Shivtanya Raghav

Horror Crime Thriller

4.5  

Shivtanya Raghav

Horror Crime Thriller

चौकीदार

चौकीदार

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304


किसी का फ़ोन गुस्से में काटकर निधि ने मेज़ पर पटक दिया। उसके भावों से स्पष्ट जान पड़ता था कि इस व्यक्ति का फ़ोन निधि को इतना परेशान कर चुका था कि अब निधि को फर्क पड़ना बंद हो गया था। वह पुलिस में शिकायत लिखवा चुकी थी, अपना नंबर भी कई बार बदल चुकी थी, सड़क पर सदैव सतर्क रहती थी। इससे ज़्यादा करने को और रह ही क्या गया था। 

शुरुआत में वह बहुत परेशान रही थी जब हर अजनबी चेहरे में वह उस राक्षस को ढूंढ़ने का प्रयास करती थी। पर समय के साथ वो आदत भी खत्म तो नही, पर कुछ कम ज़रूर हो गयी। 

उस दिन पूर्णिमा की रात थी फिर भी चाँद कहीं दिखाई नहीं दे रहा था। ना जाने कहाँ से काले बादलों ने आकर उसे घेर लिया था। कुछ पलों के लिए किसी छोटी सी दरार से चाँद की रौशनी निकल भागती तो ही पता चलता कि, अगर ये बादल न होते तो काफी उजाला होता। निधि आपने कमरे की खिड़की से आसमान में देखते हुए यही सब सोच रही थी। विश्विद्यालय का काम करते - करते बीच में फ़ोन आ जाने के कारण स्वतः ही उसका मन उछट गया था और इधर -उधर भागने लगा था। 

उसके घर के सामने वाली सड़क बिलकुल सुनसान पड़ी थी,कोई और दिन होता तो अभी भी वाहनों का आना जाना लगा रहता पर लॉक -डाउन के कारण अब विरलय ही कोई वहाँ से गुज़रता दिखाई पड़ता। हाँ, पर गायों का जमावड़ा अब रोज़ सड़क पर निश्चित समय पर आ बैठता था। न जाने उनके पास कौन सी घडी थी ? कुत्ते भी इत्मीनान से या तो सड़क पर या सड़क के किनारे पसरे पड़े थे, जब कोई वाहन आता ही नहीं तो अब वो किसके पीछे भागें। कोई व्यक्ति भी दिखे तो उसपर भौकें, उसका पीछा कर आपने मोहल्ले से बाहर खदेड़कर आएँ , पर अब उनके लिए कोई काम नही था। अधिक से अधिक बस इतना ही होता था कि अगर कोई दूसरे मोहल्ले का कुत्ता आ जाये तो ये उसके पीछे हाथ धोकर पड़ जाते थे। 

एक लम्बी सांस लेकर निधि ने अपनी मास पेशियों को थोड़ा आराम दिया और वापस अपने काम में लग गयी। कुछ समय पश्चात दूर से कुत्तों के भौकने की आवाज़ें आने लगी। जो कुत्ते अब तक सड़क किनारे पड़े थे, झट से उठ खड़े हो गए। बड़े ध्यान से उन्होंने आवाज़ें सुनी और बुरी तरह भौकना शुरू कर दिया। आसपास से भी भौकने की आवाज़ें आने लगी, कुछ ही देर में शोर सा मच गया। जिसकी वजह से निधि का धयान भी लगातार टूट रहा था, काम में बार - बार गलतियां हो रही थी और इसलिए अब उसे गुस्सा आने लगा था। उसने अपनी कलम किताब पर पटक दी और खिड़की से बाहर देखने की कोशिश करने लगी कि आखिर बात क्या है। पर लैंप पोस्ट के भरपूर उजाले में भी उसे दूर - दूर तक कोई दिखाई नही दिया । 

" अरे --अब बस भी करो " फुसफुसाते हुए निधि ने आपने सर पकड़ लिया। 

शोर लगातार बढ़ता जा रहा था, जिसके चलते अब उसे आपने कानो में ऊँगली ठूसनी पड़ी। इतने में ऐसी आवाज़ आयी जैसे किसी ने लोहे के खम्बे में ज़ोर से डंडा मारा हो, निधि ने अपनी ऊँगली कानों से बाहर निकली तो उसे अभी भी गूंज सुनाई दे रही थी। कुछ ही क्षणों बाद एक ज़ोर की सिटी की आवाज़ वातावरण को भेद गयी, यह आवाज़ कुछ अजीब थी एकदम कर्कश, कानों को जैसे किसी ने चीर डाला हो। 

