बाबूजी से पापा बनने का सफर
बाबूजी से पापा बनने का सफर
बाबूजी कॉलेजमें लाइब्रेरियन की नौकरी करते थे। हमतीनों भाई-बहन के भविष्य की चिंता बाबूजी को हमेशालगी रहती थी।बाबूजी सबेरे जल्दी उठते थे,नहा करपूजा करने के बाद ही चाय नाश्ता करते।फिर स्टील केटिफ़िन में खाना लेकर साइकिल से कॉलेज जाते। उनकेजाते ही शांत सन्नाटे को चीर कर धमाचौकड़ी कीसोनामी शुरू हो जाती, सीधे -साधे बच्चों का ख़िताबपुराने कपड़ों सा फ़ेंक दिया जाता। धीरे-धीरे बाबूजी केआने का समय होता, उससे पहले ही हम सब दादागिरीछोड़ कर अच्छे बच्चों का मुखौटा ओढ़, किताबें खोल करबैठ जाते। साइकिल की घंटी सुन सब अलर्ट हो जाते , किताबों में ध्यान लगाने की कोशिश में कनखियों सेइधर- उधर देखते रहते की बाबूजी आज क्या लाये है? वेरोज़ ही कभी पेड़े,कभी चूसने वाले आम, तरबूज , जामुन, सिंगाड़े और कभी गरम जलेबी या समोसे लेकर ही आतेथे।सब साथ में बैठ कर खाते।इन छोटी-छोटी खुशियोंमें बाबूजी के अपनेपन और प्यार की खुशबू बसी रहतीथी। छुट्टी के दिन लूडो , कभी कैरम या कभी ताश कीमहफ़िल चाय और पकौड़ो के साथ जमती थी।
बाबूजी संयुक्तपरिवार में रहे, उनकी वो छवि अभीभी हमारे परिवार में देखने को मिलती है।दादा-दादी,बुआ,चाचा-चाची, मौसी, मामा-मामी,नाना-नानी कोई न कोईघर में अक्सर ही आते रहते थे।मैंने कभी भी माँ याबाबूजी के चहरे पर आर्थिक या मानसिक थकान कीशिकन नहीं देखी , न कभी उनके आदर सत्कार में कमीहोते देखी।तब मैं छोटी थी पर अब मैं सोचती हूँ ,तब नमिक्सी थी, न गैस का चूल्हा, न वाशिंग मशीन जैसेजरूरतों को मिंटो में निपटाकर आराम देने वाले उपकरणहाज़िर थे।माँ सिलबट्टे पर दाल पीसकर दही-बड़े बनाती,कभी गोल- गप्पे तोह कभी गुलाबजामुन बनाकर ख़ुशी- ख़ुशी बड़ी सहजता से अपनी पाककला से सबका मनमोह लेती थी।बाबूजी माँ केसरल सौम्य स्वाभाव केकारन ही परिवार से हमेशा जुड़े रहे।
तब मोबाइल तो बहुत दूर की बातहै, फोन भी बहुत कम लोगों के पास होते थे।बाबूजीपत्रों के माध्यम से सब से जुड़े रहते थे।दोस्तों के साथही दूर -दराज़ के रिश्तेदारों से सम्बन्ध बना कर रखते थे।एक बार राखी महीने के आखिरी दिनों में आयी , बुआअचानक आ गई।त्यौहार पर तोह साड़ी देनी थी।बाबूजी के सामने विकट समस्याआन पड़ी।पर माँ नेअपने मायके से आई सहेज कर रखी साड़ी बुआ को देकर इस समस्या को चुटकी में दूर कर दिया। ये बातअलग थी की वो साड़ी उन्हें पसंद थी।माँ के इस त्याग नेउन्हें बाबूजी की नज़रों में और भी ऊँचा उठा दिय।
बुआ के जाने के बाद हमने माँ से कहा " क्याज़रुरत थी अपनी इतनी प्यारी साड़ी देने की?" "हर बारतोह देती हो ,इस बार न देती तोह क्या हो जाता?" माँबोली," बेटी वो तो साड़ी ही है, नई साड़ी आजाएगी। त्यौहार के समय साड़ी न देते तो हमारी छोटी सी गलतीसे रिश्तों में दरार आ जाती।मैं बोली , माँ हमारे रिश्तेक्या ऐसीछोटी -छोटी चीज़ो के मोहताज़ है। " तो माँबोली, "बेटा, अभी तुम छोटी हो , ससुराल के रिश्तों मेंबन्धोगीतो सब समझ में आ जायेगा।
