाना चाहती है और जिसके लिए वह दिन- रात मेहनत कर रही है। उसके हौसले अब भी बरकरार है परंतु उसे वही डर फिर से सता रहा है कि दोबारा उसके और उसको सपनों के बीच आरक्षण दीवार बनकर न खड़ी हो जाए।


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