Susheela Pal

Tragedy

3  

Susheela Pal

Tragedy

चोट

चोट

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199


    क्वार्टरस के मकान बहुत बड़े तो नहीं होते किन्तु एक परिवार के लिए बहुत होता है। छोटा सा रसोई घर उससे जुड़ी एक बड़ी सी खिड़की वाला कमरा, जिसमें एक कोने में छोटा सा टेलीविजन रखा है, उसके विपरित दिशा के कोने में दुर्गा देवी का फोटो लगा छोटा सा मंदिर साइड की दीवार के पास एक मीडियम साईज का कनस्तर रखा है जिस पर टेबल क्लोथ बिछाकर उस पर एक रेडियो रखा हुआ है। कमरे के बाहर दो बड़े से बरामदे है। एक बरामदे में चार पाई बिछी है। नीचे के बरामदे में बाई ओर एक बाथरूम और एक टोइलेट बना हुआ है। उसी नीचे वाले बरामदे में ही लोहे के सलाखों वाला गेट बना हुआ है। 

    यही डिंपी का बचपन सांसे ले रहा था। दादाजी, मम्मी - पापा, तीन चाचा और एक मामा इसी घर में साथ में ही रहते हैं। पापा के एक ही भाई हैं। उनके दोनों चचेरे भाई और मामा यहाँ पढ़ने के उद्देश्य से आए हैं। इतने लोगों की अन्नपूर्णा मात्र मम्मी हैं। उनके काम - काज पूरे दिन चलते रहते हैं। भोर 5 बजे से घरेलू कार्यों में लग जाती हैं फिर भी दोपहर 2 बजे तक विराम नहीं पाती। 

   पापा की शिफ्ट ड्यूटी होती है। दादाजी भी सरकारी कर्मचारी हैं। दादाजी जितने सरल स्वभाव के हैं पापा उतने ही सख्त दादाजी पापा से हमेशा कहते' जीवनराम गायकवाड ऊसूल और सख्ती जब जीवन जीना भूला दे तो जिंदगी मशीनी रूप से चलने लगती हैं जहां से जीवंतता खत्म हो जाती है ' किंतु पापा के अपने तर्क रहते।

     आज दोनों चाचा और मामा घर पर हैं। हंसी -मस्ती चल रही है । मम्मी चाय बना रही है, दादा जी समाचार पढ़ रहे हैं, डिंपी कनस्तर पर नोटबुक रख कर लिख रही है, जोर से ठहाकों की गूंज…अचानक डिंपी के पापा उठे और लिख रही डिंपी की पीठ पर एक मुक्का मारा, डिंपी के पेशाब निकल गईं रोते हुए सांस रुक गईं। पूरे कमरे में सन्नाटा , दादा और मां एक दूसरे पर नज़र टिकाए हुए, यह समझने की कोशिश कर रहें हैं कि आखिर हुआ क्या?

   इतने में जीवनराम ज़ोर से झल्लाए- ' इसे भी समझ नहीं आता कि मैं नाइट ड्यूटी करके आया हूं।' 

   डिंपी खड़ी हुईं और बदहवास घर के बाहर भागी। कुछ ही सेकंड में मामा, और चाचा भी उसके पीछे भागे। कुछ देर डिंपी के पीछे भागने के बाद चाचा ने उसे पकड़ लिया। क्वाटर्स के पीछे छोटे से मैदान में बरगद का पेड़ था, उसी के नीचे डिंपी को यह वाकया भुलाने की मामा और चाचा भरसक कोशिश करने लगे। निर्दोष मन कब तक नाराज रहता, डिंपी सब भूलकर दोनों की मस्ती में शामिल हो गई।

   दोनों फुसलाकर डिम्पी को घर लेकर आए। मां ने पेशाब में भीगे कपड़ों में ही गोद में उठा लिया। घर में लेकर गई। डिंपी को नहलाकर कपड़े पहनाए। यंत्रवत सब कार्य कर रही मां के आंसू रुकने का नाम ही नहीं ले रहे। डिंपी के छोटे छोटे हाथों ने मां के आंसू पोंछे। तुम तीनों की हंसी ठिठोली की कीमत डिंपी को चुकानी पड़ी।

   मां पापा से बात नहीं कर रहीं। पापा किसी से नजरे नहीं मिला रहें और डिंपी भी सो कर उठी है। दादा जी की गोद में बैठी नजरे झुकाकर पिता को देखने का प्रयास कर रही है।

  पिता की अनुपस्थिति में खिलखिलाती है और घर में प्रवेश करते ही सो जाती है। कई दिनों से डिंपी की यहीं दिनचर्या बन गई है।


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