Dr. Vikas Kumar Sharma

Drama Action Thriller

4.6  

Dr. Vikas Kumar Sharma

Drama Action Thriller

दहशत

दहशत

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मैं, अब्दुल और जुम्मन बाजार में खरीदारी कर रहे थे कि इतने में ही भगदड़ मच गई। कुछ स्थानीय लड़के गाड़ियों में आकर मुनादी कर रहे थे। ‘भागो हिंदुस्तानी फौजियों ने हमला कर दिया है।’ जान बचा कर सभी वहाँ से भागे और बंकरों में छिपने लगे। मेरे साथ बंकर में करीब दस लोग और थे। करीम चाचा बंकर के बाहर खड़े होकर हिंदुस्तानी फौजियों को गालियाँ निकाल रहे थे। उनको लेने मैं बंकर से बाहर गया और देखते ही देखते एक जोरदार धमाका हुआ और पूरे आसमान में धूल के बादल छा गए। सामने बने सारे मकान पल भर में ही ढ़ेर हो गए। मैंने करीम चाचा का हाथ पकड़ कर बंकर में खींच लिया।


शानो बेगम और अब्दुल भाई की बेटी शकीना भी हमारे साथ बंकर में थी। उसने फातिमा चाची से पूछा, ‘मेरे अम्मीं और अब्बू कब आएंगे।’ यह सुनते ही मेरा दिमाग ठनक गया। अहमद भाई और शानो बेगम तो बंकर में थे ही नहीं। मेरे माथे पर पसीना चल पड़ा।


बंकर में बैठा-बैठा मैं हनुमान चालीसा पढ़ने लगा। जुम्मन, करीम चाचा और फातिमा चाची भी सबकी सलामती के लिए अल्लाह से दुआ कर रहे थे। इतने में ही दो बंदूकधारी आये और हमें बंकर से बाहर आने को कहा। उन्होंने कहा, ‘हिंदुस्तानी फौजियों को हमने खदेड़ दिया है। अब घबराने की जरूरत नहीं है।’

पिछले तीस साल से ठीक ऐसा ही महीने में तीन-चार बार तो हो ही जाता है। तीस साल पहले मैं इस गाँव में आया था। तीस साल पहले चंडीगढ़ में अपने परिवार के साथ हँसी खुशी रहता था। गर्मी की छुट्टियों में कश्मीर घूमने आया था। करीब सुबह आठ बजे तैयार होकर घूमने निकले थे। पहाड़ों पर प्रकृति की सुंदरता का आनंद ले रहे थे। बहुत से सैलानी वहाँ आए हुए थे। इतने में ही आतंकवादियों ने हमला कर दिया और मेरे परिवार सहित सभी लोगों को मार डाला और लाशों को पहाड़ी के नीचे फेंक दिया। गोली लगने से मैं पहले ही नीचे गिर गया था। आतंकवादियों ने मुझे मरा समझ लिया था।


उसके बाद जान बचाते-बचाते मैं सरहद के इस पार पहुँच गया और इस गाँव के लोगों ने मेरी जान बचाई। तब से आज तक यहीं पर हूँ। अपने परिवार को खोने के बाद मैं गुमसुम रहने लगा था और वापस कभी अपने घर जाने की सोची तक नहीं और जाता भी तो किसके लिए। सभी तो........। कोई था भी नहीं वहाँ जो मेरा इंतजार कर रहा था। मेरा सब कुछ खत्म हो गया था। अब्दुल, करीम चाचा, फातिमा चाची, नुसरत और जुम्मन ही अब मेरा परिवार था।

इस बार भी यहाँ आतंकवादियों ने हमला किया था। मकसद था हिंदुस्तानी फौजियों के नाम पर गाँव के लोगों में दहशत फैलाना और हिंदुस्तान के खिलाफ नफरत फैलाना। 


बंकर से बाहर आकर मैंने देखा शानो बेगम, अब्दुल भाई, मेरे दोस्त रहमान, गफूर की लाशों के ढ़ेर जमीन पर पड़े थे। लाशों को देखकर मैं उनके पास दौड़ा और जोर-जोर से रोने लगा। मैं आतंकवादियों पर चिल्लाने लगा, ‘तुम कातिल हो। खुदा तुम्हें कभी माफ नहीं करेगा।’

एक आतंकवादी ने मुझे गाली दी और कहा, ‘क्या नाम है तुम्हारा? क्या मजहब है तुम्हारा?’

मैंने कहा, ‘मेरा नाम दिलावर है और इन्सानियत मेरा मजहब है। ये सारी लाशें मेरे अपनो की हैं। तुमने बेगुनाहों को मारा है। अल्लाह तुम्हें कभी माफ नहीं करेगा।’

आतंकवादियों ने कहा, ‘तुम्हारे भाईयों को हमने नहीं मारा। हमने तो इन हिंदुस्तानी फौजियों को मार कर सैकड़ों लोगों की जान बचाई है। हिंदुस्तानी फौजियों ने तुम्हारे मकानों को बम्ब से उड़ाया है। लेकिन हमने भी उनको नहीं बख्शा। हमने उन्हें ठिकाने लगा दिया है।’


