Sudha Singh 'vyaghr'

Drama

4.6  

Sudha Singh 'vyaghr'

Drama

मन का बोझ

मन का बोझ

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" तुम कब तक यूँ अकेली रहोगी ?", लोग उससे जब तब यह सवाल कर लेते हैं और वह मुस्कुरा कर कह देती है," आप सबके साथ मैं अकेली कैसे हो सकती हूं।"

उसकी शांत आंखों के पीछे हलचल होनी बन्द हो चुकी है। बहुत बोलने वाली वह लड़की अब सबके बीच चुप रह कर सबको सुनती है जैसे किसी अहम जबाब का इंतजार हो उसे।

जानकी ने दुनिया देखी थी उसकी अनुभवी आंखें समझ रहीं थीं कि कुछ तो हुआ है जिसने इस चंचल गुड़िया को संजीदा कर दिया है लेकिन क्या ?

" संदली!, क्या मैं तुम्हारे पास बैठ सकती हूं ?", प्यार भरे स्वर में उन्होंने पूछा।

" जरूर आंटी, यह भी कोई पूछने की बात है।", मुस्कुराती हुई संदली ने खिसक कर बैंच पर उनके बैठने के लिए जगह बना दी।

" कैसी हो ?क्या चल रहा है आजकल ? ", जानकी ने बात शुरू करते हुए पूछा।

" बस आंटी वही रूटीन, कॉलिज- पढ़ाई....", संदली ने जबाब दिया।" आप सुनाइये।"

" बस बेटा, सब बढ़िया है। आजकल कुछ न कुछ नया सीखने की कोशिश कर रही हूं।", चश्मे को नाक पर सही करते हुए जानकी ने कहा।

" अरे वाह! क्या सीख रही है इन दिनों ?", संदली ने कृत्रिम उत्साह दिखाते हुए कहा जिसे जानकी समझ कर भी अनदेखा कर गई।

 "बस यही कि उन अपनों को कैसे अपना बनाया जाए जो मुझे अपना कहते तो हैं पर अपना समझते नहीं... " जानकी ने लंबी साँस भरी और चश्मा ऊपर बालों में टिकाते हुए संदली की आँखों में आँखें डालकर अपनत्व भरे लहजे से कहा। 

जानकी की बात सुन कर संदली की नजरें भी जानकी के चेहरे पर गड़ गईं।भावुक नजरों से व‍ह उनकी तरफ देखने लगी... जैसे व‍ह कुछ समझने की भरपूर कोशिश कर रही हो। 

उसका गला भर आया। कुछ हिचकिचाते हुए रुंधे स्वर में वह बोली, "नहीं आंटी जी, जैसा आप समझ रही हैं ऐसी कोई बात नहीं है। बस..बस मैं अपना दुख बताकर किसी और को दुखी नहीं करना चाहती।"

"बेटा, क्या मैं समझती नहीं हूँ... पति के निधन के बाद यूँ अकेले जिंदगी काटना आसान नहीं होता।जब तुम्हारे पति के रोड एक्सीडेंट की ख़बर सुनी;मन दहल गया था। दो दिन तक गले के नीचेएक कौर तक न उतरा था मेरे... और विक्रम ने तो अपने आपको कमरे में ही बंद कर लिया था। बड़ी मुश्किल से उसने स्वयं को सम्भाला है।" 

संदली अचंभित होकर बस जानकी की बातें सुन रही थी । उसके मन में उथल-पुथल मची हुई थी। 

"यह क्या कह रही हैं आंटी जी ? ऐसा क्यों ? ? ? मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा.. विक्रम का यूँ.. कमरे के अंदर खुद को बंद कर लेना.... आंटी जी... आंटी जी प्लीज खुलकर बताइए.. आखिर आपकहना क्या चाहती हैं ?"-उन्हें बीच में टोकते हुए विस्फारित नजरों से संदली ने पूछा। 

