Chandresh Chhatlani

Tragedy

3.9  

Chandresh Chhatlani

Tragedy

देवी माँ

देवी माँ

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मुझे उस औरत से सख्त नफरत थी।


और आज नवरात्रि के आखिरी दिन तो उसने हद ही कर दी। स्त्री अंग पर प्राइस टैग लगा उसे बेचने वाली होकर एक तो उसने नौ दिन देवी माँ की पवित्र मूर्ति को स्थापित कर अपने अपवित्र मकान में रखा और दूसरे, आज विसर्जन के लिए मूर्ति भेजते समय लाल साड़ी पहन, सिंदूर से मुंह पोत, सिर घुमा-घुमा कर वह ऐसे नाच रही थी जैसे उसमें देवी माँ खुद प्रवेश कर गईं हों। मेरा घर उसकी गली के ठीक सामने ही था सो सब देख पा रहा था।


‘देवी माँ और एक वैश्या के शरीर में... माँ का ऐसा अपमान!’ ऐसे विचार आने पर भी मैं कैसे अपने आप को संयत कर खडा था, यह मैं ही जानता था। उस औरत के मकान में रहने वाली और दूसरी अन्य भी जाने कहाँ-कहाँ से लड़कियां आ-आकर उसके पैर छू रहीं थी। यह दृश्य मुझे आपे से बाहर करने के लिए काफी था।


उस वक्त मेरा एक पड़ौसी भी अपने घर से बाहर निकला। मैं मुंह बनाता हुआ उसके पास गया और क्रोध भरे स्वर में बोला, "ये सामने क्या नाटक हो रहा है!"


उसने भी गुस्से में ही उत्तर दिया, "शायद मोहल्ले में अपनी छवि अच्छी करने के लिए यह ड्रामा कर रही है। इसे पता नहीं वैश्याएं आशीर्वाद नहीं देतीं, शरीर देती हैं।"


"चलो इस नाटक को खत्म कर आते हैं।" अब तक मेरी सहनशक्ति मेरी ही निर्णय लेने की शक्ति से हार चुकी थी।


वह पड़ौसी भी भरा हुआ था, हम दोनों उस औरत के पास गए और मैंने उससे गुस्से में पूछा, "हमें लग रहा है कि तुझे देवी नहीं आई है, तू ऐसे ही कर रही है।"


वह वैश्या चौंक गई, उसने एक झटके से मेरी तरफ मुंह घुमाया। मैंने जीवन में पहली बार उसका चेहरा गौर से देखा। धब्बेदार चेहरे में उसकी आंखों के नीचे के काले घेरे आंसुओं से तर थे। वह मुझे घूर कर देखती हुई लेकिन डरे हुए शब्दों में बोली, "हां… आपको… ठीक लग रहा है।"


उसके डर को समझते वक्त यह भी समझ में आया कि पहले कदम की जीत क्रोध को गर्व में बदल सकती है। उसी गर्व से भर कर मैं अब आदेशात्मक स्वर में उससे बोला, "आगे से ऐसा नहीं होना चाहिए। लेकिन तुमने ऐसा किया ही क्यों?"


उस वैश्या ने आंखों के काले घेरों के आंसू पोंछते हुए उत्तर दिया,

"क्योंकि… मैं भी माँ बनना चाहती हूँ।"


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