Dr. Vikas Kumar Sharma

Drama Thriller

4.8  

Dr. Vikas Kumar Sharma

Drama Thriller

दीपू की अम्मा

दीपू की अम्मा

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दीवाली का दिन था। चारों ओर रंग-बिरंगी लाइटों की रोशनी से जगमगाते घर बहुत सुंदर लग रहे थे और पटाखों की आवाजों से पूरा आसमान गूँज रहा था। मेरे भाई विवेक की पत्नी सरगुन रसोई में स्वादिष्ट व्यंजन बना रही थी। पूरे घर में खाने की अच्छी खुशबू फैली हुई थी। मैं और मेरा भाई विवेक बाहर दीवार पर घी के दीए व मोमबत्तियाँ जला रहे थे। गली में बच्चे पटाखे फोड़ रहे थे। हर ओर हँसी-खुशी व प्रसन्नता का माहौल था।


इतने में ही एक दुबली पतली बुढ़िया जिसके बाल बिखरे थे वहाँ आई और हमारी जलाई हुई मोमबत्तियों में से एक छोटी सी जलती हुई मोमबत्ती उठाकर भाग गई। विवेक कुछ दूर तक उसके पीछे भागा। मैंने विवेक को रोकने के लिए आवाज लगाई। मेरी आवाज सुन कर विवेक वापस आ गया।


मैंने विवेक से पूछा कौन थी वो औरत? विवेक बोला कोई नहीं भाई साहब। पागल है । यहीं पीछे एक झोपड़ी में अकेली रहती है। बेकार में कहीं किसी के आग-वाग न लगा दे। 

मैंने कहा चलो देख कर आते है कि वो जलती मोमबत्ती का क्या कर रही है।


वहाँ जाकर देखा तो पाया जो मोमबत्ती वो उठा कर ले गई थी वो लगभग सारी जल चुकी थी और अब वह बुढ़िया झोपड़ी में रखे घास-फूँस के ढ़ेर में से थोड़ी-थोड़ी घास-फूँस लेकर जला रही थी।


मैंने विवेक से झोपड़ी के अंदर चलने को कहा। विवेक बोला भाई साहब आप भी। अच्छा चलो चलते है।

मैंने झोपड़ी का दरवाजा खटखटाया और बोला, अम्मा क्या कर रही हो? बुढ़िया को शायद सुनाई नहीं दिया। मैंने फिर से आवाज लगाई, अम्मा क्या कर रही हो? लेकिन उसने मुड़ कर भी नहीं देखा। मैं और विवेक झोपड़ी के अंदर गए। मैं बुढ़िया के पास जाकर बैठ गया। विवेक मेरे पीछे खड़ा रहा। बुढ़िया थोड़ा-थोड़ा करके घास-फूँस जलाती रही।


मैंने फिर पूछा, अम्मा क्या कर रही हो? इस बार उसनें मेरी ओर देखा और जोर जोर से हँसने लगी। मैं बोला, बताओ तो सही क्या कर रही हो? उसने मेरी आँखों में आँखें डाल कर कहा, दीपू तू आ गया। अच्छा किया। आज दीवाली है। देख मैंने सारे घर में रोशनी कर दी है। तेरे बाबा हर दीवाली पर कितनी सारी मिठाईयाँ, पटाखे, दीए व मोमबत्तियाँ लाते हैं। लेकिन तेरे बाबा हैं बिल्कुल बुद्धु। अब तू भी कहेगा अम्मा तू क्या बोले जा रही है। देख हर रोज तो तेरे बाबा समय से आ जाते हैं पर आज दीवाली वाले दिन घर पर अभी तक नहीं आए। इतना कह कर बुढ़िया जोर-जोर से बच्चों की तरह रोने लगी।


मुझसे उसका रोना देखा न गया और उसे चुप करवाने की कोशिश करने लगा। लेकिन बुढ़िया सुबकियाँ ले लेकर कई देर तक रोती रही। फिर एकदम से चुप होकर दुबारा से घास-फूँस जलाने लगी। 


मेरी ओर देख कर बुढ़िया बोली, दीपू इस बार तू पटाखे मत जलाना। तुझे याद है अनार जलाते समय तेरा हाथ जल गया था और तू कितना रोया था। तेरे पापा ने काफी देर तक तुम्हारा हाथ ठंडे पानी में रखा और दवाई लगाई थी। लेकिन फिर भी तू चुप नहीं हुआ था। तुझे पता है उस दिन मैं भी बहुत रोई थी। 


कुछ देर चुप होकर बुढ़िया बोली,? दीपू याद है मैंने तेरे लिए एक सिल्क का कुर्ता खरीदा था। जा जाकर वही सिल्क का कुर्ता पहन कर आ। मैं चुपचाप उसे सुनता रहा। वो फिर बोली, जा ना जल्दी से पहन कर आ।


