गाँव - 1.11

गाँव - 1.11

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मगर लिखा क्या जाए? कुछ भी नहीं है। कुछ भी नहीं, या लिखा जाने के काबिल नहीं। ख़ुद उसे भी तो इस ज़िन्दगी का करीब-करीब कुछ भी याद नहीं है। बिल्कुल ही, मिसाल के तौर पर, भूल गया हूँ बचपन को! बस, कभी-कभार गर्मियों का एकाध दिन आँखों के सामने तैर जाता है, एकाध घटना, कोई कोई हम उम्र। । । किसी की बिल्ली को एक बार जला दिया था – खूब मार पड़ी। सीटी के साथ कोड़ा इनाम में मिला था – और इतनी ख़ुशी हुई कि कहा नहीं जा सकता। पियक्कड़ बाप ने एक बार बुलाया, प्यार से, दर्दभरी आवाज़ में :

“मेरे पास आ, तीशा, आ जा, मेरे बच्चे!”

और अप्रत्याशित रूप से उसने बाल खींच लिए। । ।

अगर आज ईल्या मिरोनव ज़िन्दा होता, तो तीख़न इल्यिच बूढ़े को दयावश खिलाता और उसे जानता ही नहीं, उसकी ओर शायद कभी देखता तक नहीं। ऐसा ही तो था माँ के भी साथ, पूछो उससे : “माँ की याद है?” और वह जवाब देगा :

“याद है कोई झुकी हुई कमर की बुढ़िया। । । गोबर सुखाती, भट्ठी गरमाती, चुपके से शराब पीते बुदबुदाती। । । ” और इसके अलावा कुछ नहीं। करीब दस साल उसने मतोरिन के यहाँ काम किया, मगर ये दस साल भी मानो एक-दो दिनों में ही सिमट कर रह गए हैं : अप्रैल की बूँदा-बाँदी हो रही है और लोहे की चादरों पर धब्बे बना रही है, जिन्हें धड़ाम् की आवाज़ करते हुए, बजाते हुए बाज़ूवाली दुकान के पास गाड़ी पर चढ़ाया जा रहा है। । । निढ़ाल-सी, बर्फीली दोपहर। कबूतर शोर मचाते हुए एक झुण्ड़ में बर्फ पर गिरते हैं दूसरे पड़ोसी की दुकान के पास, जो आटा, सूजी, दालें और भूसा बेचा करता, झुण्ड़ बनाते, गुटुर-गूँ करते, पंख फड़फड़ाते, और वह भाई के साथ देहलीज़ के पास बैल की पूँछ के कोड़े से घर के सामने गर्र-गर्र घूमते लट्टू को मारा करता। मतोरिन तब जवान था, मज़बूत था, भूरा लाल रंग, सफ़ाचट दाढ़ी, भूरे गलमुच्छे, आधी दूरी तक कटे हुए। अब वह ग़रीब हो गया है, सूरज की रोशनी से बदरंग हुए कोट और गहरी टोपी में एक दुकान से दूसरी तक, एक परिचित से दूसरे परिचित तक बूढ़ी चाल से घिसट-घिसटकर चलता है, ड्राफ्ट खेलता है, दायेव के शराबखाने में बैठता है, थोड़ी-बहुत पी लेता है, झूमने लगता है और बोलने लगता है :

“हम – छोटे लोग हैं : पिया, खाया, पैसे चुकाए और घर चलते बने!”      

और तीखन इल्यिच से मिलते हुए, उसे पहचानता नहीं, दयनीयता से मुस्कुराता है :

“कहीं तू तीशा तो नहीं?”

और ख़ुद तीखन इल्यिच ने भी इस शिशिर में पहली मुलाकात में नहीं पहचाना – अपने सगे भाई को : “हाँ, क्या यही कुज़्मा है, जिसके साथ इतने साल खेतों में, गाँवों में, रास्तों पर घूमता रहा?”

“बूढ़ा हो गया तू, भाई!”

