एकता पार्क
एकता पार्क


सेठ रामस्वरूप ने नीम, पीपल और बरगद के पेड़ मंदिर प्रांगण में बरसों पहले लगाए थे। जिनसे आज तक तरो-ताज़ी हवा मिलती है। उसका परिवार पीढ़ियों से देवगढ़ कसबे में रहता आया था। यहाँ की प्राकृतिक छटा ही निराली थी। कल-कल करती नदी कसबे के एक ओर बहती थी। जिसके किनारों पर सब्जियों के छोटे-बड़े कछार थे। जहाँ से ताज़ा सब्ज़ी आती थी। इसी के किनारे पर थोड़े दूर जाकर आम, अमरुद के बग़ीचे थे।
देवगढ़ कसबे की अपनी ही शान थी। आस-पास के गाँवों के किसान बाजार के दिन अपने कंधे पर अनाज की पोटली लेकर आते और गल्ली मंडी में बेच कर अपनी ज़रूरत का सामान खरीद कर ले जाते। सेठ रामस्वरुप की परचूनी की दुकान भी खूब चलती। उसके अनेक किसानों से सम्बन्ध भी बन गए थे।
वक़्त बदलता गया, देवगढ़ कसबे की आबादी भी अब अनियंत्रित बढ़ रही थी। आस पास नई-नई कालोनियों ने अपने पैर पसार लिए थे। चौड़ी-चौड़ी सड़कों ने तंग गलियों का रूप ले लिया था। नदी भी सिकुड़ कर सकरी सी हो गई थी। बड़े बेटे संदीप ने तो नई कालोनी में एक सुपर बाजार भी खोल लिया। कारोबार में दिन दूनी तरक्की हो रही थी।
देवगढ़ क़स्बा भी विकास के पथ पर चल निकला था। नए-नए उद्द्योग धन्दे स्थापित हो रहे थे। घरेलू उद्योग धन्दे भी खूब फैलने फूलने लगे।
नगर पालिका ने भी एक औद्योगिक क्षेत्र का विकास कर छोटी-बड़ी फैक्टरियाँ खोलने का रास्ता आसान कर दिया। जब फैक्टरियाँ खुलीं तो उनमे कामगारों की आवश्यकता हुई। आस-पास के देहातों के अलावा देश के कोने-कोने से कारीगर पलायन कर आने लगे। सबके हाथ काम-धन्दा पाकर खुश थे। सभी के काम-धन्दे तरक्की पर थे। इसलिए देवगढ़ में चारों ओर खुशहाली थी।
लेकिन सेठ रामस्वरुप को बढ़ती आबादी देख कर घुटन सी महसूस होती। उसे ऐसा लगता, जैसे उसके हिस्से की ताज़ी हवा किसी ने छीन ली है। उसके बेटे-बहुओं को भी अब पुराना तंग गलियों वाला मोहल्ला रास नहीं आ रहा था।
पिता जी, हमने सौम्य बिहार कॉलोनी में जो मकान लिया है। हम उस में शिफ्ट क्यों नहीं हो जाते?
संदीप बेटे, लेकिन मेरी तो पुश्तों की जड़ें इसी मकान में हैं। मैं कैसे इन्हें छोड़कर जाऊं? अपने सब लोग तो यहीं हैं।
हम रहेंगे तो इसी कसबे में। अब आप देखिये, यहाँ न बच्चों के खेलने की जगह है। न हमारी गाड़ियाँ घर तक आ पातीं हैं। नई कॉलोनी में चारों तरफ खुली हवा है। आप हर रोज़ सुबह-शाम घूम लिया करना। छोटू को खेलने के लिए स्टेडियम भी बन गया है।
हाँ, दादा जी। आप भी मेरे साथ चला करना। जब तक मैं अपनी टेनिस की प्रैक्टिस करूँगा। आप वॉक कर लिया करना। बहुत मज़ा आएगा। यहाँ तो ट्रैफिक के कारण मम्मी मुझे बाहर ही नहीं निकलने देतीं।
सही तो है, तुम अभी बहुत छोटे हो बेटे। तुम यदि रोड पर बाल उठाने गए और सामने से गाड़ी आ गई तोे.. ? बहू ने अपनी चिन्ता व्यक्त करते हुए कहा।