बाबूजी कॉलेज में लाइब्रेरियन थे, छोटी सी नौकरीथी, पर बड़े दिलदार और खुशियों के धनी थे।जिससे भीमिलतेअपनी छाप छोड़ देते थे। दादाजी की कपड़ों कीदुकान थी , उसका बहीखाता और लेन-देन की ज़िम्मेदारीबाबूजी ही सम्हालते थे, क्योकी उन्हें गणित में बहुत रूचिथी।उनके एक दोस्त ने उनकी गणित में रूचि देखकरउनको गणित में ही आगे उच्च शिक्षा प्राप्त करने कीसलाह दी। साथ ही कहा की लाइब्रेरी के कारन किताबोंका झमेला भी नहीं होगा।बाबूजी को अपने मित्र की बातपसंद आई ,और बाबूजी ने जी जान से पढ़ाई शुरू करदी। मेहनत से उच्च शिक्षा प्राप्त की।परिणाम गोल्डमैडल लेकर वे बहुत अच्छे अंको से पास हुए।उनकीमेह्नत रंग लायी और उन्हें बहुत अच्छी नौकरी भी मिली , पर तबादला भोपाल हो गया। पहला तबादला था। सामान की पैकिंग , अपना अपना सामान पैक करना , ट्रैन में बहुत दिनों बाद यात्रा का मौका मिलेगा।खिड़कीके पास की सीट पर बैठ कर बहार के पेड़ों का भागते हुएदेखना , बिजली के खम्बों की गिनती करना, बड़ा मज़ाआएगा पर एक दुःख भी हो रहा था, की इतनी प्यारी-प्यारी सखियाँ बिछड़ जाएगी।नई जगह में न जाने कैसीसहेलियाँ मिलेंगी? आखिर जीत उत्सुकता की ही हुई। ट्रक में सामान रवाना हुआ और हम लोग ट्रैन से रवानाहुए। हम लोग खिड़की के पास बारी-बारी बैठ कर पूड़ी , आचार और आलू की सब्जी खा कर भी स्टेशन परसमोसे, कोल्डड्रिंक और आइस-क्रीम को ललचाई नज़रोंसे देखते हुए ,भोपाल आ गए।
कॉलोनी में रहने का पहला मौका था।घर दो कमरोंका था, पर कमरे काफी बड़े थे , रसोईघर के अलावाडयनिंग रूम भी था और सबसे बड़ी बात दो बाथरूम थे। वहाँ तो एक ही बाथरूम था और नहाने के लिए मारा-मारी होती थी। इतने साल वहाँ रहे पर कुछ पता नहींचला। आज वो कमियाँ दिख रही हैं घर के पास ही बड़ासा पार्क ,एक मंदिर और पास में ही जर्नल स्टोर था ।पुरानीयादें धुंधली होती जा रही थी और नए माहौल कीखुमारी चढ़ने लगी थी। अब अतीत की कमिया नज़र आनेलगी कि कैसे एक छोटे से घरमें एक बाथरूम के होतेहुए भी वहाँ स्वर्ग सा आनंद महसूस होता था। पुरानासामान वहाँ यह कह कर फेक दिया था बाबूजी ने ,"ये सब कबाड़ वहाँ नहीं ले जाना , वहाँ गवारो जैसे नहींरहना।वहाँ सबको तमीज़ से रहना पड़ेग। कॉलोनी मेंरहने का तौर-तरीका अलग होता है। कॉलोनी में नएजोइनिंग करने वाले को परिवार के साथ दो दिन गेस्टहाउस में रहने कि सुविधा मिलती थी ,ताकि दो दिन में वोअपना घर जमा लें। " वहाँ पर तो केवल सामने के कमरेमें पर्दा लगा था, वह भी दोनों तरफ खीले लगा कर, रस्सीमें बांध कर।यहाँ पर घर के सरे दरवाज़ों और खिड़कियोंमें परदे लगाने के लिए रोड दी थी,जिस पर ,पूरी लम्बाईसे पर्दे लगाए जाते हैं। बाबूजी पहले आये थे तब उन्होंनेसोफा सेट और सेंटर टेबल खरीद ली थी। जो कि ड्रिंगरूम की शोभा बढ़ा रहे थे। वहाँ हमारे ड्रइंग रूम में चार-पांच कुर्सियां थी जिस पर गद्दी सजाई जाती थी और बीचमें छोटा सा स्टूल होता।वहाँ सामान रखने के लिए घरछोटा पड़ता था पर यहाँ घर ज़माने के लिए कुछ सामाननहीं था। बाबूजी पहले ज्वाइन करने आये थे, तब घर देखकर गए थे, इसलिए खिड़की और दरवाजे का नाप लेकरपूरी लम्बाई के पर्दे खरीद लिए थे। एक छोटा सोफा औरएक कांच की टेबल बीच में रखने के लिए। साथ ही कुछजरूरी सामान बाल्टी-मगहे , सोप केस वगैरह।लकड़ीकी पुरानी खटिया काफी पुरानी और कमज़ोर हो गए थी,सो बाबूजी नेवहीं चौकीदार को दे आये थे। यहाँ परलकड़ी के बॉक्स वाले पलंग खरीदे।घर इन दो दिनों मेंकाफी जम गया था।
