Sudha Singh 'vyaghr'

Drama

5.0  

Sudha Singh 'vyaghr'

Drama

वह पीला बैग

वह पीला बैग

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"भाभी यह बैग कितना अच्छा है!! कितने में मिला?" नित्या की कामवाली मंगलाबाई ने सोफे पर पड़े हुए बैग की तरफ लालचाई नजरों से इशारा करते हुए जब उससे कहा तो उसने भी अनमने ढंग से उसकी हाँ में हाँ मिला दी और अपने काम में जुट गई।

वह पीले रंग का बैकपैक कल ही उसके फेयरवेल में उसकी बॉस ने उसे उपहार में दिया था। नित्या से तकरीबन दोगुना अधिक वेतनमान पाने वाली उसकी बॉस का उसके प्रति ऐसा व्यवहार देखकर वह वैसे ही दुखी थी.

"बेवजह कभी छुट्टी भी नहीं ली मैंने। दफ्तर का काम हर रोज घर पर ले आती थी इसलिए पति और बच्चों की डांट भी खाती थी। मेरा प्रतिदिन का ओवरटाइम करना भी उनको याद नहीं रहा। हाँ.. बस बाकियों की तरह चाटुकारिता करने में पिछड़ गई थी। कदाचित् यही कारण रहा होगा कि इतने वर्षों के पूर्ण समर्पण और सेवाभाव के बाद भी मेरी बॉस ने मुझे ऐसा प्रतिफल दिया था। मैं उनके लिए केवल एक कर्मचारी थी... उनकी अधीनस्थ कर्मचारी बस! और कुछ नहीं???

मिसेज शर्मा के फेयरवेल में तो उन्होंने क्या- क्या नहीं किया। पूरा ऑफिस, दो हफ्ते पहले से ही उनके फेयरवेल की तैयारी में जुट गया था। कितनी सारी प्लानिंग की थी ऐसा करेंगे, वैसा करेंगे। बाकायदा दावत भी दी गई थी और उम्मीद से परे, फेयरवेल का कार्यक्रम इतना अच्छा हुआ कि कोई सोच भी नहीं सकता।

गिफ्ट को देखते ही बच्चों ने भी मुँह बिचका लिया था। "दो सौ, तीन सौ से ज्यादा की कीमत नहीं होगी इसकी। मुझे कोई ऐसी गिफ्ट दे तो मैं तो बिलकुल न लूँ मम्मी। कहते हुए उसने बैग को एक किनारे लगा दिया। " मम्मी, मुझे तो लगता है कि उनकी बेटी को ये गिफ्ट मिला होगा और इतना गाढ़ा पीला रंग और इसकी खराब क्वॉलिटी देखकर उन्होंने आपके गले लगा दिया।" - नित्या की छोटी बेटी ने सारा गणित लगा लिया था। फिर तपाक से बोली, "मम्मी, अब केवल एक काम हो सकता है इसका। देखिए! न आप को यह पसंद है और न ही मुझे. यह टीनेज बच्चों वाला रंग उनपर ही जंँचता है। तो क्यों न हम किसी बच्चे के बर्थडे पर इसे गिफ्ट कर दें? "उसकी बात मुझे कुछ अटपटी - सी लगी। जो चीज मुझे पसंद नहीं!.. वह दूसरे को पसंद आएगी??? न, न, मुझे नहीं अच्छा लगेगा। और मैं इतनी ओछी हरकत नहीं कर सकती। "

"तो ठीक है.. अब आप ही सोचिए कि आपको इसका करना क्या है। " कहते हुए बेटी अपने कमरे की ओर चल दी।

शायद यही कारण था कि कल जब बाकी सहकर्मी मुझपर अपने - अपने गिफ्ट खोलने के लिए दबाव बना रहे थे तो उन्होंने तुरंत मना कर दिया था कि कोई गिफ्ट नहीं खुलेगा। बड़े प्यार भरे लहजे में मेरी ओर अपनी मुस्कुराहट फेंकते हुए बोली थी -" वह इसे घर ले जाएगी और अपने पति और बच्चों के सामने खोलेगी। "