हमारे वहाँ शिफ्ट होने से हमारी समस्या तो हल हो जाएगी लेकिन हमारे साथ जो लोग सदियों से इस मोहल्ले में निवास करते हैं उनकी समस्या कैसे हल होगी? आखिर किसी को तो यहाँ रहना होगा। मैं ये मानता हूँ कि रोज़गार के लिए उद्द्योग धन्दों का होना ज़रूरी है। लेकिन बढ़ती आबादी से पर्यावरण को कितना नुक्सान पहुँचता है। यह हमने कभी सोचा है। वायु प्रदूषण हमारे लिए कितना हानिकारक है। हम बिना खाए-पिए तीन दिन तक ज़िंदा रह सकते हैं लेकिन बिना साँस लिए सिर्फ चंद मिनटों तक ही। और साँस लेने के लिए शुद्ध हवा का होना बहुत ज़रूरी है। शुद्ध हवा को तो बढ़ती आबादियों ने शहर से दूर कहीं रोक लिया। नदियों का शुद्ध पानी फैक्ट्रियों से निकलने वाले अवशेषों ने प्रदूषित कर दिया। यहाँ लगने वाली फैक्ट्रियों की चिमनियाँ ताज़ी हाव् में ज़हर घोलकर हम तक पहुंचा रही है। जंगलों को काट कर हम उनकी जगह कंक्रीट के जंगल तैयार कर रहे हैं। जिसका मौसमों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। अब हमारे मौसम भी बदल गए हैं न समय पर बारिश होती है न सर्दी गर्मी। हम अपने आने वाली पीढ़ी को विरासत में किस तरह का पर्यावरण देकर जाएंगे। मुझे तो समझ नहीं आता बेटे। अगर हम ऐसे ही करते रहे तो एक वह कॉलोनी, जिसमें हम रहेंगे वह भी चारों तरफ से घिर जाएगी। उसका हाल भी कालान्तर में वही होगा जो आज यहाँ का है।
तो फिर पिता जी हम क्या कर सकते हैं? यह तो एक वैश्विक समस्या है। सारी दुनिया में शहरों की आबादी बढ़ती जा रही है। गाँवों से लोग पलायन कर रहे हैं। चूँकि शहरों में गाँवों की अपेक्षा रोज़गार के अवसर अधिक होते हैं। इसलिए लोग रोज़गार की तलाश में भागे चले आते हैं। अगर हम यूँ कहें कि जिन हाथों को काम नहीं था उनको किसी तरह काम तो मिल रहा है। जिससे उनकी आजीविका चल रही है। यह भी तो बहुत ज़रूरी है। खेती किसानी के भी बटवारे होगए, अब उनके पास इतना काम नहीं है कि एक घर के चारों भाई एक ही ज़मीन से एक ही छत के नीचे रहकर अपना गुज़र-बसर कर सकें। हमें नए उद्द्योग धन्दे तो स्थापित करने ही होंगे। ये अलग बात है कि हम वर्तमान समस्याओं के निराकरण में अपना सहयोग दें। सरकारें इस दिशा में काम कर रही हैं। पर्यावरण संरक्षण विभाग हर साल बारिश के मौसम में विभिन्न सामाजिक संस्थाओं को वृक्षारोपड़ के लिए प्रोत्साहित करता है। ताकि जिस तरह से जंगल कट रहे हैं उनकी भरपाई की जा सके। शहरों में खाली पड़ी ज़मीनों पर शहरी वन लगाने की योजना है।
तो फिर हम भी इसमें किस तरह सहयोग कर सकते हैं?
आपने बरसों पहले मन्दिर प्रांगण में जो तीन पेड़ लगाए थे। अब इसके आस-पास की खाली जमीन में मन्दिर समिति के द्वारा वृक्षारोपण कर हम इस मोहल्ले की हवा को और शुद्ध कर सकते हैं।
बेटे ये तुम्हारा सुझाव तो सराहनीय है।
जी हाँ, मन्दिर के पास खाली पड़ी जमीन पर जनभागीदारी योजना के अंतर्गत एक पार्क भी बना सकते हैं।
जनभागीदारी योजना क्यों ? भगवान् ने हमें भी सक्षम बनाया है। जिस तरह हम मन्दिर में दान-दक्षिणा करते हैं। उसी तरह उस पार्क की भी देख-रेख की ज़िम्मेदारी हमारी होगी। तुम इस योजना पर काम शुरू को।
जैसा आदेश, पिताजी।
संदीप अपने पिताजी की इस इच्छा को मूर्त रूप देने में जुट गया। उसने न केवल मन्दिर समिति को वृक्षारोपड़ के लिए तैयार किया बल्कि पार्क बनाने के लिए भी राज़ी कर लिया।
आज मंदिर प्रांगण में बहुत जोश था। पर्यावरण मंत्री जी की, सभी उत्सुकतावश प्रतीक्षा कर रहे थे। सेठ रामस्वरूप की अगवाई में एकता पार्क का उद्घाटन मंत्री जी द्वारा वृक्षारोपण कर किया जाना था।