“हाँ, थोड़ा-बहुत। ”

“मगर इतनी जल्दी?”

“ऊपर से मैं भी रूसी हूँ। हमारे लिए – यह अच्छी बात है!”

तीसरी सिगरेट पीते हुए, तीखन इल्यिच ने एकटक और प्रश्नार्थक नज़रों से खिड़की से देखा।

“क्या दूसरे मुल्कों में भी ऐसा ही है?”

नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। कुछ परिचित विदेशों में गए थे, मिसाल के तौर पर, सौदागर रुकावीश्निकव, बता रहे थे। । । हाँ, और बगैर रुकावीश्निकव के भी अन्दाज़ा लगाया जा सकता है। रूसी जर्मनों या यहूदियों को ही लो : सभी संजीदगी से रहते हैं, सलीके से, सब एक-दूसरे को जानते हैं, अगर बिछुड़ जाते हैं, तो – ख़त लिखते हैं, माँ-बाप की, परिचितों की तस्वीरें एक परिवार से दूसरे परिवार में देते हैं, बच्चों को पढ़ाते हैं, प्यार करते हैं, उनके साथ घूमते हैं, बातचीत करते हैं, जैसे वे बराबर के हों, बच्चों को भी याद रखने के लिए कुछ रह जाता है। मगर हमारे यहाँ सब एक-दूसरे के दुश्मन, जलने वाले, साज़िश करने वाले हैं, एक-दूसरे के घर में साल में एक बार जाते हैं, परेशानी में चक्कर लगाने लगते हैं, मानो बड़ी जल्दी में हों, अगर अचानक कोई चला आए, तो कमरे ठीक-ठाक करने दौड़ते हैं। । । क्या बात है। मेहमान को एक चम्मच मुरब्बा देने में भी रोते हैं! मनुहार किए बिना मेहमान एक प्याला ज़्यादा चाय भी नहीं पीता। । ।

खिड़कियों के सामने से किसी की त्रोयका गुज़री। तीखन इल्यिच ने बड़े ध्यान से उसे देखा। घोड़े दुबले और हड़ीले थे, मगर तेज़ी से दौड़ रहे थे। गाड़ी भी ठीक-ठाक थी। किसके लिए आई थी ये? आस-पास तो किसी के भी पास ऐसी त्रोयका नहीं थी। अड़ोस-पड़ोस के ज़मीन्दार तो ऐसे भूखे-नंगे हैं कि कभी-कभी बगैर रोटी के तीन-तीन दिन रहते हैं, देवचित्रों पर मढ़े हुए धातु के आख़िरी टुकड़े तक बेचकर खा गए, टूटे हुए शीशे बिठाने के लिए, छत की मरम्मत करने के लिए कुछ है ही नहीं, खिड़कियाँ तकियों से बंद करते हैं, और फ़र्श पर, जब भी बारिश होती है, छाबड़ियाँ और बाल्टियाँ रख देते हैं, छत से पानी यूँ गिरता है, जैसे छलनी से गिर रहा हो। । । फ़िर गुज़रा देनिस्का - मोची। कहाँ चला ये? और क्या लिए है? कहीं सूटकेस तो नहीं? ओह, पागल है वो, माफ़ कर, ख़ुदा, मेरे गुनाह।

