गलती

गलती

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मैं अपने रास्ते चला जा रहा था। बहुत धूप थी, प्यास से गला सूख रहा था। बैग में हाथ डालकर देखा तो पाया कि पानी की बोतल ख़ाली हो चुकी है। थोड़ी दूर चलने के बाद एक घर नज़र आया।

गाँव पूरी तरह विकसित नहीं था, थोड़ी थोड़ी दूर पर ही घर मिल रहे थे। काफी चल चुका था, बुरी तरह थक भी गया था अब मेरे पास और ऑप्शन भी नहीं थे। मैंने दरवाज़ा ठकठकाया, धीरे से दरवाज़ा खुला और मैंने पाया कि सामने मेरी दादी खड़ी थीं और उनके पीछे दादू थे। पर ऐसा कैसे हो सकता है, वो तो मर चुके थे नहीं तो उनका माला टंगा चित्र घर पर क्यों होता। उनसे कुछ बातें करते ही समझ आ गया कि जैसे आज मैं माँ बाबा को वृद्धाश्रम छोड़ आया, कभी ऐसा ही उन्होंने दादी दादू के साथ किया था। मुझे ये भी समझ आ गया कि अपना बोया यहीं काटना पड़ता है। मैं दादी, दादू को मना कर अपने साथ ले आया और साथ ही माफ़ी मांगकर वृद्धाश्रम से माँ, बाबूजी को। वे दोनों दादी, दादू को देखकर शर्मसार हो गए और उनके पैरों में पड़कर माफ़ी मांगने लगे। माँ - बाप थे सो बड़ा मन रख माफ़ भी कर दिया। और मैं भगवान का शुक्रगुजार था कि समय रहते ही मुझे मेरी ग़लती उन्होंने ना सिर्फ समझा दी बल्कि उसे सुधारने का मौका भी दिया।


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