dr.Susheela Pal

Tragedy

4.3  

dr.Susheela Pal

Tragedy

दवाईवाला

दवाईवाला

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              पौष का महीना था दिसंबर में सिर्फ  चार दिन बचे हैं, सर्दी पुर यौवन मे है शाम के चार बजे, मैं अपनी छत की मुंडेर पर बैठी आकाश की ओर टक- टकी लगाए देख रहीं हूँ इतने में मां अपना और मेरा चाय का प्याला लेकर ऊपर आती हुई दिखाई देती है प्याला हाथ में थमाते हुए पूछती है, ' इतने ध्यान से क्या देखे जा रही थी बिटिया ?' और मैं आँखों से इशारा करते हुए कहती हूं, मां पावागढ कितनी दूर है..! न फिर भी हमारी छत से दिखता है, मानो किसीने केनवास पर पहाड़ की सुन्दर सी आउट लाइन बना रखी हो। माँ आश्चर्य से पावागढ़ की ओर देखती है और हाथ जोड़कर कहती है।अरे हाँ! मेरी तो आज तक कभी नज़र ही नहीं गई! पावागढ़ महाकाली देवी के दर्शन करने कई बार गई हूँ लेकिन यहां से देखने पर लग रहा है जैसे पहाड़ आसमान में है। 

         इसीलिए बंद कमरे मे पढ़ने के बजाय मुझे यहां खुले आसमान के नीचे पढ़ना बहुत अच्छा लगता है । सुबह मुँह अंधेरे छत पर पढ़ने आती हूं तब लाल सौम्य अरुण देवता अपनी सवारी लेकर सुबह की रोशनी बिखरते  हैं। भोर होते ही ढ़ेर सारे पंछी अपने भिन्न भिन्न कलरव से एक अलग ही संगीत सुनाते हैं। साथ मे झुंड में कभी महाकाय पक्षी के रूप में, तो कभी हवाई जहाज के रूप में एक जगह से दूसरी जगह खाने की खोज में जाते दिखते हैं। बड़ा ताज्जुब होता है जब यही पंछी शाम को बड़ा सा धनुष का आकार बनाए  मौन  अपने घौंसले मे लौटते हैं, लौटते समय बिल्कुल कोलाहल नहीं होता। काश! कि अपनी  बुद्धि पर घमंड करने वाला मनुष्य भी इनका अंश मात्र भी अनुकरण कर पाता। 

 अनायास ही मेरी नज़र सड़क के उस पार दो-चार मकान छोड़कर, आगे के मकान की छत पर गई। लोगों से कहते सुना था कि ये बंजारों का मकान है। ये लोग जड़ी- बूटी बेचते हैं, उन्हीं लोगों मे से एक दंपति एक दूसरे को धकिया रहे हैं । मानो एक दूसरे को मारने का प्रयास कर रहे हों। अभी तो पहचान ने की जद्दोजहद कर ही रही थी कि महिला को अपनी ओर घूरते पाया। मैं डर के मारे नीचे चली गई। जहां रात्री भोजन की तैयारी चल रही थी, खाना लगभग तैयार था, इतने में मम्मी आवाज़ देती हैं कि ' बिटिया, मैं, रोटियां सेंकने जा रही हूं, आओ तुम खाना परोस दो।' जी, मम्मी कहकर मैं खाना परोस ने में लग गई। खाना खाकर, साफ -सफाई करवाकर, फिर से किताब लेकर छत पर पढ़ने आ गई। घड़ी साढ़े आठ बजा रही थी। समय देखकर मन ही मन खुश हो गई कि आज कुछ देर तक पढूंगी। सोच ही रही थी कि मम्मी की पीछे से आवाज़ सुनाई दी। क्या बेटा सर्दी के मौसम में यहां देर रात तक पढ़ोगी तो जुकाम हो जाएगा। दूसरे पढ़ने में मन लग गया तो तुम्हे समय का भी होश नहीं रहता। मम्मी एकाध घंटा पढूंगी फिर आ जाउंगी। कमरे मे भैया जोर से पढ़ता रहता है, ध्यान भंग हो जाता है। ठीक है, पढ़कर आ जाओ, मैं तो दिन भर घर के काम से थक गईं हूं, सोने जा रही हूं।

