एक ख़्वाहिश ऐसी भी
एक ख़्वाहिश ऐसी भी
बादलों को चाहा था मैंने चिठ्ठियाँ लिखना। और कोशिशें भी बहोत की थी। पर न जानें क्या हुआ! रिमझिम बारिश की बूंदों में वो सारे अल्फ़ाज़ फ़ाख्ता होते चले गए। और मैं यहाँ धरा पर इंतज़ार में आधी होती चली जा रही थी। फिर भी कोई अंदेशा तक हाँसील न हो पाया कि, मेरे लफ़्ज़ों को जमीं न मिली।
आख़िरकार मैंने ठान लिया कि आज् तो वो काम किसी भी हालत में पूरा करना ही करना है।और मैंने लिखना आरंभ किया कि,ओ ऊपरवाले,एक नन्हीं सी परी मेरे ऑंगन में भी भेजना जरूर। जिसकी किलकारियों से सुबह मेरी जगे। दोपहर मेरी अँगड़ाइयाँ लेती हुई मुड़े। और शाम गुज़रते पल के साथ अपने होने का एहसास मुझसे प्यार करते हुए गुज़ारें।रात को लोरियाँ सुनें और थपकियाँ लेते हुए देना भी जानें।बचपन मुझसे माँगें वो उधार। और खुशियों से भरे झोली मेरी सौ सौ बार।लेकिन,शायद से फोन रिसीव नहीं हो पाया होगा उसकी ओर से। या फिर, कनेक्शन बीच में ही कट गया होगा।तभी तो, आसमान में रहनेवाले उस बंदे ने मेरे ऑंगन में बेटी के बदले में अनचाहे बेटे ही भेज दिए!!बेटे अनचाहे होने के पीछे की वजह यह है कि,बेटियाँ, स्वर्गलोक को धरा पर उतारती है। दो जहां को सँवारती भी है। संस्कारों की ज्योति से हर एक कोना प्रकाशित करती है। और तो और वो दूसरों को भी जीवन जीने का सही मार्ग दिखलाती रहती है।बेटियाँ, स्नेह की गंगा बहाती है। मात पिता के स्वाभिमान का सरताज होती है। भाई की पघड़ी का कलेवर बनती है। पति के सम्मान की कलगी बनी रहती है। बच्चों के लिए एक आदर्श भी तो एक मात्र वो ही होती है। और, ये सब एक ही काया में समाकर अनेकानेक रूप को धारण करती 'देवी' होती है।
पर् न जानें क्या हुआ कि,
लगातार चौदह सौ साल तक कोशिशें जारी करने के बाद भी आज इंसान जिस कोख़ से लेता आ रहा है जनम; उसी बेटियों को अनचाहा कहकर दुत्कारना नहीं भूला।इसलिए,मुझें इस जनम के साथ साथ हर एक जनम में बेटी ही बनना है।और,बेटी ही जनना है।ये आवाज़ कभी न कभी तो जरूर पहुँचेंगी आसमां में रहनेवाले उस बन्दे तक।मैं इन्तज़ार करनें में माहिर हूँ।