दोष किसे दें
दोष किसे दें
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सविता अपने घर की तरफ़ जा रही थी तभी उसकी नज़र उस फ़्लैट पर पड़ी जो कभी हँसते खेलते ठहाकों से गूँजा करता था । आज वीरान सा हो गया है ।ताले लगे हैं और मनी प्लांट भी सूख गया है । एक साल होने वाला है पर कल की ही बात लगती है । घर के मुखिया की मौत करोना से होने के बाद बेटे ने पिता को खोया ,पत्नी ने पति को ,बूढ़ी माँ ने अपने जवान बेटे को!!!!!!!
सास फूलमती , बहू माया दोनों में पटती तो बिलकुल नहीं थी । माया आए दिन सास से लड़कर मायके चली जाती थी । पति सूरज उसे मनाकर लाता था । वह दोनों के बीच की कड़ी था । सूरज के जाने के बाद दोनों सास और बहू अपने आपको असुरक्षित महसूस करने लगीं । फूलमती के ही नाम पर उनके पति ने दो घर दुकान और ज़ेवर पैसे सब कर दिया था । पिता के गुजरने के बाद फूलमती के बेटे ने भी सब माँ के नाम ही रखा । एक ज़मीन ख़रीदी थी । वह भी माँ के नाम पर कर दिया । वह भी माँ को ही खुश देखना चाहता था । सब माँ का ही है ऐसा सोचता था ।
एकबार माया ने सूरज से हँसते हुए कहा भी था कि "माँ के नाम पर ज़ेवर ख़रीदते हो उनकी उम्र बीत गई है । वह तो कहीं जाती भी नहीं हैं और मुझे कहीं जाना भी है तो उनसे माँगना पड़ता है ।मैं आपकी पत्नी हूँ कभी-कभी भूले बिसरे मेरे लिए भी ला दिया करें न ?"
"मैं अपने माता-पिता का अकेला बेटा हूँ जो भी है तेरा मेरा ही होगा न" उसने भी बात को हँसते हुए टाल दिया ।
यह ऐसा था ही नहीं । सूरज के गुजरते ही पासा पलट गया । माँ का साथ देने के लिए बेटियाँ आ गई । माँ ने भी उनकी शह पाकर बहू से कह दिया कि सब कुछ मेरा है जब मेरा बेटा ही नहीं रहा तो तुमसे मेरा रिश्ता भी नहीं रहा । माया जिन ननंदों के घर आने से उनकी सेवा करती थी । जिस सास के तानों को सुनकर भी उनकी परवाह करती थी । आज वे सब माया के ख़िलाफ़ खड़ी थी । माया का बेटा छोटा था नवीं में पढ़ता था । उसे और उसके बेटे को घर से बाहर जाने के लिए मजबूर कर दिया गया । माया स्वाभिमानी थी वह बेटे को लेकर अपने मायके चली गई । फूलमती अपने हाथ से काम नहीं कर सकती है । इसलिए बेटी अपनी माँ कोअपने घर ले गई पर कितने दिन वहाँ रह सकती थी । सविता को दो दिन पहले ही पता चला कि फूलमती जी अपने घर वापस आ गई हैं । वह बेटी के घर से वापस आ तो गई पर बहू को नहीं बुलाया । बहू सास के बुलाने के इंतज़ार में है कि वह बुलाए और यह दौड़ी चली आए क्योंकि मायका तो शादी के बाद थोडे दिनों के लिए ही अच्छा लगता है और माया ने अपनी ज़िंदगी के पच्चीस साल इस घर को दिए थे और आज वह घर ही उसका नहीं है कहकर सास ने बाहर कर दिया था ।
सास इस आस में है कि बहू अपने आप आए तो उनका दबदबा क़ायम रहेगा । ज़िंदगी के आख़िरी मुकाम पर है पर ग़ुरूर अभी तक नहीं गया है । इस परिवार को देख सविता सोचती है कि सास बड़प्पन दिखा कर बहू को अपने घर बुला लें या माया यह मेरा घर है ज़िंदगी के पच्चीस साल इस घर को दिए हैं । इसलिए मेरा भी हक़ है जिसे कोई नहीं छीन सकता यह सोचती तो शायद बात कुछ और होती ।
इनसे सभी बहुओं को एक सीख तो ज़रूर मिलती है कि हालातों से लड़ना है अपने घर में रहकर अपने घर को छोड़कर नहीं जाना है । सासों के लिए यह सीख है कि ‘बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर का ‘ के समान न बनकर अपने बड़प्पन का लिहाज़ करते हुए बहू के दर्द को समझे और उसे अपने कंधों का सहारा दे ।
सविता सोचती है कि अब ईश्वर ही उनके हालातों में सुधार ला सकता है । मित्रों करोना जैसी महामारी के बाद ऐसे क़िस्से हमें बहुत ही सुनने और पढ़ने को मिले हैं । एक औरत ही औरत का दर्द न समझ सके तो दोष किसे दे सकते हैं । इसे पढ़कर एकबार सोचिए ज़रूर ???????