STORYMIRROR

Archana Anupriya

Others Children

4  

Archana Anupriya

Others Children

"जाने कहाँ गए वे रविवार"

"जाने कहाँ गए वे रविवार"

6 mins
393

"राजूssss..बेटा ऊपर से बैग उतार दे न..जल्दी से सफाई करके नहाने जाऊँ..बाल भी धोने हैं, फिर खाना बनाने में देर हो जायेगी.."

"आ रहा हूँ न..कुछ कर रहा हूँ.. रूको थोड़ी देर.."-बेटे के कमरे से चिढ़ी हुई सी आवाज आयी। सोचा, ये लड़के हमारे घरेलू जुगाड़ समझते ही नहीं हैं, बेटी को बुला लेती हूँ..बेटियाँ मम्मी की हर बात आसानी से समझती हैं।

"ऋचा..आ..आ, जरा आ तो, ऊपर से बैग उतारने में मदद कर तो.."मैंने बेटी को आवाज दी..

दो-तीन बार आवाज देने पर अंदर से खीज भरी आवाज आयी- "ओफ्फो मम्मी, कॉलेज का असाइनमेंट लिख रही हूँ न, अभी नहीं आ सकती, असाइनमेंट खत्म करके सोऊँगी मैं, रात भर की जगी हूँ..आप भाई से या पापा से करवा लो.."

हे भगवान, ये आजकल के बच्चों का क्या करें..रात-रात भर जागकर जाने लैपटॉप पर क्या पढ़ते रहते हैं, और सुबह होते ही सोने चले जाते हैं, क्या जमाना आ गया है, उल्टी गंगा बहने लगी है--खीजती, भुनभुनाती मैं पति को उठाने गयी। रविवार था तो वह भी रिलैक्स मूड में बिस्तर पर लेटे किसी दोस्त से मोबाइल पर बातें करने में मशगूल थे। मेरे आग्रह करने पर अनमने से होकर बोले-"अरे भाई किसी और से करवा लो न, देखती नहीं, मोबाइल चल रहा है, स्कूल का दोस्त है, बड़े दिनों के बाद बात हो रही है.."

"ओफ्फो..क्या मुसीबत है, मन चिढ़ गया मेरा..लगता है एक मैं ही विल्ले पड़ी हूँ.. बेटा, बेटी, पति..किसी को फुरसत नहीं..बस मैं ही नाचती रहूँ हर काम के लिए….छोड़ो, अब अगले संडे सोचूँगी। चिढ़ती, बड़बड़ाती मैं नहाने चली गयी।

आज रविवार था तो सोचा सुबह-सुबह थोड़ी सफाई करके नहाने जाऊँ..इस कोरोना के चक्कर में तो मेड वगैरह को मना करना पड़ गया है..सारा काम खुद ही करना पड़ रहा है तो जल्दी-जल्दी काम निपटाने के चक्कर में अलमारियों के ऊपर की सफाई रह ही जाती है। आज रविवार था, सब घर में ही थे तो सोचा थोड़ी मदद हो जायेगी..पर महाराज लोग जल्दी  उठें तब न...इस मुआ मोबाइल ने तो नाक में दम कर रखा है। इंटरनेट क्या आ गया है मानो अल्लादीन का चिराग मिल गया है सबको...खाने, पहनने, पढ़ाई, मनोरंजन--हर चीज के लिए बस अपना अँगूठा किसी ऐप नामक चिराग पर रगड़ो और थोड़ी ही देर में कोई भूत की तरह आकर सामान बाहर रखकर और कॉलबेल बजाकर चला जायेगा...आपकी फ़रमाइश हाजिर.. न दिन का पता चलता है, न रात का..एक रविवार से लेकर दूसरे रविवार तक-सब एक सा गुजरता है। सुबह हो शाम हो, बच्चे बस बंद कमरों में अपने-अपने लैपटॉप और मोबाइल लिए घुसे रहते हैं। रात को न जाने स्वीगी, डोमिनोज या ऐसे ही ऐप्स से खाने पीने की चीजें मँगवाकर खा लेते हैं और सुबह से न नाश्ता करना है, न समय से  भोजन खाना है...अरे कोरोना तो अभी पिछले दो सालों की कहानी है, पर यह रूटीन तो लोगों की आम दिनचर्या बन गया है। बल्कि कोरोना महामारी की वजह से तो जिंदगी थोड़ी अनुशासित भी हुई है, वरना साधारण तौर पर तो दुनिया अजीब ही दिनचर्या जी रही थी। उफ्फ...ये क्या हो  गया है जमाने को.. कितना अच्छा होता था हमारे बचपन का रविवार...न टी.वी., न मोबाइल..फिर भी छुट्टी का कितना लुत्फ उठाते थे हम सब..। मन एक बार फिर बीते दिनों में चला गया।

