डुंगुरपुर का रहस्य - 2
डुंगुरपुर का रहस्य - 2
[ डूंगरपुर का बनना ]
पिछले भाग में आपको माव जी से जुड़े घटनाक्रम के बारे में बताया था , यह सिलसिला यहाँ खत्म नहीं होता यह तो शुरुआत करता है उन रोमांचकारी घटनाओं की जिन्हे इतिहास से छिपाया गया शायद वो इतनी डरावनी हैं की कोई ना तो उनकी बात करता है और ना उनको जानना चाहता है ,माव जी महाराज के किस्सो के बारे में कभी और लिखा जाएगा अभी में बात कर रहा हूँ डुंगरपुर के परम प्रतापी महाराज डूंगरवर्धन की –
उन्होने अपने जीवन पर्यंत तो डुंगरपुर के गौरव को विशव के कोने –कोने तक फैलाया ही ,बल्कि वो आज भी डुंगरपुर की रक्षा कर रहे हैं। फ़्रांस के एक सुप्रसिद् इतिहासकार की किताब “THE UNSUNG SAGAS” में इनके बारे में विस्तार से लिखा गया है ,उन्होने अंग्रेज़ो को इतना परेशान व आतंकित किया की वो इनका तो कुछ कर ना सके पर अन्य जगहो पर इनके नाम लेने पर प्रतिबंध लगा दिया ,और अंग्रेज़ नहीं चाहते थे की उनके इस शर्मनाक दौर को आगे आने वाले लोग जाने इसलिए अंग्रेज़ो ने इसे इतिहास में दर्ज नहीं होने दिया। पर सच को कभी कोई छिपा पाया है क्या ,वो भी सच जब सच कभी इतिहास बना ही ना हो –मतलब अभी भी महाराज डूंगरवर्धन के देखे जाने के प्रमाण मिलते हैं । ब्रिटिश महारानी अलिजाबेथ -3 के साथ भी उनके संबंधो को ब्रिटिश इतिहास में जगह दी गई है , वो तो महाराज डुंगरपुर को छोड़कर कहीं जाना नहीं चाहते थे ,नहीं तो अलिजाबेथ तो इनसे विवाह करकर इन्हे अपने देश ले जाना चाहती थी । अलिजाबेथ स्वयं भी अति रूपवान थी । डुंगरपुर के महल के पास के म्यूज़िम में आज भी उसकी तस्वीरे देखी जा सकती हैं ।
महाराज डूंगरवर्धन बचपन से ही प्रतिभाशाली थे , मल्ल युद्ध में उस समय पूरे देश में उनका सामना करने वाला कोई ना था , वो तो मल्ल युद्ध का अभ्यास भी हाथियों के साथ किया करते थे , हाथियों को पछाड़ कर उनका नित्य व्यायाम पूरा होता था । पुरातत्व विभाग की खुदाई में मिले उनके भीमकाय वस्त्र और हजारों आदमी मिलकर ना उठा पाए इतनी भारी उनकी तलवार मिली है . महाराज डूंगरवर्धन ही नहीं चाहते की कोई उनकी तलवार उठाये इसलिए आज भी उनके किले के पास वो ऐसे ही छोड़ दी गई है ,काफी प्रयासों के बाद भी कोई उसे उठाकर म्यूजियम के अन्दर नहीं रख पाया.
