rekha karri

Inspirational

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बीते हुए प्यारे पल

बीते हुए प्यारे पल

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रिटायर होने के बाद घर की तरफ़ मेरी नज़र पड़ी सोचा इतने सालों से कामवाली बाई के भरोसे ही काम चल रहा था चलो मैं अब कुछ करूँ ताकि समय भी बीत जाएगा। पूरी अलमारी साफ कर रही थी तो मुझे मेरे बच्चों की तस्वीरें दिखाई दी। बड़े प्यार से उन्हें देखने लगी थी कि आज पोता मेरा अपने पिता के समान ही दिखता है। वैसे ही शरारती है।

एक तस्वीर पर नज़र पड़ी जब वह तीन साल का था। बिटिया पाँच साल की थी। आज वह घटना भी याद आई जब वह मेरे पीछे पड़ गया था कि हमें मूवी देखने जाना है। मन तो मेरा भी था परंतु जैसे हम सब जानते हैं कि एक संयुक्त परिवार वह भी ससुराल में बहू के ऊपर घर की ज़िम्मेदारियाँ इतनी होती हैं कि उसे बाहर जाने का समय नहीं मिलता था। 

हमारा घर भी ऐसा ही था। हम दो बहुएँ सास ससुर, ससुर की माँ, तीन देवर यह हमारा परिवार था। मेहमानों का ताँता लगा रहता था। बहू और चूल्हे को कभी आराम ही नहीं मिलता था। 

एक बार ऐसा समय आया था कि सास ससुर, ससुर की माँ और दो देवर तिरुपति गए थे। एक देवर और मेरे पति ऑफिस के काम से टूर पर दो दिन के लिए ही सही गए थे। अब सोचिए घर में मैं, मेरे दो बच्चे और मेरी देवरानी ही थे।

ऐसा मौक़ा बार बार नहीं मिलता है। हमारे लिए देर से उठना मन पसंद खाना बनाकर खाना यही बातें आनंद देती थी। हमारी छोटी छोटी ख़्वाहिशें थी जिन्हें इन दो दिनों में ही हम पूरी कर लेना चाहते थे।

उसी समय जब हमारे पड़ोसियों को पता चला कि हम घर में अकेले हैं तो उन्होंने कहा दीदी मूवी देखने चलते हैं क्या ? मूवी वह भी घर वालों की इजाज़त के बिना ना बाबा ना पता चल गया तो मुझे ही अधिक सुनना पड़ेगा क्योंकि मैं बड़ी जो थी। 

मेरी देवरानी छोटी थी उसने कहा दीदी चलते हैं ना प्लीज़। वैसे बेटे ने भी सुबह यही माँग मेरे सामने रखी थी। इतने सालों में हमें पहली बार आज़ादी मिली थी किसी बात का निर्णय लेने का मौक़ा मिला तो सोचा चलो देवरानी भी क्या याद करेगी।  बड़े ही रोब से कहा चलो चलते हैं बाद की बाद में सोचते हैं। बच्चे भी खुश हो गए थे। हमारा घर शहर के बीचोबीच स्थित था। घर के सामने वाले थियेटर में जाने का फ़ैसला किया था क्योंकि रोड क्रास कर दिया तो बस है।

पड़ोस के बच्चों ने टिकट ख़रीद कर ला दिया था। सही समय पर पड़ोसन की तीन लड़कियाँ मैं और मेरी देवरानी मेरे दो बच्चों को निकलना था। मैंने उन लोगों से कहा आप लोग चलिए मैं दरवाज़े बंद करके आती हूँ। मेरा टिकट मुझे देकर वे लोग चले गए और मैं मेरे बेटे के साथ घर के दरवाज़े बंद कर रही थी घर बड़ा था तो पिछवाड़े के दरवाज़े बंद करने पड़ते थे। 

उसी समय बेल बजी तो सोचा ओह अभी कौन आ गया होगा आकर देखा तो सास के भाई थे। 

मेरा दिल धक से रह गया था। सोचने लगी यह क्या सिर मुँड़ाते ही ओले पड़े जैसे पहली बार कुछ रोमांचक काम करने जा रहे थे और शुरू में ही ख़लल पड़ गया है। अब ये कितनी देर तक रुकेंगे नहीं मालूम है। वहाँ मूवी शुरू हो जाएगी उन्हें यह बता भी नहीं सकते थे कि हम मूवी जा रहे हैं क्योंकि सास को पता चल जाएगा। वे कड़क मिज़ाज की थी। पता चला तो घर सिर पर उठा लेंगी साथ ही अगली बार कभी अकेले छोड़ेंगी नहीं। 

उन्हें अंदर बुलाया बैठाया और चाय पानी की व्यवस्था करने की बात कही तो उन्होंने मना कर दिया था। इधर मेरा बेटा उनके ही सामने बोलता जा रहा था माँ वे सब चले गए हम कब जाएँगे। मैं डर रही थी एक बार उन्होंने कहा भी था कि कहीं जाना है क्या ?मैंने झट से कहा नहीं?

सास घर में नहीं थी। इसलिए वे जल्द ही यह कहते हुए चले गए थे कि मेरी बहन को बता देना मैं आया था। उन्हें फिर से आने के लिए कहा और उन्होंने भी आने का वादा किया और चले गए। मैं जान बची लाखों पाए सोचते हुए जल्दी से ताला लगाकर बेटे को लेकर रोड क्रास करके थियेटर में गई मूवी शुरू हो गई थी। 

परंतु घर वालों से छिपकर मूवी देखने का मज़ा ही कुछ और था। 

आज बच्चे बड़े हो गए हैं बेटा चालीस साल का हो गया है और उन बातों को याद करते हैं तो हँसी आती है। अब भी उस घटना को याद करके बच्चे कहते थे माँ आप दादी से इतना क्यों डरतीं थीं उसका जवाब आज भी मेरे पास नहीं है। एक मीठा सा एहसास हुआ फिर मैंने अल्बम को अपनी जगह रख मुस्कुराते हुए गुनगुनाने लगी “दिन जो पखेरू होते पिंजरे में मैं रख लेती।“



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