तीखन इल्यिच ने गलोश पैर में डाले और बाहर ड्योढ़ी में आया। बाहर निकलकर, सर्दियों से पूर्व की नीली संध्या की ताज़ा हवा में गहरी साँस लेकर वह फिर से रुका, दुकान पर बैठ गया। । । हाँ, यह भी एक परिवार है – सेरी और उसका बेटा! ख़यालों में तीखन इल्यिच ने वह रास्ता तय कर लिया जो देनिस्का ने कीचड़ में पार किया था, हाथ में सूटकेस लिए। उसने दुर्नोव्का को देखा : सामने थी अपनी हवेली, गहरी खाई, झोंपड़ियाँ, शाम का धुँधलका, भाई के घर जल रही बत्तियाँ, आँगन की रोशनी। । । कुज़्मा बैठा है, शायद पढ़ रहा है। दुल्हन अँधेरे और ठण्डे प्रवेश-कक्ष में खड़ी है, हल्की-सी गरम भट्ठी के पास, हाथों और पीठ को गरमा रही है, इन्तज़ार कर रही है कि कब “खाना दो” कहेंगे – और अपने बुढ़ाते, सूखे होंठों को भींचकर सोच रही है। । । किस बारे में? रोद्का के? बकवास है यह सब कि उसने ज़हर दे दिया, बकवास! और अगर ज़हर दे दिया हो। । । या ख़ुदा! अगर ज़हर दे दिया हो, तो वह कैसा महसूस करती होगी? कैसा कब्र जैसा पत्थर उसकी रहस्यमय आत्मा पर रखा होगा?

ख़यालों में उसने अपने दुर्नोव्का वाले घर की ड्योढ़ी से दुर्नोव्का को देखा, खाई के पीछे बनी काली झोंपड़ियों को, खलिहान और पिछवाडे की झाड़ियों, बेलों को देखा। । । खेतों के पीछे दाहिनी ओर, क्षितिज पर रेल का कैबिन है। साँझ के धुँधलके में उसके निकट से रेल गुज़रती है – दहकती आँखों की एक जंज़ीर भागती है। और फिर झोपड़ियों में आँखें दहकने लगती हैं। अँधेरा होने लगता हौ, कुछ राहत महसूस होने लगती है। और हर बार, जब दुल्हन और सेरी की झोंपड़ियों की ओर देखता है, जो दुर्नोव्का के बीचों-बीच हैं, एक-दूसरे से तीन आँगन दूर, तो एक अप्रिय विचार मन में सरसरा जाता है, दोनों में से एक में भी रोशनी नहीं है। अगर किसी ख़ुशनसीब शाम को झोंपड़ी में दिया जल जाए तो सेरी के बच्चे, छछूँदर जैसे, चुंधिया जाते हैं। ख़ुशी और अचरज के मारे पगला जाते हैं। । ।

“नहीं, गुनाह है!” तीखन इल्यिच ने दृढ़ता से कहा और वह अपनी जगह से उठा। “नहीं, ख़ुदा के ख़िलाफ़ है। उसकी थोड़ी-सी मदद तो करनी चाहिए,” उसने स्टेशन की ओर बढ़ते हुए कहा।

बर्फ गिर रही थी, स्टेशन से समोवार की ख़ुशबू आ रही थी। यहाँ की रोशनियाँ साफ़-सुथरी चमक रही थीं, त्रोयका में लगे घुँघरू छनछना रहे थे। वाह, क्या त्रोयका है! उसके बाद किसानों, गाड़ीवानों के घोड़े, उनकी छोटी-छोटी गाड़ियाँ निकलने को तैयार, कीचड़ में लथपथ टेढ़े-मेढ़े पहियों वाली – देखने से दुःख होता है! सामने के बगीचे के पीछे स्टेशन का दरवाज़ा चरमराता और धड़ाम् से बन्द होता। उसका चक्कर लगाकर तीखन इल्यिच ऊँचे पत्थर के चबूतरे पर चढ़ गया, जिस पर दो बाल्टियों वाला ताँबे का समोवार शोर मचा रहा था, आग के दाँतों जैसी अपनी जाली को लाल करते हुए, और उसी से टकराया जिससे मिलना चाहता था याने देनिस्का से।

देनिस्का सोच में डूबा हुआ सिर झुकाए चबूतरे पर खड़ा था और बाएँ हाथ में सस्ता, भूरा सूटकेस पकड़े था, जो चारों ओर से लोहे की महीन चादरों से बनी छोटी-छोटी टोपियों से ढँका था और रस्सी से बँधा था। देनिस्का पुराने और शायद बहुत भारी लम्बे कोट में था जिसके कन्धे झूल रहे थे, और कमर बहुत खिसकी हुई थी, नई टोपी और फ़टे हुए जूते पहने था। उसका कद निकला नहीं था, धड़ की तुलना में उसके पैर बहुत छोटे थे। अब, नीचे को खिसक आई कमर और फ़टे हुए जूतों में उसके पैर और भी छोटे लग रहे थे।

“देनिस?” तीखन इल्यिच ने आवाज़ दी। “तू यहाँ क्या कर रहा है, बदमाश!”

