दर्द एक सैनिक का
दर्द एक सैनिक का
जोश-ए-जवानी और जीवन से भरे हुए जांबाजों का भी एक दिल होता है जज़्बात होते हैं भावनाएं और संवेदनाएं होती हैं लेकिन सबसे ऊपर होता है देश भक्ति और देश सेवा की भावना। अपनी स्वेच्छा से संकल्प लेते हैं कि सबसे पहले देश के प्रति समर्पित रहेंगे और अपनी इसी शपथ को निभाते हुए छोड़ आते हैं अपने वृद्ध माता-पिता को , नयी नवेली दुल्हन को, अबोध दूधमुंही बच्ची को। इतना ही नहीं उन्हें अपनी अल्पकालिक नौकरी में ही दो तीन बच्चों को पैदा करके बड़े करने का अरमान भी होता है। और इसी दूरदर्शितापूर्ण सोच को अंजाम देने के लिए पत्नी की मनाही के बावजूद यह जिम्मेदारी थोप कर चल देते हैं ऐसे सफर पर जहां से लौटना सुनिश्चित नहीं होता है। लगभग सभी सैनिकों की यही कहानी होती है।
उड़ी सेक्टर में कमांडिंग आफिसर का दरबार लगा है एक सैनिक को पुरस्कृत करने के लिए। यूं तो यह बहुत हर्ष और गर्व की बात है मगर वो सैनिक बहुत उदास परेशान हैं। पुरस्कार लेकर आवश्यक औपचारिकता निभाने के बाद वो मंदिर में बैठकर रोने लगा और बेतहाशा रोता रहा। राजगुरु ने उनके इस विलाप का कारण जानना चाहा तब उन्होंने बताया कि उनकी पत्नी मां बनने वाली हैं। "पहले से डेढ़ साल की बच्ची है इसलिए पत्नी बिल्कुल नहीं चाहती थी कि दूसरा कोई बच्चा आये उसके बाद भी मैंने मजबूर किया और उसे गांव में छोड़ कर चला आया हूं। मैंने घर वालों को बोला था कि साले साहब लेने आएंगे तब मायके भेज दिया जाए। शहर में सभी सुख सुविधा आसानी से उपलब्ध हो जाएगी लेकिन मेरे घर वालों ने नहीं भेजा। पहला प्रसव से टूटा शरीर अभी तक संभला भी नहीं था कि दूसरा भार ऊपर से घर की जिम्मेदारी भी। डॉ ने बहुत खराब हालत बताई है। और दस बारह दिनों से खबर नहीं आई है।"
किसी पुरुष को इस तरह रोते हुए देखकर राजगुरु बहुत भावुक हो गये और उन्होंने उस मंदिर की दिव्य प्रतिमा के सामने ज्योत जलाकर प्रार्थना की सैनिक की पत्नी की कुशलता के लिए और विश्वास दिलाया की सब कुशल मंगल है। "नो न्यूज़ इस गुड़ न्यूज़" अगर कुछ बुरा हुआ होता तो उसकी सूचना शीध्र मिल गई होती। यह सुनकर फौलादी सैनिक कांप गया था भीतर से। पिछले दो महीने से जो समाचार मिल रहें थे वो बहुत बुरे थे। खुद को हर बुरी कल्पना का जिम्मेदार मानते हुए उसने खाना छोड़ दिया और भूखा ही सो गया।
दिसंबर का महीना उड़ी सेक्टर का तापमान शून्य से 20 डिग्री पर दूर दूर तक सफ़ेद चादरों से लिपटा हुआ पहाड़ और चिनार के पेड़ भी सफेद ही सफ़ेद दिखाई दे रहें थे। मन में पश्चाताप , खुद पर क्रोध और बेचैनी ..... कितना बेबस और लाचार होता है एक सैनिक ....? एक तरफ देश का हीरो जो हर असंभव को संभव करने वाला हर विषम परिस्थितियों से दो चार करके सकुशल लौटने वाला सैनिक ... सीने पर पच्चीसों गोलियां खाकर भी डटे रहने वाला सैनिक कितना कमजोर होता है भीतर से ..... पहली बार उसे अपने भीतर का पति और पिता जागा था। यह सबसे कमजोर लम्हा था जब वो इतना असहाय महसूस कर रहा था। लेकिन अब तो सिर्फ इंतजार करना था। बहुत मुश्किल होता है किसी का इंतजार करना और वो भी इस विरानी में जहां सब कुछ शांत स्थिर और निर्जीव समान दिखाई दे रहे हों।