खैर, अब तक निधि समझ चुकी थी कि इस चौकीदार की वजह से ही इतना शोरगुल हो रहा था और जब तक वो यहाँ से दूर नहीं निकल जाता तब तक शांति नहीं होने वाली। निधि अब चौकीदार के दूर निकल जाने का इंतज़ार करने लगी। डंडा कभी धातु पे पटककर, कभी सड़क पर रगड़कर - पटककर, लगातार सीटी की कर्कश आवाज़ के साथ चौकीदार निकट आ रहा था। पर न जाने क्यों जैसे - जैसे ये आवाज़ें पास आती जा रही थी निधि की धड़कन भी तेज़ होती जा रही थी।

क्यूँकि पास आने के साथ साथ डंडे का पटकना तेज़ भी होता जा रहा था, सीटी शब्दों का जैसे विकृत रूप निकल रही थी। अगर ये शब्द होते तो ज़रूर खून सूखा देते। 

"क्या बकवास है " आपने माथे के पसीने का पोंछकर, उसे देखते हुए निधि खुद पर हँस रही थी। 

निधि उस चौकीदार के आगे निकल जाने का इंतज़ार कर रही थी। परंतु यह क्या, वो तो उसके घर के ठीक सामने सड़क पार दूसरे घर के चबूतरे पर ही बैठ गया। पर क्यों ?

"क्यों तुम कुछ दूर जाकर नहीं बैठ गए महाशय ? " निधि मन ही मन उसे कोस रही थी। 

उसे जो शोरगुल शांत हो जाने की उम्मीद थी वो धराशाही हो चुकी थी। पर मन में कोतुहल भी जगा की यह व्यक्ति यहाँ क्यों जमकर बैठ गया, इसलिए निधि खिड़की से बहार झाँकने लगी। और वह यह देखकर दांग रह गयी की वो व्यक्ति एकटक उसकी खिड़की की तरफ ही घूरे जा रहा था। 

निधि के हाथ - पैर ठन्डे पड़ गए, वह झट से पीछे हैट गयी और तुरंत खिड़की पर पर्दा डाल दिया ।

"कमीना----" निधि क्रोध से फुफकारी। 

कुछ घूँट पानी पीकर वह आपने क्रोध को शांत करने का प्रयास कर ही रही थी कि तभी यकायक बिजली चली गयी। 

"पर बाहर लैंप - पोस्ट पर तो शायद अभी भी बिजली आ रही है ?" पर्दे से कमरे में छनकर आती रौशनी को देखकर उसने मन में सोचा। 

फिर कुछ संकोच करते हुए वह खिड़की की ओर खिसकी और एक कोने से पर्दा उठाकर बहार देखा। वह व्यक्ति चला गया था, निधि ने चैन की साँस ली। तत्पश्चात, एक दृष्टि सरे बिजली के खम्बों पर दौड़ाई सभी प्रकाश से जगमगा रहे थे। 

"मतलब बिजली केवल हमारे ही घर की गयी है। आज का दिन ही ख़राब है। " निधि खीजते हुए फुसफुसाई। 

उसने अपने मोबाइल की बत्ती जलाकर दराज से मोमबत्ती और माचिस निकली। जैसे ही उसने माचिस जलाई उसे आपनी गर्दन पर किसी की साँसों की अनुभूति हुई। भय और अविश्वास के मारे उसका शरीर पत्थर के सामान निर्जीव सा हो गया। 

"क्या सच में--- कोई मेरे पीछे है ?" उसका दिमाग शायद बिजली से भी तेज़ रफ़्तार से एक क्षण में लगभग लाखों बार यह प्रश्न पूछ चुका था। 

शंशय तब समाप्त हो गया जब एक हाथ ने उसका चेहरा ठोड़ी से पकड़कर ऊपर किया और उसका मस्तक बहुत भद्दे ढंग से चूम लिया। फिर एक डंडा उसकी मेज़ में जड़कर, ज़ोर से उसी सीटी से की चित्कार लगाई जो अभी कुछ समय पहले निधि ने सड़क पर सुनी थी। 

"चौ----चौकीदार ?" यह विचार निधि के मस्तिष्क में कौंधते ही उसका सारा खून पानी हो गया, और भय से आँखें फ़ैल गयीं। 

( कहानी अगले भाग में जारी रहेगी )


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