मैं बोला, अच्छा आता हूँ पहन कर। मैं वहाँ से उठ कर झोपड़ी के दूसरे कोने में जाकर वापस आया और बोला, लो पहन लिया। देखो! कैसा लग रहा हूँ। है ना अच्छा। उसने कोई जवाब नहीं दिया और घास-फूँस जलाती रही।


मैंने विवेक की ओर देखा। विवेक ने चलने का इशारा किया। मैंने कुछ देर और रूकने के लिए कहा। 


इतने में बुढ़िया फिर से हँसने लगी। मेरी ओर देख कर बोली, दीपू तेरे पापा से पूछ हलवा कैसा बना है। मीठा ज्यादा तो नहीं हो गया। तेरे पापा से कह जल्दी से खाना खाकर बाहर आ जाए। दीए भी जलाने है और उसके बाद लक्ष्मी पूजन भी तो करना है। कमाल है भई तुम बाप-बेटों का। हर काम में लेट लतीफी। मुझे भी बड़ी भूख लग रही है।


उसके ये कहते ही मुझे लगा बेचारी बुढ़िया भूखी होगी। सोचा इसके लिए खाने को कुछ लेकर आते है। मैंने विवेक को चलने का इशारा किया और जैसे ही उठ कर चलने लगा तो बुढ़िया बोली, दीपू ना जा बेटा। मेरा मन नहीं लगेगा और बुढ़िया जोर-जोर से रोने लगी।


मैं और विवेक दोनों भावुक हो गए। थोड़ी देर हम झोपड़ी के बाहर रूक गये। जब बुढ़िया का रोना बंद हुआ तो बाहर से हमने छुप कर देखा तो बुढ़िया घास-फूँस जला रही थी और बोल रही थी, देख दीपू आज दीवाली है और मैंने सारे घर में रोशनी कर दी है।


मैंने विवेक से कहा चल विवेक घर चलते है। बाद में आकर इस बुढ़िया को खाने के लिए कुछ जरुर दे जाना। उसकी बातों से लग रहा था कि शायद दीवाली वाले दिन इस बेचारी के साथ कोई बड़ी अनहोनी हुई होगी जिसका उसे गहरा सदमा लगा था।


घर पहुँचने पर सरगुन ने पूछा, कहाँ चले गए थे दोनों भाई। जल्दी से आओ खाना तैयार है। खाना खाकर लक्ष्मी पूजन भी तो करना है। कमाल है भई आप दोनों भाइयों का। हर काम में लेट लतीफी। 


हम सबने बैठ कर एक साथ खाना खाया। सरगुन ने पूछा हलवा कैसा बना है। मीठा ज्यादा तो नहीं हो गया। 

सरगुन के यह सब बोलने के बाद बुढ़िया की सारी बातें तेजी से मेरे दिमाग में घूमने लगीं।


खाना खाकर बैठे ही थे कि मौहल्ले में शोर-शराबे की आवाजें आने लगी। बाहर जाकर देखा तो बुढ़िया की झोपड़ी में आग लगी थी। मैं और विवेक भाग कर झोपड़ी के पास गए। लोग बाल्टियों से पानी डाल कर आग बुझा रहे थे। मैंने और विवेक ने बुढ़िया को झोपड़ी से निकाला और अस्पताल ले गए।

रातभर उसका ईलाज चला। बुढ़िया के होश में आने पर मैं और विवेक उसे देखने कमरें में गए। मुझे देख कर बुढ़िया बोली, दीपू मैंने कहा था ना मत जाओ। देखो तुम्हारी अम्मा के साथ क्या हो गया और बुढ़िया फिर से रोने लगी।


उसकी यह हालत देख कर मेरा रोना निकल गया। विवेक ने मुझे संभाला। मैंने डॉक्टर से बुढ़िया का अच्छे से अच्छा ईलाज करने व पैसे की चिंता ना करने को कहा। डॉक्टर से बात करने के बाद मैं और विवेक घर वापस आ गए।


सुबह बुढ़िया का हाल चाल पता करने अस्पताल गए तो पता चला बुढ़िया रात को ही दुनिया छोड़ कर चली गई थी। यह बात सुन कर हमे बड़ा धक्का लगा। बहुत दुखी मन के साथ मैं और विवेक घर वापस आ गए। 

आज भी उस बुढ़िया के कभी हँसने और कभी रोने की आवाजें मेरे कानों में गूँज रही हैं।


अब बुढ़िया की झोपड़ी की जगह खाली मैदान पड़ा है जहाँ पर बच्चे खेलते है। शाम को कभी अकेले छत पर बैठा हुआ उस मैदान में खेलते हुए बच्चों को देखता हूँ तो बुढ़िया का चेहरा और भावुक कर देने वाली बातें दिमाग में घूमने लग जाती है। मन ही मन कहता हूँ, हे भगवान सबकी रक्षा करना और किसी को भी बेचारी बुढ़िया जैसा जीवन मत देना। आपसे यही प्रार्थना है।


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