पति और बच्चे क्या सोचते होंगे मेरे बारे में? उनकी नजरों में क्या मेरी यही कीमत थी। यदि फेरवेल देने की इच्छा नहीं थी तो न देती। सबके सामने यूँ दिखावा करने की क्या जरूरत थी, मैंने तो नहीं कहा था कि मुझे फेयरवेल चाहिए। क्यों मेरी भावनाओं के साथ उन्होंने खिलवाड़ किया। मुझसे कितनी ही बार बच्चों ने कहा था मम्मी इतना अटैच मत होइए। पति ने भी समझाया, "नित्या, थोड़ा प्रैक्टिकली सोचो। तुम्हारी बॉस, और तुम्हारे उसूल तुम्हें कभी आगे नहीं बढ़ने देंगे। तुम देख क्यों नहीं पा रही हो कि तुम्हारे बाद के आये हुए लोग कितना आगे बढ़ गए और तुम आज भी वहीं हो जहाँ पहले दिन थी। इतने कम वेतन में काम मत करो, कहीं और देखो तुम्हें इतना अनुभव है... किसी न किसी अच्छी कंपनी में तो लग ही जाओगी। "

नित्या भीतर ही भीतर कुढ़ रही थी। खुद को ढगा हुआ महसूस कर रही थी।

उनके बार - बार समझाने पर भी क्यों मैंने उनकी बात नहीं मानी। क्यों मैंने बहुत पहले ही अपनी नौकरी नहीं छोड़ दी। मैं उनकी असलियत को भांँप नहीं पाई... और इतनी लगन से काम करती रही।"

बॉस ने कितनी ही बार नौकरी छोड़ने का इशारा किया था परंतु नित्या ने कभी संजीदगी से इस बात पर ध्यान नहीं दिया था उसे लगता कि गलती करने पर डांट पड़ रही है।

नित्या को खुद पर बहुत क्रोध आ रहा था कि क्यों वह यह समझने में नाकाम रही कि जो उनकी चापलूसी करता है वही यहाँ लंबे समय तक टिका रहता है और उसे तरक्की पर तरक्की मिलती जाती है। मुझ जैसा अनाड़ी केवल कोल्हू के बैल की तरह नधा - नधा, सिर झुकाए अपना काम करता रहता है। और अंत में उसके पास होता है शून्य, बस शून्य। अपने इसी उधेड़बुन में नित्या आधी रात तक करवटें बदलती रही। नींद ने कब उसे आगोश में ले लिया, उसे पता ही नहीं।

भाभी, भाभी कहाँ खो गई, बोलिए न... सहसा कानों में मंगलाबाई की आवाज पड़ते ही नित्या की तंद्रा भंग हुई। "भाभी, मेरी नातिन भी कई दिनों से ऐसा ही बैग खरीदने के लिए जिद कर रही है। मैंने सोचा है कि इस बार की पगार से उसको ऐसा बैग खरीदकर दे दूंगी। कितनी खुश हो जाएगी वह। अगले हफ्ते उसका जन्मदिन भी है। " मंगलाबाई सस्मित बोले जा रही थी और नित्या उसके चेहरे पर उभरते हुए भावों को पढ़ रही थी।

शायद उसे समझ में आ गया था कि उसे इस बैग का क्या करना है।

मंगलाबाई, तुम्हें बैग खरीदने की कोई जरूरत नहीं है। तुम्हें यह बैग पसंद आया है न। तो.. तुम्हारी नातिन के लिए मेरी ओर से यह छोटी - सी भेंट! कहते हुए नित्या ने उसे वह बैग पकड़ा दिया।

भाभी, आप कितनी अच्छी हैं..मैं... मैं बता नहीं सकती कि मेरी नातिन इसे पाकर कितनी खुश होगी।

चेहरे पर मुस्कान समेटे हुए, और न जाने क्या - क्या सोचते हुए वह तेजी से अपने काम में जुट गई।

उसके चेहरे की मुस्कुराहट देखकर नित्या को एक अजीब से सुख की अनुभूति हो रही थी। थोड़ी देर के लिए ही सही पर अपनी बॉस की ओछी सोच के आवरण से बाहर निकल पाने में कामयाब हुई थी नित्या।


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