"बेटी, लखनऊ से ट्रांसफ़र लेकर जब हम दोबारा इस शहर में आए तो तुम्हारे बारे में हमें सब पता चला। जब तुम्हारे घर गई तो पता चला, तुम यहाँ हो। इसलिए तुमसे मिलने यहीं चली आई।" - जानकी ने हौले से संदली का हाथ अपने हाथ में ले लिया और बोलना जारी रखा। 

 "बेटी.. विक्रम तुम्हें बहुत चाहता है। उसने कई बार तुमसे अपने दिल की बात बतानी चाही। पर.. तुम तो जानती ही हो कि वह कितना शर्मिला है। कभी किसी लड़की से बात नहीं करता। तुम जब भी कभी विम्मी के साथ घर आती थी, वह किचन में मेरी मदद करने के लिए दौड़ा आता था। और तुम्हें देखने के बहाने मेज़ पर नाश्ता भी खुद ही लगाता था। व‍ह मन ही मन तुम्हें चाहने लगा था बेटी । तुम्हारा नाम सुनते ही उसका चेहरा टमाटर की तरह लाल सुर्ख हो जाया करता। मैंने उसके मन को भाँप लिया था। इसलिए जब उससे तुम्हारे बारे में बात की तो उसने मुझसे अपने दिल की बात कह दी। 

बेटा... किसी अच्छे मौके पर तुमसे इस विषय पर बात करके हम तुम्हारे मम्मी पापा से मिलने की सोच रहे थे। लेकिन शायद ईश्वर की कुछ और ही इच्छा थी। तुम्हारी शादी तय हो गई। " 

एक ओर जानकी बोले जा रही थीं। दूसरी ओर संदली की आँखों से भर- भर आँसू बह रहे थे। व‍ह न जाने क्या सोच रही थी 

 "उसकी खुशी में ही मेरी खुशी है बेटी। उसकी पसंद तुम हो। कहो, क्या तुम मेरे बेटे से शादी करोगी ? ? ? बोलो बेटा.. क्या मेरे विक्रम से शादी करोगी ?"

 संदली का गला रुद्ध था। अश्रु पलकों का दायरा तोड़ चुके थे। 

 "आंटी जी.... जिस .... जिस दिन उसका एक्सीडेंट हुआ, मेरा और उसका बहुत बड़ा झगड़ा हुआ था। व‍ह बहुत गुस्से में घर से निकला था... उसका एक्सीडेंट...उसका एक्सीडेंट मेरी ही वजह से....."

  संदली के मन पर एक भार- सा था। व‍ह अपने पति के एक्सीडेंट का जिम्मेदार खुद को मान रही थी। 

 "नहीं, नहीं बेटी.. तुम य़ह क्या कह रही हो... उसकी मौत की जिम्मेदारी तुम नहीं हो... अपने मन से य़ह बोझ उतार दो.. संदली, बेटा.., जीवन और मृत्यु उस ऊपर वाले के हाथ में है। व‍ह सबको गिनकर साँसे देता है। और साँसे पूरी हो जाने के बाद, व‍ह उन्हें अपनी शरण में ले लेता है.... इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं। य़ह सब किस्मत का खेल है बेटा।" 

संदली व‍हीं बैठ गई और काफ़ी देर तक जमीन में अपना सिर गड़ाए रोती रही... 

 जानकी चाहती थी कि संदली आज जी भर कर रो ले ताकि उसका दर्द पिघल कर पूरी तरह से बह जाए इसलिए उसने भी उसे रोने से नहीं रोका।

 "रो ले बेटा,आज जी भर कर रो ले.. क्योंकि मैं नहीं चाहती कि मेरी होनेवाली बहू की आँखें दोबारा कभी नम हो। "

" माँ...." सिसकते हुए संदली जानकी से लिपट गई। शायद संदली के मन का बोझ अब उतर चुका था। 


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