छ्त्रछाया
छ्त्रछाया
"माँ, वो बड़ा सा पेड़ कहाँ गया ?"नानी के घर पहुँचते ही दीपू ने माँ को झँझोड़ते हुए कहा।"पिछली बार जब आए थे तो यहीं पर था।" मायके पहुँच कर सबसे मिलने के उतावलेपन में रजनी का ध्यान पेड़ की ओर नहीं गया किंतु नन्हे दीपू की आँखों से यह सब छिप नहीं पाया।
"अम्मा जी ! देखो तो आज कौन आया है घर पर, बड़ी जीजी आई हैं दीपू के साथ।" (छोटी भाभी शायद दीपू की आवाज सुनकर बाहर आ गई थी )
"कैसी हो जीजी" भाभी ने पाँव छूते हुए कहा। "सब ठीक हैं, अम्मा दिखाई नहीं दे रहीं, तबीयत तो ठीक है न
उनकी।"(रजनी माँ के न दिखाई देने पर थोड़ी चिन्तित थी)
"अब क्या बताएं जीजी, बाबूजी के चले जाने के बाद दिन प्रतिदिन कमजोर होती जा रही हैं, खाना भी मन से नहीं खातीं ,बाहर भी कम ही निकलतीं हैं। खैर छोडो़, अभी आ ही जाएंगी थोड़ी देर में। मैं चाय बनाकर लाती हूँ।"
इतना कहकर वो रसोई घर में चली गई।
बाबूजी को गुजरे एक बरस हो चला था, उन दिनों की तो बात ही कुछ और थी। माँ और बाबूजी एक साथ बरगद के पेड़ के नीचे बैठे रहते थे। एक तो घर में कौन आ जा रहा है,उसकी खबर रहती थी, दूसरा आते जाते लोगों से मिलना मिलाना हो जाता था।(रजनी न जाने कहाँ खो गई थी)।
"अरे लाला ! दीपू , तू कैसा है लल्ला" माँ की आवाज सुनते ही उसने दौड़कर माँ को गले लगा लिया। "बड़ी जल्दी आ गई सुध मेरी" माँ ने प्यार से नाराजगी भरे अंदाज में कहा।
"ऐसा नहीं है माँ, तुम तो जानती हो मेरे घर का माहौल, निकलना कहाँ हो पाता है, अब भी जैसे-तैसे करके बस आ ही गई हूँ ...तुम अपना ख्याल बिल्कुल नहीं रखतीं, देखो तो क्या हाल बना रखा है।"
"तुम तो रहने ही दो जीजी, कितना समझा चुके हैं सब ,पर सुनतीं कहाँ हैं भला किसी की, लोग तो यही कहेंगे बेटा बहू ठीक से ख्याल नहीं रखते।" भाभी ने चाय रजनी के हाथ में थमाते हुए कहा।
माँ की नजरें भाभी पर टिकी थीं, वो कुछ बोलना चाहतीं थी पर न जाने क्या सोचकर चुप हो गईं।
"नानी, वो बड़ा सा पेड़ कहाँ गया ? "दीपू ने फिर से वही सवाल किया तो नानी से चुप नहीं रहा गया।
"वो तो तेरे नाना के साथ ही इस घर से विदा हो गया" कहते -कहते मानो कोई दुख का सैलाब बह निकला । तेरे नाना को बड़ा लगाव था उस पेड़ से , कहते थे कि इसी ने मेरे घर को सँभाला हुआ है, मेरे पिताजी के चले जाने के बाद इसी ने पिता के समान मुझे सहारा दिया, मैं छोटा सा ही था जब पिता मुझ पर पूरे परिवार की जिम्मेदारी छोड़ कर चले गए थे तभी से इसी पेड़ ने मुझे हर रूप में सहारा दिया..... माता-पिता भाई तो कभी दोस्त समझकर मैंने इसी के साथ सुख-दुख साँझे किए हैं... न जाने कितनी रातों इसके नीचे भूखे पेट सोया हूँ। अपने जीते जी इसे कुछ न होने दूँगा।
"ना जाने इन नामुरादों को क्या हो गया, कितना समझाया कि इसे न काटो, तुम्हारे बाबूजी की आत्मा को शांति नहीं मिलेगी, पर ये तो जैसे उनके जाने का ही इन्तजार कर रहे थे... कहने लगे कि इससे फायदा ही क्या है, बेकार में इसकी जड़ें घर को नुकसान पहुँचा सकती हैं और फिर आजकल कौन बैठता है पेड़ के नीचे... बेकार ही लोगों का जमवाड़ा लगा रहता है, बच्चे दिन भर उछल कूद करते रहते हैं।"
रजनी मन ही मन माँ की पीड़ा को भांप गई थी। घर के बंटवारे के बारे में उसे पहले से पता लग गया था, बाबूजी के बाद अब वो बरगद की छाँव भी नहीं रही। वट वृक्ष समान बाबूजी जो अभी तक सभी शाखाओं को सँभाले हुए थे, उनके जाते ही टूट कर बिखर गईं। छत्रछाया के नाम पर अब बचा ही क्या था । एक यही ग़म अम्मा जी को भीतर तक खाए जा रहा था। अब पहले सा कुछ नहीं था, सब कुछ बदल चुका था।