बाबूजी की नई नौकरी और माहौल का असर, घर की सजावट में झलकने लगा था। डाइनिंग टेबल केआभाव में हमारी स्टडी टेबल एक कोने में तीन चेयर केसाथ सुशोभित हो रही थी क्योकि उसका उपयोग पढ़ाईके साथ खाने के लिए भी होने लगा था। रसोई में मॉर्डनकिचन था। प्लेटफार्मके ऊपर गैस चूल्हा था सो माँ खड़ेहोकर खाना बनाने लगी।स्कूल शुरू हो गए थे ,नईयूनिफार्म , नया स्कूल बैग ,नई वाटर बॉटल, तीनो अपनेको सुपर मैन से कम नहीं समझ रहे थे। स्कूल का माहौलरास नहीं आ रहा था, पुराने दोस्तों की बहुत याद आ रहीथी क्योकि लंच अकेले खाना पड़ रहा था।तीन चार दिनोंमें एकदो लड़कियों से मेरी पहचान हुई पर दोस्ती नहीं।धीरे-धीरे अतीत धुंधला होने के कारण अब यहाँ अच्छालगने लगा था। एक माह यहाँ आकर हो गया था।इसबार बाबूजी ने वाशिंग मशीन खरीदी और माँ ने एक दोदिन में ही मशीन चलना सीख कर उसमें कपडेधोना शुरूकर दिया और बड़ी खुश होने लगी।
यहाँ के क्लब में प्रोग्राम होते रहते थे,आजशाम को भी क्लब में कुछ प्रोग्राम होने वाला था । बाबूजी ने सबेरे ही माँ से कह दिया था की खाना जल्दी बना लेना, शाम को सब लोग क्लब चलेंगे। सिल्क की अच्छी साडीपहन कर तैयार रहना । इसके पहले कभी ऐसा मौका नहींआया था,सोहम लोग बड़ी बैचेनी से शाम की प्रतीक्षाकर रहे थे। साढ़े छै बजे हम लोग घर से निकले तो पड़ोसका शर्मा परिवार भी साथ हो लिय। इसलिए अकेलेपनका एहसास नहीं हुआ। वहाँ ,सभी बच्चे पापा-पापा हीबोल रहे थे और हम लोग आदतन बाबूजी, जिसकेकारण, वो दो बड़ा असहज महसूस कर रहे थे। घर आकरउन्होंने फरमान ज़ारी किया की तुम लोग बाबूजी नहीं , "पापा" बोलोगे। समय व् माहौल के हिसाब से अपने मेंपरविर्तन लाना ज़रूरी है वरना भागती ज़िन्दगी की दौड़ मेंहम पीछे रह जायेंगेपर पुरानी आदत छोड़कर नई आदतको अपनाने में समय लगता है, साथ ही असहज भीमहसूस हो रहा था। पर फिर एक दूसरे को "टोक-टोक "कर आदत हो गई।पर पापा के साथ माँ बड़ा अटपटालगने लगा तो माँ को " मम्मी " कहने लगे।
समय के साथ परिवर्तन बहुत ज़रूरीहै, वरना ज़िन्दगी की दौड़ में हमारे बच्चे पीछे न रह जाये,वरना जो कुंठा मैंने झेली है , वो मेरे बच्चों को न झेलनापड़े। आधुनिकता की दौड़ का हिस्सा बन कर , ज़िन्दगी मेंसफलता के शिखर पर चढ़े , यही सोच बाबूजी को पापाबनाने में कामयाब हुई। पापा ने यहाँ आकर स्कूटर लेंलिया था और वो उनकी साइकिल मोहन को मिल गई थी, जिस पर वो बड़ी शान से महाराजा की तरह बड़ी अकड़कर घूमता रहता।अब पापा खाने के लिए दोपहर को घरआने लगे परउनका स्टील का टिफ़िन रसोई में सामने ही रखा था मुझे बाबूजी के बाबूजी से पापा बनने की याद दिलाता रहता है।