     अभी तो सोशल साइकोलॉजी के कुछ पचास पन्ने पढ़े होंगे उतने मे किसी औरत के बचाओ- बचाओ की चीख सुनाई पड़ रही थी। सुनकर हाथ पैर फूल गाए, आवाज़ की ओर कान किए तो रोड साइड से आ रही थी। भाग कर रोड साइड वाले छत के सिरे पर गई। देखकर एक बार तो चकरा गई। जलती हुई औरत रोड पर चिल्लाते हुए दौड़ रही है। ठंड के कारण रोड़ पर सन्नाटा है आगे पीछे कोइ नही है। कुछ सूझ नहीं रहा था, खुद को संभालते हुए, नीचे भागी। आगे ही ड्राइंग रूम में लैंड लाइन फोन था, सौ नंबर घूमा दिया। ठंड की वजह से खिड़की - दरवाजे बंद होने के कारण बाहर का शोर घर में किसी को सुनाई नही पड़ा, या कहें कि पहली नींद में कोई उठ नहीं पाया। ड्राइंग रूम का गेट बंद करके मै भी बेड पर आ गईं। मन तो कर रहा था जोर जोर से चिल्लाकर सबको उठा दूं। लेकिन नहीं उठा पाई।

      रात मे कब आंख लगी नहीं पता। सुबह कालेज जानें के लिए मम्मी आवाज़ दे रही थीं। नहीं उठी तो सोने दिया। नौ बजे बाबूजी की भारी आवाज़ ने नींद से उठा दिया।

अभी तो बिस्तर पर ही थे कि बाबूजी ने सवाल किया "उस औरत के जलने की खबर पुलिस को आपने दी बिटिया? सुनते ही दौड़कर बाबूजी जोकि हमारे दादाजी हैं, उनसे लिपटकर मैं फफककर रो पड़ीं।

" बाबूजी जलते हुए वह औरत रोड़ पर दौड़ लगा रही थी। बाबूजी पेशे से वकील हैं।"

 "कोई बात नही बेटा, अच्छा किया आपने।"

" फिर पुलिस हमारे घर क्यूं आई है?"

" आपसे मिलने!" नहीं, बेटा हमारे फोन से खबर दी गईं न तो नंबर पुलिस स्टेशन में दर्ज़ हो गया है। तुम्हारा स्टेटमैंट लेंगे और कुछ नहीं।" बात करते हुए हम बरामदे मे पहुंच गए। सुनते ही हमारे मुंह से निकला कि "हमारा स्टेटमेंट क्या लेंगे, जलती हुई औरत ही तो देखी थीं, वो भी चिल्लाने की आवाज से पता चला औरत है, वरना इतनी दूर से कुछ साफ थोड़े न दिखाई देगा।"

सुनकर पुलिस कर्मी ने बाबूजी की ओर देखा। फिर कुछ लिखा और बाबूजी का साइन करवाकर चले गए।

 दो तीन दिन बाद महरी बताने लगी। दवाईवाले ने अपनी औरत को जला दिया। शाम को दोनों की चाय को लेकर कुछ बोला चाली हो गई। अम्मा वो रात को शराब पीकर आया और औरत को जला दिया। 

"दवाई वाला तो जान बचाता है ये कैसा दवाई वाला अम्मा।" केस भी नहीं बना। किसीने कुछ देखा ही नहीं। इसने लिखवा दिया कि हम सब सो रहे थे साब पता नहीं क्यूं जली!!!

मै सुनते ही स्तब्ध, उस दिन शाम को छत पर एक दूसरे को हंस हंस कर धकेल रहे थे। ये ही दोनों थे….. किसीके मिजाज का कुछ नही कह सकते। सोच सोच कर मन बोझिल हो रहा था और" दवाई वाला" शब्द गूंज उठा।



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