कभी भी किसी चीज़ से आश्चर्यचकित न होने वाले देनिस्का ने शान्ति से उस पर अपनी लम्बी, बोझिल, उदासी से मुस्कुराती, बड़ी-बड़ी पलकों वाली आँखें टिका दीं और बालों से टोपी खींच ली। बाल उसके चूहे के रंग के थे और असाधारण रूप से घने थे, चेहरा धरती जैसे रंग का और चीकट था, मगर आँखें ख़ूबसूरत थीं।

“नमस्ते, तीखन इल्यिच,” उसने सुरीले शहरी अंदाज़ में, हमेशा की तरह सकुचाते हुए जवाब दिया। “जा रहा हूँ। । । । वही। । । तूला!”

“वह क्यों भला, क्या पूछ सकता हूँ?”

“शायद कोई जगह निकल आए। । । ”

तीखन इल्यिच ने उसका निरीक्षण किया। हाथ में सूटकेस, कोट की जेब से हरी, लाल पतली किताबें, गोल की हुईं, झाँक रही थीं। कोट। । ।

“मगर तूला का छैला तो तू लगता नहीं!”

देनिस्का ने भी अपने आप को देखा।

“कोट की वजह से तो नहीं?” उसने नम्रता से पूछा, “उसमें क्या है, तूला में थोड़े-से पैसे कमाऊँगा, अपने लिए बढ़िया तुर्का खरीदूँगा,” उसने ‘कुर्त्का’ को तुर्का कहते हुए जवाब दिया। “गर्मियों में मैंने कैसे काम किया था! अख़बार बेचे थे!”

तीखन इल्यिच ने सूटकेस की तरफ़ इशारा किया :

“और, यह क्या चीज़ है?”

देनिस्का ने पलकें झुकाईं।

“सूटकेस ख़रीदा है अपने लिए। ”

“हाँ, कुर्त्का में बगैर सूटकेस के तो चल ही नहीं सकते!” व्यंग्य से तीखन इल्यिच ने कहा, “और जेब में क्या है?”

“यूँ ही, छोटी-मोटी चीज़ें हैं। । । ”

“दिखा तो। ”

देनिस्का ने सूटकेस चबूतरे पर रखा और जेब से पतली किताबें बाहर निकालीं। तीखन इल्यिच ने उन्हें लेकर ध्यान से उलटकर देखा। गीतों की किताब “मारुस्या’, “चरित्रहीन पत्नी”, “मासूम लड़की बलात्कार की बेड़ियों में”, “बधाई गीत माता-पिता के लिए”, “पालकों के लिए और मेहेरबानों के लिए”, “भूमिका। । । ”

यहाँ तीखन इल्यिच की बोलती बन्द हो गई, मगर देनिस्का ने, जो उसकी ओर हे देख रहा था, जोश में और नम्रता से जोड़ा:

“रूस में भूमिका सर्वहारा वर्ग की। ”

तीखन इल्यिच ने सिर हिलाया।

“अच्छी ख़बर है : चरने को कुछ नहीं है, मगर सूटकेस और किताबें ख़रीदे जा रहे हो। और वह भी कैसी! सही है, तुझे यूँ ही गड़बड़ी फ़ैलाने वाला नहीं कहते। तू सुना है त्सार को गालियाँ देता है? सँभल-सँभल के भाई!”

“हाँ, मैंने कोई जागीर तो नहीं ख़रीदी है,” देनिस्का ने मायूस मुस्कुराहट से जवाब दिया। “और त्सार को तो मैंने छुआ भी नहीं। मुझ पर ये सरासर झूठा इल्ज़ाम है। और मैंने तो सपने में भी ऐसा नहीं सोचा। क्या मैं पागल हूँ?”