सन १८०३ में जब पुर्तगाली और अंग्रेजो ने डूंगरपुर को अपने अधीन बनाने के लिए सयुंक्त रूप से चढाई की तब डूंगरवर्धन महज ८ वर्ष के थे. भालों से सज्जित करीब २३०० आदिवासियों की सेना भला ८५,००० अंग्रेजो व् पुर्तगालियों का सामना कैसे करती ,ये सेना १००० तोपें व् ५०,००० बन्दूको ,२३०० हाथी ,३५०० घुड़सवार व् शेष पैदल सेना से डूंगरपुर को घेरे थी. महाराज विराटवर्धन ,डूंगरवर्धन के पिता जी अपने जीते जी अपने प्राणों से प्रिय डूंगरपुर को पराये हाथों में ना जाने देने का संकल्प कर चुके थे. सभी मत्रियों व् शुभचिंतको ने संधि करने की सलाह दी पर महाराज की आन के आगे किसी की ना चली . महाराज मुट्ठीभर भीलों के साथ समर में कूद पड़े. वो अद्भुत वीरता से ललकारते हुए डूंगरी धरा को रक्त से सरोवर करते हुए पवन के सामान चले जा रहे थे . तोप के एक गोले ने उन्हें उनके घोड़े से उछाल दिया औए देखते ही देखते पराक्रमी भील धरशायी होते गये. अंग्रेजो ने दूसरा तोप का गोला मुर्छित पड़े महराज के ऊपर दागा , पर वो महाराज को छु नहीं पाया ,एक बड़ी चट्टान महाराज और तोप के गोले के बीच आ गई थी . ८ साल का डूंगरपुत्र अपनी धरती माँ को बचने के लिए रण भूमि में था और खिलोने के भाँती डूंगर को उठा -उठा कर शत्रु सेना पर फेंक रहा था , चट्टानों की ऐसी बारिश पहले कभी किसी ने ना देखी थी , खूब तोप के गोले दागे गये ,गोलियां बरसायीं गई पर उस बालक की इस चट्टान वर्षा का तोड़ किसी के पास ने था, छन भर में ही अरावली की शिलाएं डूंगरपुर को चारों तरफ से घेरें थी और अंग्रेजो व् पुर्तगालियों की सेना इस अभेद्य दीवार पर कोई असर ना कर पा रही थी . जिनको अपने प्राण बचाने थे वे सर पर पैर रखकर भाग खड़े हुए.
बालक डूंगर का गुस्सा तो शांत ही नहीं हो रहा था , वो तो ना जाने किस अद्भुत रीत से अपनी भुजाओं को फैलाता , भयंकर गर्जना करता ,उसकी आँखे लाल लावे से भर जाती ,जैसे -जैसे उसकी भुजाएं घूमती आस -पास की धुल इक्कठी होकर उसके हाथों में चट्टान का स्वरूप ले लेती और वो दे दनादन डूंगर वर्षा करता जा रहा था शत्रु सेना पर . नगरवासी की काफी मनुहार करने पर जब ये बालक रुका तब तक तो सारा नगर ही डूंगर से भर चूका था , ये जो हमें वर्तमान डूंगरपुर दिखलाई पड़ता है जहाँ के छोटे -छोटे डूंगर किसी को भी अपने मोहपाश में बाँध लें , इसकी रचना इसी युद्ध के परिणाम स्वरुप हुई थी .
महाराज विराट जब स्वस्थ हुए तो इस बालक की विस्मयकारी वीरता व् पराक्रम के लिए भील उत्सव का आयोजन किया गया जो उत्सव आज भी डूंगरपुर -बांसवाडा के अंचल में प्रतिवर्ष मनाया जाता है , ये भील उत्सव आज भी पूरी दुनिया का सबसे बड़ा आदिवासी उत्सव है. इसे ही वर्तमान समय काल में वेणेश्वर के मेले के नाम से भी जाना जाता है .
अंग्रेज सेना एक बालक के हाथों जो चारों खाने चित हुई- वो खुद यकीन नहीं कर पा रहे थे , इस युद्ध के बाद फिर कभी उन्होंने डूंगरपुर की ओर आँख उठाने का साहस नहीं किया और इतिहास को किसी के सामने ना आने दिया ,अगर शेष भारत में इसकी खबर फैलती तो निः संदेह हमारा देश पहले स्वतंत्रता संग्राम से पूर्व ही आजाद हो चुका होता ,पर सच्चाई को कोई कब तक दबा सकता है ,माव जी की किताब ऐसे ही रहस्यमयी हैरतअंगेज किरदारों और उनके कारनामों से भरी पड़ी है . अगले अंक तक इन्तजार कीजिये रहस्यमयी डूंगरपुर की एक ओर अनूठी गाथा का !