बमुश्किल गुजरा सात दिन 28 दिसंबर 1996 की दोपहर एक बड़ी खुशखबरी लेकर आई। घर से बाबूजी का खत आया लिखा था "तुम्हें बेटा हुआ है " कितनी आसानी से पिता होने का गौरव प्राप्त हो गया था उसे और उसकी पत्नी उससे दूर गांव में किन किन यातनाओं को झेला होगा ... उसे कितनी पीड़ा हुई होगी ...। बहुत सी बातें दिमाग़ में आई मगर वो सबसे पहले मंदिर पहुंच कर माता रानी के आगे माथा टेका। गुरु जी को बताया और मिठाइयां बंटवाई। खुशी की खबर तो मिल गई थी लेकिन पत्नी से बात करने की इच्छा हो रही थी। उस समय मोबाइल नहीं हुआ करता था। टेलिफोन बूथ पर जाकर बात करनी होती थी वो भी सप्ताह में सिर्फ एक दिन और समय भी सीमित होता था । बहुत बार लाइन में खड़े खड़े अपनी बारी का इंतजार करना होता था और जैसे उसकी बारी आती थी। समय समाप्त हो जाता था और घंटों इंतजार के बाद भी बिना बात किए लौट जाना पड़ता था। ग्यारह दिन बाद वो दिन आया जब उसने अपनी पत्नी की आवाज सुनी थी। बस इतना भर ही बोल पाई थी मैं बहुत खुश हूं आप भी खुश हो जाइए। आने की जल्दी मत मचाइएगा जब छुट्टी मिलें तब आराम से आइएगा। मैं यहां बहुत आराम से हूं, बहुत खुश हूं सभी लोग मेरा बहुत ख्याल रखते हैं। आप बिल्कुल चिंता नहीं कीजिएगा। आपका बेटा आपके जैसा ही दिखता है आईना देखकर खुद को प्यार कर लीजिएगा .....। मन फिर से भींग गया था टेलिफोन बूथ पर और भी लोग पीछे खड़े थे बात खत्म करनी थी मगर जी चाहता था सुनता रहूं चुपचाप .... चार सालों से सुनता आ रहा हूं लेकिन आज पहली बार कुछ अलग सा अनुभव हुआ। संघर्ष, कष्ट , दुःख और तकलीफ़ अधिकांशतः इंसान को रूखा और कसैला बना देता है मगर ये तो ..... उसने बताया तो कुछ भी नहीं था लेकिन खबर सब लग चुकी थी किन मुसीबतों से जूझते हुए उसने बेटा को जन्म दिया है। पत्नी के लिए अगाध प्रेम और उससे भी ज्यादा सहानुभूति और दर्द महसूस होने लगा था। मगर अपने कर्तव्य और प्रतिज्ञा से बंधा हुआ सैनिक चाहें कुछ भी सोचता रहें लेकिन उसे तो वही करना है जिसके लिए वह वचनबद्ध है , संकल्पित है। रॉल कॉल का समय हो चुका था उसे अपनी ड्यूटी पर तैनात होना था। देश अभी खतरे में है। उसे छुट्टी लेने की बात सोचनी भी नहीं चाहिए। उसे अपनी पत्नी की कही बातें याद आई और वह आईना के सामने जाकर देखने लगा .... उसका बेटा उसके जैसा ही दिखता है। बातों से भी ताकत मिलती है। उसे भीतर से भी ऊष्मा महसूस हुई। फिर से अपनी प्रतिज्ञा अपना शपथ याद आया और पूरे उत्साह के साथ चल पड़ा भारत माता की रक्षा करने के लिए सीमा के सबसे ऊंची पोस्ट पर जहां से कुछ देर पहले सफेद चादरों के सिवा कुछ नजर नहीं आ रहा था मगर अब उन बर्फिली पहाड़ों के बीच से एक रास्ता दिखाई देने लगा है जो उसे उसकी पत्नी और बच्चों के पास ले जाएगा। यह यकीन, उम्मीद और चाहत जिंदा रखती है सैनिकों को।