उसके बाद आतंकवादी वहाँ से चले गए। दो हिंदुस्तानी फौजियों की लाशें जमीन पर पड़ी थी। तभी मैंने एक फौजी के मुँह के पास से जमीन की धूल उड़ती देखी। मैं दौड़ कर उसके पास गया। उसकी साँसें चल रही थी। मैंने उसके मुँह पर पानी छिड़का। उसे तुरंत होश आ गया। उसके बाद मैंने उसे पानी पिलाया। उसके होश में आने पर मेरे चेहरे पर खुशी आ गई। हिंदुस्तानी फौजी को देख कर सभी उसे मारने दौड़े। मैंने चेतावनी देते हुए उन्हें रोका और कहा, ‘सब कुछ जान कर भी अंजान क्यों बन रहे हो। ये एक हिंदुस्तानी फौजी है। यह हमारा दुश्मन नहीं है। हमारे दुश्मन तो ये दहशत फैलाने वाले आतंकवादी हैं।’


करीम चाचा बोले, ‘दिलावर ये तुम ठीक नहीं कर रहे हो। इसकी वजह से हम सबकी जान भी खतरे में पड़ सकती है। जल्दी से इसे मारो और किस्सा खत्म करो।’ एक बार फिर लोग उसे मारने दौड़े पर मैंने उन्हें खुदा का वास्ता देकर रोक दिया। मैंने सबसे कहा, ‘तुम सभी कायर हो। हिम्मत है तो उन आतंकवादियों को क्यों नहीं मारते? सब के सब बुजदिल कहीं के। क्या कुरान में यही लिखा है कि निहत्थे व मजबूर की हत्या कर दो। तीन-चार दहशतगर्दों के सामने तो तुम्हारी जुबाँ पर ताले लग जाते हैं और अब तुम्हारे अन्दर ज्यादा मर्दानगी आ गई है। दहशतगर्दों के आने पर कहाँ जाती है तुम्हारी ये मर्दानगी। शर्म करो शर्म। 

अगर फिर भी तुम इसे मारना चाहते हो तो तुम्हें मेरी लाश से गुजरना होगा।’


यह सब सुन कर सबका सिर शर्म से झुक गया। मैंने हिंदुस्तानी फौजी से उसके बारे में पूछा। उसने बताया, ‘भाई हमने तुम्हारे गाँव पर कोई हमला नहीं किया है। रात को अपनी ड्यूटी करते हुए रास्ता भटक गए थे और तुम्हारे गाँव आ पहुँचे। उसके बाद रास्ता बताने के बहाने एक लड़का हमें पास के जंगल में ले जाने लगा। हमें उस लड़के पर शक हुआ और वहाँ से भाग निकले। उस लड़के ने आतंकवादियों को तुरंत सूचना दे दी। आतंकवादियों ने हमारा पीछा कर मेरे साथी को मार गिराया। इसके परिवार में इसके माता-पिता, इसकी पत्नी और एक बच्ची है।’ सामने खड़ी शकीना को देख कर वह बोला, ‘बिल्कुल ऐसी ही छोटी-सी प्यारी बच्ची है मेरे इस भाई की। इसके परिवार में इसके सिवा कमाने वाला भी कोई नहीं है।’ इसके बाद उस फौजी की आँखें भर आई। 


उसके बाद मैं चिल्ला कर बोला, ‘सुन ली हकीकत सबने। यही हकीकत है करीम चाचा। इस हिंदुस्तानी फौजी के आँसू झूठे नहीं हैं। तुम्हारा तजुर्बा भी तो कुछ कहता होगा।’


फातिमा चाची और नुसरत मेरे पास आकर खड़ी हो गई। उसके बाद करीम चाचा ने कहा, ‘तो ठीक है फिर बताओ क्या करना है?’


मैंने कहा, ‘आज रात ही हमें इसे सरहद पर सुरक्षित छोड़ कर आना है।’


करीम चाचा ने कहा, ‘तो ठीक है।’

जुम्मन ने कहा, ‘दिन में तो यह मुमकिन नहीं है और रात के समय बहुत खतरा है। तो यह सब करेंगे कैसे?’


फातिमा चाची बोली, ‘सिकंदर किस दिन काम आएगा। उसकी पुलिस वालों में काफी जान पहचान है। हर सुबह उसकी गाड़ी फौजियों का सामान लेकर सरहद पर जाती है। रात को अंधेरा होने पर आसानी से हमारा काम हो जाएगा। मेरा कहा वो नहीं टालेगा।’


फातिमा चाची ने जुम्मन को संदेशा देकर सिकंदर के पास भेजा। शाम को सिकंदर करीम चाचा के घर आया। मैंने उसे सारी बात समझाई। पहले तो उसने जान का खतरा बताते हुए साफ-साफ मना कर दिया। परन्तु फातिमा चाची ने उसे मना लिया। पहली रात को ही हमनें हिंदुस्तानी फौजी को सिकंदर की गाड़ी में खाना-पीना सब देकर बैठा दिया।


सुबह होते ही मैं, जुम्मन और सिकंदर गाड़ी लेकर सरहद पर पहुँच गए। सिकंदर ने हमें अपने फौजी मित्रों से मिलवाया। वहाँ शाम तक हम फौजियों के पास ही रहे। वहाँ के फौजियों के साथ खूब बातें की। शाम होते ही गाड़ियों मे सारा सामान चढ़ा कर वहाँ से निकल पड़े और रात के अंधेरे में दूर सरहद पर गाड़ी रोक कर हमने हिंदुस्तानी फौजी को उतार दिया। हिंदुस्तानी फौजी ने हम सबसे गले मिल कर विदा ली और हमें धन्यवाद दिया।


इसके बाद उसने सरहद के उस पार कदम रखा। उसके सरहद पार करने पर मैं कुछ दूर तक नम आँखों से उसे देखता रहा। मन में खुशी का भाव था और आँखों में आँसू। हिंदुस्तानी फौजी को सरहद के उस पार विदा कर दिया पर मैं सरहद के इस पार ही रह गया।


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