याद है मुझे कि रविवार को सुबह तड़के उठकर हम सब कॉलोनी के बच्चे साइकिल चलाने दूर-दूर तक चले जाते थे। स्कूल की छुट्टी होती थी तो सुबह तैयार होने की हड़बड़ी नहीं होती थी। लिहाजा, माँ-पापा की डाँट भी नहीं सुननी पड़ती थी। सात-आठ बजते-बजते एक राउंड दोस्तों के साथ खेलकूद कर जब हम वापस आते तो डायनिंग टेबल पर गरमागरम नाश्ता जैसे आलू के पराँठे, या लाल-लाल फूली हुई खस्ता कचौरियाँ चटपटी रसदार आलू की सब्जी के साथ  या चीज-बटर से लथपथ ब्रेड-सैंडविच आदि लगे होते थे और हाथ मुँह धोकर हम बस टूट पड़ते थे उनपर। तब कहाँ कॉलेस्ट्रॉल की या वजन बढ़ने की चिंता से ग्रस्त होते थे? छककर नाश्ते को खाने की तरह खाते थे। फिर होमवर्क वगैरह करके दोस्तों के साथ दोपहर का अजीबोगरीब प्लान बनता था..मसलन, आज किसके घर के कौन से पेड़ पर चढ़कर कौन सा फल खाना है..किसके घर पर कौन-कौन से बाल पॉकेट बुक्स के कलेक्शन पड़े हैं और उनमें से किस -किस का पढ़ना बाकी है.. या किसके घर पर कैरमबोर्ड या बेगाटेली  खेलने के लिए इकट्ठा होना है वगैरह वगैरह। पापा की जहाँ पोस्टिंग थी, वह राँची के पास का पहाड़ी एरिया था, पतरातू। यह पूरी तरह से पहाड़ी इलाका था...लगभग हिल स्टेशन ही था। चारों तरफ छोटे-बड़े पहाड़ और बीच-बीच में फूटते झरनों की कल कल ध्वनि के तो क्या कहने..अहा..बड़ी ही खूबसूरत दुनिया थी...तो होता ये था कि  पहाड़ियों पर दौड़कर चढ़ने की मनोरंजक प्रतियोगितायें भी हमारे खेल का हिस्सा हुआ करती थीं। जो पहले ऊपर चढ़ जाता, वह दूसरे को खूब चिढ़ाता और फिर वहीं हम हँसते-हँसाते दौड़ा भागी करने लग जाते थे। कभी पिट्टो खेलने का मूड करता तो कभी रस्सी कूदने की आपस में प्रतियोगिता कर लेते..कभी छोटे-छोटे प्लास्टिक के कॉर्क से बैडमिंटन खेलते तो कभी सिक्का गाड़ी चलाते-चलाते दौड़ते रहते। सिक्का गाड़ी लोहे की गोल चक्री होती थी, जिसे लोहे की ही एक अंकुशीनुमा छड़, जो आगे से 'यू' आकार में घूमी हुई होती थी, उससे फँसाकर दौड़ते हुए चलाया जाता था। कभी तो साइकिल की पुरानी टायर को ही डंडे से मारते हुए पहाड़ियों पर दौड़ते रहते थे। रस्सी कूदना और सौ की गिनती तक बिना आउट हुए कूदना तो मानो वर्लड रेकार्ड बनाने जैसा फील देता था। शाम को खेलकर लौटते तो किसी भी दोस्त के घर पर सब मिलकर नाश्ता कर लेते थे। तब आस पड़ोस के लोग अंकल-आंटी से ज्यादा सबके लिए मामा, बुआ, मौसा-मौसी, दीदी, चाचा-चाची हुआ करते थे। किसी भी एक दोस्त के रिश्तेदार हम सबके रिश्तेदार होते थे। फिर, रात को छत पर सोना...रविवार हो या कोई सा भी दिन हो..तारों के नीचे तारों के बीच भाँति-भाँति की आकृति की कल्पना करते, तारों को गिनते हुए , आपस में मीठी लड़ाइयाँ लड़ते, एक दूसरे को कहानियाँ सुनाते हँसते हँसाते सोने का जो आनंद था, उसे भला शब्दों में वर्णन कैसे किया जाये। अपने कजन्स की तो बात छोड़ो, कितनी बार तो अगल बगल के दोस्त भी एक दूसरे की छत पर सोने चले जाते थे। न तो कोई फॉरमैलिटी थी , न ही कोई बुरा मानता था। पूरी कॉलोनी या पूरा मुहल्ला मानो अपना ही घर लगता था। डाँटने-डपटने की भी परमिशन सबको थी, कोई किसी के भी बच्चे को अपने बच्चों की तरह डाँट सकता था। बस, डाँटने के लिए उम्र में बड़ा होना जरुरी था, फिर वो चाहे किसी भी दोस्त के भैया हों, दीदी, हों, मामा, हों, मामी हों या कोई भी हो। सबका सबपर प्यार था और इसीलिए अधिकार भी था। आज की तरह नहीं कि किसी पड़ोसी के घर भी जाना हो तो पहले इन्फॉर्म करो, फिर उसके बताये समय पर ही जाओ..किसी के घर कभी भी बिना औपचारिकता के जाया जा सकता था..और पड़ोसी तो मानो अपनी ही एक्सटेंडेड फैमिली हुआ करते थे। हम भाई-बहन तो कितनी बार पड़ोस में जाकर सोते थे या पड़ोस के हमारे दोस्त हमारे घर पर ही सो जाते थे। फिर अगले दिन से वही स्कूल का रूटीन आरंभ हो जाता था। उन दिनों तो रविवार को हम इतनी मस्तियाँ करते थे कि रविवार हफ्ते का एक दिन न रहकर "पिकनिक डे"या "फन-डे" बन जाता था। आज उन्हीं प्यारी मस्तियों के लिए विकल हैं हम सब..समय आगे बढ़ता जा रहा है, नयी मशीनी मस्तियाँ जगह ले रही हैं लेकिन वो सुकून और चैन बस उन्हीं रविवारों में कहीं पीछे छूट गया है..।

            


Rate this content
Log in