चुभती किरंचें
चुभती किरंचें
आज ज़िन्दगी के इस मुकाम पर जहाँ नज़र जाती है, दूर-दूर तक रेगिस्तानकी चमकती धोखा देती रेत ही रेत नज़र आती है।कब उस रेत के अंधड़ नेमेरी आँखों में इस तरह किरकिरी पैदा की जो कभी निकल ही नहीं पाई और नासूर बन कर मुझे चाहे अनचाहे अतीत की ओर खींचने लगती है। बिना माँ-बाप के ज़िन्दगी नर्क हो जाती है सुना था, पर अनुभव भी कर लिया।
वही निस्वार्थ प्यार व ममता अपने बच्चों पर लुटा सकते है जो अनमोल होती है।सबसे बड़ी अनिका दीदी और सौभाग्यशाली भी क्योंकि उनकी दुनिया पापा के रहते ही संवर गई थी।फिर भैया जिनका जॉब लग गया था और उनके तो तेवर बदले-बदले थे।
पढ़ने में बहुत होशियार होनहार थे साथ ही स्मार्ट और सुन्दर, बुआ, चाची सबके चहेते व लाड़ले।
दूसरी तरफ मैं सांवली, चपटी नाक और आँखे भी छोटी-छोटी। पढ़ने में भी साधारण।बुआ हमेशा कहती, "करेला वो भी नीम चढ़ा। शक्ल-सूरत ठीक है, अक्ल ही दे देता भगवान्। हर चीज़ में फिस्सडी रही।न जाने कैसे नै यापार लगेगी इसकी।"
पापा के जाने के बाद बुआ हमारे साथ ही रहने लगी और धीरे-धीरे उनका साम्राज्य इस तरह से हावी हो गया की उनकी आज्ञा के बिना घर में पत्ते ने भी हिलना बंद कर दिया।
वो हमेशा भैया की ही तारीफों के पुल बांधती और मेरे हर काम में कुछ नुक्स निकालती रहती। हर वक़्त ताने सुन-सुन कर हीन भावना से ग्रसित रहने लगी।
भैया की शादी घर में चर्चा का विषय थी। सुबह से ही फोटो देख-देख उनकी जीवन संगिनी के चयन की प्रक्रिया शुरू होती, पर रात तक सब बेकार साबित होता।
बुआ भैया जैसे राजकुमार के लिए राजकुमारी ही लाना चाहती थी। अंततः मुस्कान, भाभी बन कर आ गई। बहुत पढ़ी -लिखी काफी सुन्दर भी, सबके चेहरे पर नई बहू के आने की मुस्कान थी। मैं भी भाभी के आगे पीछे घुमती रहती थी भाभी के चेहरे की बनावटी मुस्कान जल्दी ही फीकी पड़ने लगी।मेकअप और हल्की पड़ती मेहंदी के रंग के साथ ही भाभी का असली चेहरा झलकने लगा।
कम बोलने वाली, गुमसुम रहने वाली, अपना सामान लॉक कर के रखना, पहले लगा की अजनबी माहौल व नए परिवार के कारण भाभी की यह आदत हो गई है।पर कई बार मायके वालों से भी बात करते उनकी धीमी व खीज भरी आवाज़ ही सुनी। भाभी की भी नौकरी लग गयी थी।
मैंने भी १२ वी में एडमिशन ले लिया। भाभी १० बजे जाकर शाम को ७ बजे के बाद ही आती।
मेरा स्कूल ११ बजे का रहता था, साढ़े चार बजे तक। सुबह माँ और मैं सारा काम कर लेते थे। एक बाई थी बर्तन, झाड़ू, पोछा के लिए। भाभी सबेरे चाय पीकर तैयार होकर और नाश्ता करके टिफ़िन लेकर चली जाती। कपडे सब अपने -अपने धो लेते थे।
