चलो बनें सहकारी
चलो बनें सहकारी
नल एक किसान परिवार में पैदा हुआ। लेकिन बहुत जिज्ञासु था। हर बात को सोचता था।फिर समझता था।और फिर करता था।उसने अपनी प्रारम्भिक पढ़ाई शिक्षा टकनपुर गांव में ही की थी। इसलिए उसे गांव की समस्याओं की बहुत निकट से जानकारी थी। वो अब स्थानीय विश्वविद्यालय में भारतीय अर्थशास्त्र का अध्ययन कर रहा था।वो हर सुबह विश्वविद्यालय चले जाता। और शाम को घर आता।फिर अपने पिता चमकू और मां नती का खेती बाड़ी में हाथ बटाता। एक दिन वो हर रोज की तरह सुबह उठा।मां नती ने नाश्ता लगा दिया।उसने झट से नाश्ता किया।और विश्वविद्यालय की बस में बैठा।और विश्वविद्यालय चला गया। आज उसके सबसे पसंदीदा विषय भारतीय अर्थशास्त्र की पहली घंटी थी।जैसे ही घंटी बजी। प्रोफेसर साहब आए।और उन्होंने भारतीय अर्थशास्त्र में सहकारिता आंदोलन का योगदान पर लैक्चर देना शुरू किया। तो वहां लैक्चर देते हुए। उन्होंने कहा विद्यार्थियों आप सबको हैरानी होगी। सहकारिता आंदोलन हमारे देश भारत मे हमारे ही पड़ोसी गांव पंजाबर से शुरू हुआ था।ये सन 1892 की बात है। लेकिन मुझे खेद के साथ कहना पड़ता है।जिस आंदोलन का बीज हमारे जिले के एक गांव पंजाबर ने बोया। वो विराट वृक्ष कहीं ओर जाकर बना। यहां पौधे का पौधा ही रह गया।ये सुनकर। नल जो बहुत जिज्ञासु था।उसकी ओर जानकारी हासिल करने की इच्छा हुई।तो फिर प्रोफ़ेसर साहब ने बताया।कि सहकारिता का मतलब है।सब मिलकर एक दुसरे से कंधे से कंधा मिलाकर अपने एक सम्मान ध्येय के लिए काम करना।कम से कम दस सदस्य हों।तो फिर इसका पंजीकरण करवाया जा सकता है। नल को ये जानकर बहुत खुशी हुई।कि हमारे लोगों ने भी भारत देश के लिए कुछ न कुछ योगदान दे डाला है।
फिर कालेज खत्म हुआ।तो सब दोस्त इकट्ठे आने लगे।तो ,सबने देखा। नल बहुत तेजी से सोचता हुआ बढ़ रहा है।और उसने दोस्तों की तरफ कोई ध्यान नहीं दिया।फिर एक दोस्त ने आवाज लगाई।
"अबे नल- सुनता है।या दूं एक कान के नीचे। माना तूं ठहरा स्कोलर आदमी। लेकिन अभी एग्जाम के लिए पुरे चार महीने पड़े हैं।चल न यार कुछ मस्ती करते हैं। आज मल्टीप्लेक्स में एक दम नई फिल्म लगी है।अक्षय कुमार की।चल न देखने चलते हैं।" नल ने सोचा अगर इनमें फंस गया।तो जो सोचा है।वो नहीं हो पाएगा।उसने बहाना बनाया "बापू की तबीयत थोड़ी ठीक नहीं है। और आज खेत में पानी देने की बारी हमारी है।तो माफ़ करना दोस्तों। मुझे तो निकलना पड़ेगा।"
वो घर आया। लैपटॉप उठाया।और इंटरनेट पर पुरा का पूरा सहकारिता आंदोलन पढ़ डाला। उसने देखा कि गांव में लोगों के पास थोड़ी थोड़ी जमीनें हैं।खेती बाड़ी में तो अधिक कुछ हो नहीं सकता। लेकिन यहां स्वां नदी पर घास मिल जाता है।क्यों दूध में सहकारिता संस्था बनाई जाए। लेकिन अब मुद्दा ये आ गया।कि भैंस और गाए भी बहुत महंगी हैं। सबके पास इतना रूपया पैसा नहीं। कि उनको खरीद सके। रात हुई। मां नती ने खाना खिलाया।और सब अपना अपना बिस्तरा आंगन में लगाकर सो गये। लेकिन नल को कहां नींद।वो सोचे जा रहा है।कि आखिर अगर दुध की सहकारिता बनानी है।तो पशु कहां से आएंगे।आखिर वो सुबह चार बजे तड़के ही ऊठ गया। बापू चमकू बोला "अरे क्या बात है।आज इतनी सुब हऊठ गया। विश्वविद्यालय तो नो बजे लगता है।"
"बापू मुझे आज कहीं ओर जरूरी काम से जाना है।" तो चमकू बेटे को बोला- "देख भाई।बड़ा हो गया है।जा कहीं भी। लेकिन कुछ ग़लत मत करिओ।" तो नल बोला- "बापू आगे भी कभी किया।तुम निश्चित रहो।" नल झट से तैयार हुआ। सीधी बस पकड़ी।और सहकारिता मंत्री के घर पहुंच गया।उनसे मिला। सारी बातचीत की। मंत्री जी बोले- "मैं तो पशुओं के लिए ॠण की सुविधा दिला सकता हूं। परंतु तुम बोल रहे हो।कि ॠण वापस करना मुश्किल होगा।" तो नल मुस्कराया और बोला - "मंत्रीजी मेरे पास एक योजना है। अगर आप बोलें तो बताऊं।" ऐसा करते हैं। सहकारिता का पंजीकरण करवा लेते हैं। जो भी सदस्य होगा।उसको भैंस या गाय या बकरी मुफ्त में देंगे। लेकिन उस व्यक्ति को हर रोज दो किलो दूध सहकारिता को देना होगा। ये दूध वो तब तक देगा। जब तक उस पशु का मुल्य पूरा नही हो जाता।" मंत्रीजी ने तुरंत हामी भर दी।
इस तरह से टकनपुर गांव में सहकारिता का जन्म हो गया। किसान हररोज दो किलो दुध सहकारिता में देते।बाकि बाजार में बेच देते। अब किसानों को हर रोज पैसा मिलने लगा। और सब किसान मिलकर बोलने लगे। सहकारिता जिंदाबाद।