दरख़्त का दर्द
दरख़्त का दर्द
सेवानिवृत्ति के पांच साल बाद उमेश की पत्नी का देहांत हो गया। नौकरी में रहते अच्छी खासी भीड़ इर्द-गिर्द मंडराती रही । आज उमेश नितांत अकेले रह गए। दूर-दूर तक कोई आस पास नहीं । शरीर साथ छोड़ने लगा। घुटनों के दर्द के साथ ही आंखों की रोशनी जवाब देने लगी। पत्नी के जीवित रहते कोई अभाव महसूस नहीं हुआ। घर के सारे काम मनमाफिक होते रहे। अब टिफिन का खाना मन भाता नहीं। आसन्न बुढ़ापे की विद्रूपता का स्मरण करते ही मन विशाद से भर उठता। परिस्थितियों ने एकाकी बना दिया। घर की चारदीवारी में कैद उमेश जैसे तैसे घटती के दिन पूरा करने लगे।
वृद्धाश्रम शिफ्ट होने का मन बनाकर लोक लाज के भय से हरबार पीछे हट जाते। कभी कभार नगर निगम के बगीचे में जाकर धूप सेंक लेते।
एक दिन अचानक उदास अधेड़ महिला को देखकर वहीं ठिठके रहे। उनका मन अंदर ही अंदर तर्क वितर्क करने लगा। झिझकते हुए वे हवेली को चल दिए। यह सिलसिला कुछ दिन लगातार चलता रहा।
एक दिन साहस बटोरकर उमेश ने महिला से पूछ लिया " मेरा नाम उमेश है। सामने वाली हवेली में रहता हूं। कुछ दिनों से देख रहा हूं आप अकेली उदास बैठी रहती हो।"
महिला " मैं वंदना हूं। यहां टाइम पास करने के लिए आ जाती हूं। अकेली हूं। पति और बच्चे नहीं रहे।"
उमेश " वंदनाजी, मेरी पत्नी का देहांत हो चुका। इकलौता बेटा अमेरिका सेटल हो गया। अकेला ही रहता हूं। शरीर और मन दोनों थकने लगे हैं"
वंदना "ऐसा मत कहिए ।मैं महिला होने के बावजूद अकेले जीवन यापन कर रही हूं।"
दोनों की बगीचे में यदा-कदा मुलाकात होती रही। एक दूसरे की व्यथा कथा जानने के बाद वे मानसिक तौर पर जुड़ाव महसूस करने लगे।
वंदना (उमेश से) " अरे वाह, आज पहली बार आपकी हवेली देख रही हूं । गार्डन तो बहुत बड़ा है। लेकिन बहुत सारे पेड़ पौधे सूख रहे हैं। ।"
उमेश "जीवन भर इस बगीचे को बहुत प्रेम और जतन से हरा भरा रखा। पत्नी के जाने के बाद सब कुछ तबाह हो गया।"
वंदना " कीमती मानव जीवन को इतनी आसानी से गंवाया नहीं जा सकता । खामोश दरख़्त का दर्द अनुभव कर रही हूं ।इस गार्डन को फिर से हरा भरा बनाना होगा।"
उमेश " सामने सूखता हुआ दरख़्त देखकर आंखों में आंसू आ जाते हैं। लाख कोशिश के बाद भी इसे नहीं बचा पा रहा।"
रोज सुबह सुबह हवेली में आकर वंदना पेड़ पौधों को अपने हाथों से पानी देने लगी। चंद दिनों में पूरा बगीचा हरा भरा हो गया। समय की मार से सूखता हुआ दरख़्त हरिया उठा।