पहले दिन भाभी के कपड़े नहीं धुले। शाम को माँ ने उनसे कह दिया, "बहू कल से कपड़े धो कर जाया करो।" १५ दिन बाद ही घर में वाशिंग मशीन आ गई। भैया ने यह कहते हुए, "माँ के जन्मदिन का गिफ्ट दी, माँ आप कपड़े धोते -धोते थक जाती होगी।" इतने दिनों तक भैया को माँ की थकान नज़र नहीं आई, बीवी के आते ही माँ पर ज़्यादा लाड़ आने लगा। भाभी माँ बनाने वाली थी, उनकी सेवा-टहल बढ़ गई थी।
भाभी ऑफिस से आती तो बुआ मुझे पढ़ाई से उठाकर चाय बनाने लगाती।भाभी माँ बनने वाली थी, उनकी ज़्यादा ही देख - भाल होने लगी।बारवी का रिजल्ट और भाभी के मातृत्व का रिजल्ट साथ आया। लक्ष्मी घर में आ गई।काम बढ़ने लगे, पर काम करने वाले मैं और माँ।
भाभी तो पहले भी काम कम ही करती थी, अब तो उन्हें हाथोँ-हाथ रखा जाने लगा। बुआ काम तो कम करती थी पर आर्डर हर समय देती रहती। धीरे-धीरे ज़िन्दगी की गाड़ी चलने लगी। ख़ुशी चार साल की हो गई थी और सारा दिन मेरे आगे-पीछे बुआ-बुआ करती घुमती रहती। भाभी फिर परिवार बढ़ाने के लिए तैयार हो गई थी। इस बीच मुझे कॉलेज जाने का अवसर ही नहीं मिला। जब भी कॉलेज जाने की बात कहती तो बुआ अड़ंगा लगाते हुए कहती, "क्या करोगी ज़्यादा पढ़ाई कर के, कौन सा कलेक्टर बनाना है, कोई लड़का देखो शादी हो जाए तो पिंड छूटे। वैसे भी करेला और नीम चढ़ा। बस चिंता में मरे जा रहे है हम।"
माँ दिल की मरीज़ थी, ये उनके बीमार होने पर पता चला। सबकी सेवा करती रहती थी, अपना ध्यान रखती ही नहीं थी। धीरे-धीरे बीमार रहने लगी और अंततः उनका साया भी मेरे ऊपर से उठ गया। वो थी तो तिनके का सहारा था।
वो मुझे देर रात तक काम करते देख उदास हो जाती थी पर कुछ कहती न थी। जब उनके सानिध्य में लेटती तो उनका प्यार भरा स्पर्श और बालों में गिरते आँसू उनके दर्द को बयां कर देते थे। उनका स्पर्श मेरी सारी थकान मिटा देता था।
पर कहते है न तन की थकान से मन की थकान ज़्यादा थका देती है। वही मेरे साथ होने लगा. माँ जबरन मुझे सहेली के घर या बाहर भेज देती थी, तब तैयार होने का बहाना रहता था पर अब तो "ख़ुशी" और "मयूर" की बुआ, बिना वेतन के दिन भर की "मेड "बन कर रह गई। पिक्चर हॉल में पिक्चर देखे, ठेले पर चाट, पकौड़ा, गोल-गप्पे खाना बस यादे बन कर रह गई है।
साथ पढ़ने वाली कुछ सहेलियाँ पढ़ने के लिए बाहर चली गई, कुछ की शादी हो गई और वो अपनी नई दुनिया में रम गई।किसी सहेली की शादी में जाती तो अनायास ही उसकी जगह अपने को देखने की कोशिश करती, क्योंकि सपने तो सपने होते हैं, सपनों की कोई स्पीड नही होती और न ही कोई स्पीड ब्रेकर होता है।
सपने टूटने के लिए होते हैं तो लोग सपने देखते ही क्यों हैं? कुछ बदनसीबों के सपने टूटने के लिए ही होते हैं और उनमें से "मैं" एक थी। अपना परिवार ही इतना स्वार्थी और संवेदनहीन होगा कभी सपने में भी नहीं सोचा था।