दरवाज़ा चरमराया, स्टेशन का चौकीदार, सफ़ेद बालों वाला पेन्शनयाफ़्ता सिपाही, घरघराती, सीटी-सी बजाती साँसे लेता हुआ, और रेस्टॉरेन्ट वाला, मोटा, सूजी हुई आँखों वाला, तेल लगे बालों वाला दिखाई दिए।

“एक तरफ़ हटिए, सेठ साहब, समोवार लेने दीजिए। । । ”

देनिस्का एक ओर को हट गया और उसने सूटकेस का हैण्डल पकड़ लिया।

“मारा है, शायद, कहीं से!” तीखन इल्यिच ने सूटकेस की ओर इशारा करते हुए और उस काम के बारे में, जिसके लिए वह स्टेशन आया था, सोचते हुए पूछ लिया।

देनिस्का सिर झुकाए हुए ख़ामोश रहा।

“खाली है पूरा?”

देनिस्का हँस पड़ा।

“खाली है। । । ”

“काम से निकाल दिया?”

“मैंने ख़ुद ही छोड़ दिया। ”

तीखन इल्यिच ने गहरी साँस ली।

“बिल्कुल बाप जैसा है,” उसने कहा, “वह भी हमेशा ऐसे ही कहा करता: उसकी गर्दन पकड़कर निकाल देते हैं, मगर वह, “मैं ख़ुद ही निकल गया। ”

“आँखें निकाल लो, झूठ नहीं बोल रहा। ”

“अच्छा ठीक है। । । घर तो गया था?”

“दो हफ़्ते था। ”

“बाप तो फिर से बेकार है?”

“अभी बेकार है। ”

“अभी!” तीखन इल्यिच ने चिढ़ाते हुए कहा, “पूरा गाँव ही सिरफ़िरा है। और ऊपर से क्रांतिकारी। भेड़िये की खाल ओढ़ता है, मगर पूँछ है कुत्ते की। ”

‘ओह, तू भी तो उन्हीं में से एक है’, मुस्कुराते हुए, देनिस्का ने, बिना सिर उठाए सोचा।

“मतलब, सेरी घर में ही बैठा है, सिगरेट फूँकता जा रहा है?”

“निठल्ला जवान!” विश्वासपूर्वक देनिस्का ने कहा।

तीखन इल्यिच ने उसके सिर पर उँगलियों से ठक्-ठक् किया।

“कम-से-कम अपनी बेवकूफ़ी तो ज़ाहिर न करता! बाप के बारे में ऐसा कौन कहता है?”

“बूढ़ा घोड़ा बाप नहीं कहलाता,” देनिस्का ने सुकून से जवाब दिया, “बाप है तो खिला। मगर, क्या उसने मुझे खिलाया?”

मगर तीखन इल्यिच ने उसकी बात पूरी नहीं सुनी। उसने सही घड़ी चुनी कामकाजी बातचीत शुरू करने के लिए। उसकी बात न सुनते हुए बीच में बोला :

“और तूला तक के टिकट के लिए तेरे पास?”

“लो, मुझे ज़रूरत ही क्या है टिकट की?” देनिस्का ने जवाब दिया। “डिब्बे में घुस जाऊँगा, सीधे, ख़ुदा मेहेरबानी करे, बेंच के नीचे घुस जाऊँगा। ”

“और किताबें कहाँ पढ़ेगा? बेंच के नीचे तो नहीं पढ़ेगा ना!”

देनिस्का ने कुछ देर सोचा।

“ये बात है!” उसने कहा, “पूरे समय बेंच के नीचे थोड़ी ना पड़ा रहूँगा। सण्डास में घुस जाऊँगा – सवेरा होने तक पढ़ते रहो। ”

तीखन इल्यिच ने भौंहे हिलाईं।



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