Archana Anupriya

Abstract Inspirational

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Archana Anupriya

Abstract Inspirational

दिव्य दर्शन

दिव्य दर्शन

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प्रकृति का खूबसूरत और सुकून भरा आंगन, अपने विशाल नयनों से निहारती मेखलाकार पर्वत-श्रृंखला, आसमान को छूती ऊंचाइयों पर स्थित स्वच्छ, स्वस्थ, पवित्र मंदिर का प्रांगण; हवाओं में तैरते मधुर भक्ति- संगीत, बैकग्राउंड में बजती मंदिर की पवित्र घंटियों की आवाज, मंदिर के अंदर से आते पूजा के हृदयस्पर्शी लयबद्ध संस्कृत के श्लोक और इन सबके बीच भगवान के साक्षात्कार के लिए उमंगों से भरा मेरा मन--। लग रहा था,मैं  किसी और ही जगह पहुंच गई हूँ।

सुबह के 5:30 बज रहे थे। पूर्व दिशा में बादलों की टुकड़ियों के बीच से झांकने को आतुर सूरज बस निकलने ही वाला था। मैं मंदिर के प्रांगण के एक कोने में बैठी मंदिर के द्वार खुलने का इंतजार कर रही थी। लंबी लाइन थी भक्तों की... न जाने कितनी दूर- दूर से दर्शन के लिए आए थे सब। सबकी जुबां पर बस भगवान के नाम के जयकारे थे। भक्तों की इस उमड़ती भीड़ को देखकर मेरे मन में आया कि इंसान अपनी निजी जिंदगी में चाहे जैसा हो, पर उस परम शक्ति के आगे बच्चा ही है। भूखे बच्चे जैसे रसोईघर के दरवाजे पर खड़े उछल-उछलकर भूख से छटपटाते भोजन मिलने की चाह में रसोई के अंदर थाली तैयार करती मां को देख-देखकर मां मां की पुकार करते मचलते रहते हैं, कुछ वैसा ही भक्तों की भीड़ की छटपटाहट देखकर मुझे महसूस हो रहा था।यूँ तो मंदिर सुबह के 4:00 बजे ही खुल जाता है परंतु भोर की आरती और भोग के बाद अंदर भगवान के सुबह का श्रृंगार किया जा रहा था। मंदिर के द्वार खुलने में अभी पाँच -दस मिनट का समय शेष था। मैं एक बार फिर अपने विचारों में खो गई -”हम कहते हैं कि भगवान कण-कण में हैं ; फिर इतने कष्ट उठाकर मंदिर क्यों जाते हैं?.... भगवान के दर्शन तो घर बैठकर भी किए जा सकते हैं, फिर इतनी-इतनी दूर से पैदल चलकर, इतनी ऊंचाइयों चढ़कर, पैसे खर्च करके मंदिर आने की चाह क्यों रखते हैं लोग..? कितने लोग तो तीर्थ के लिए जमीन- जेवर भी गिरवी रख देते हैं या बेच देते हैं। इंसान चाहे किसी भी धर्म को मानने वाला हो… उस शक्ति के दर्शन की चाह जरूर रखता है। देखा जाए, तो उसकी इसी चाहत का फायदा धार्मिक गुरु लोग उठाते रहते हैं….. फिर ध्यान आया कि जिस तरह हम अपने मोबाईल की बैटरी चार्ज करने के लिए मोबाईल कोई खास पॉइंट से जोड़ कर रखते हैं…. वाईफाई चलाना हो तो एक खास जगह पर खास पासवर्ड से जोड़ना जरूरी होता है, हालांकि यह क्षमता समस्त वातावरण में फैली होती है, पर कुछ खास जगह पर ही हम यह कार्य कर पाते हैं,

जहां इसके लिए खास इंतजाम किए गए हैं… वैसे ही शायद यह तीर्थ स्थल भी वे खास जगह हैं, जहां हम खुद का ईश्वर के साथ आसानी से सामंजस्य स्थापित कर स्वयं को भविष्य के लिए शक्तिशाली बना लेते हैं। एक भूख, एक चुंबकीय शक्ति,  एक परम आनंद की अनुभूति, जो नदियों को सागर की ओर जाने की प्रेरणा देती है, कीट-पतंगों को दिये के पास बुलाती है और इंसानों में तीर्थ स्थलों की ओर जाने की चाह पैदा करती है, जहां उसका अधूरापन संपूर्णता को प्राप्त करे और मन की रिक्तता ईश्वरीय शक्ति से परिपूर्ण हो जाए। वैसे भी जिस परम शक्ति के हम अंश हैं, उस परम शक्ति से जुड़ने की चाह क्यों ना हो भला…?आंशिकता की पूर्णता में समाने की इच्छा तो स्वभाविक ही है। “ईश्वर” जिस शक्ति का नाम है,वह चाहे कोई चेहरा रखता हो या निराकार हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि प्यार तो उस शक्ति से जुड़कर ही बुझेगी। तभी तो उसकी खोज में इंसान दर-दर भटकता है…. गुफाओं में, वीरानों में, भीड़ में, अकेले में…. हर जगह…।भगवान बुद्ध को पीपल के पेड़ के नीचे वह शांति मिली थी और विवेकानंद को गुरु के चरणों में।हमें और आपको कहीं भी उस शक्ति का साक्षात्कार हो सकता है…. घर में, वन में या मंदिरों में…. इसीलिए कोशिश तो जारी रखनी जरूरी है। जिस दिन उस परम शक्ति से हम सही मायने में जुड़ गए, सारी तड़प, सारा उद्वेग, सारी प्यास समाप्त हो जाएगी… चित्त शांत हो जाएगा... फिर न कोई दीन रहेगा न दुनिया; न जन्म न मृत्यु ; न अंधकार न प्रकाश…. बस संपूर्णता और अथाह शांति….।”अभी मैं अपने विचारों में डूबी हुई ही थी कि नगाड़े बजने लगे। मंदिर के एक संस्थापक ने आकर सूचना दी कि द्वार खुलने वाला है और मैं दौड़ पड़ी उस परम शक्ति के मालिक के दिव्य- दर्शन करने और परम आनंद के एक अहं स्वरूप से खुद को जोड़ने के लिए...।


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