अपने कैरियर, अपने बच्चों की परवरिश और अपनी पत्नी की तकलीफों को कम करने की खातिर भैया ने मेरी ज़िन्दगी पर इतना बढ़ा दाँव खेला। भाभी तो पराई थी, पर भैया को भी मेरा दर्द नहीं दिखा या ये न देखने का बहाना था।
जो भी हो धीरे-धीरे उम्र बढ़ने लगी और चाहते दम तोड़ने लगी। चेहरे की जो थोड़ी बहुत रंगत थी वो भी साथ छोड़ने लगी। उम्र से पहले ही चेहरे पर झुर्रियों ने और बालों में आती सफेदी ने मेरे साथ हुए अन्याय या टूटते सपनों का अक्स दिखाना शुरू कर दिया।
आज कपड़े जमाते समय छिपा कर रखी हुई डायरी नीचे गिरी साथ ही उसमें रखी गुलाब की पंखुड़ियाँ भी। इतने दिनों बाद भी सारा दृश्य आंखोंके आगे छा गया। कुछ दिन पहले ही वो लोग बगल के घर में किराये से रहने आये थे। माँ बाप, एक बेटी जिसकी शादी हो गई थी, और एक बेटा, मनीष,जो बैंक में जॉब करता था। शनिवार या रविवार को जब मैं छत पर कपड़े सुखाने या उठाने जाती तो महसूस होता की दो आँखे मेरा पीछा कर रही हैं।पर मुझे अपनी ही बात बेतुकी लगी क्योंकि मुझ में कोई क्या देखेगा? भैया से उसका दोस्ती करना, किसी न किसी बहाने घर आने लगना।
उस दिन मेरे जन्मदिन पर ढ़लती शाम के समय छत पर आकर मुझे ये गुलाब दे कर अपने प्यार के इज़हार के साथ ही मेरे माथे पर अपने अधर रख देना। वो सिहरन, वो एहसास अपने उधड़े हो रहे चेहरे पर आज भी जब-तब महसूस करती हूँ।
मेरे लिए मनीष की आँखों में चाहत व प्यार माँ ने देखा था, और उन्होंने दबी जुबान से यह बात कई बार भैया से कहा कही भी। इस बीच माँ की तबियत ज़्यादा बिगड़ने लगी और फिर उनका साया मेरे ऊपर से उठ गया।
उनके साथही मेरी ज़िन्दगी के सुखद चैप्टर का भी अंत हो गया। भैया के ट्रांसफर के साथ ही मैं भी उनके परिवार के साथ एक सामान की तरह मैं भी अतीत को पीछे छोड़कर आ गई।
किसी के आने की आहट सुन डायरी तकिया के नीचे छिपा दी। रात को तबियत कुछ ठीक नहीं लग रही हैं कह कर जल्दी बिस्तर पर आ गई। लाइट बुझा कर मोबाइल की टोर्च जला कर डायरी में से टूटे फूटे गुलाब को निकाल कर चूमा और लेट कर सीने पर रख लिया। मानो ऐसा करने से खुशियों की परछाइयाँ ही मेरा साथ दे दे। पर परछाइयों ने कब किसका साथ दिया हैं जो मेरे साथ देती । मोबाइल की बैटरी डाउन होने केकारण बंद हो गया।
रह गया बस अँधेरा ही अँधेरा साइड टेबल पर मोबाइल रखने के लिए हाथ बढ़ाया तो मम्मी-पापा की फोटो नीचे गिर गई। उठाने के लिए हाथ बढ़ाया तो एक तीखी किरंच चुभ गई। दर्द हाथ में तो हुआ ही पर दिल को कही ज़्यादा महसूस किया। आंखों से अनायास ही आंसू बहाने लगे, पर उन्हें पोछने वाला कोई नहीं था।