चौकीदार - परिचय, भाग -2
चौकीदार - परिचय, भाग -2
१० दिनों पहले
"ये लड़का कौन है ? इस बस्ती का तो नहीं लगता । " सरला ने इमली से सवाल किया
"इसमें कोई शक नही , कपड़े देखने से ही इतने महंगे मालूम हो रहे हैं।" इमली ने समर्थन किया।
" मेरा अंदाज़ा है कि हम दोनों की एक महीने की पगार मिलकर भी इनके बराबर नहीं बैठेगी। तुम्हारा क्या कहना है ? "
"सौ टका वही , जो तुम्हारा अंदाज़ा है। "
"मुझे तो जलन हो रही है। "
"जलन से क्या होगा ये सब तो भाग्य का खेल है सरला। "
एक गोर चिट्टे रंग वाले गठीले नवयुवक को देखकर सरला और इमली मुस्कुराते हुए बड़े विस्मय से बात कर रहें थी। अभी सूर्य निकलने में कुछ समय बाकी था और दोनों अपने घर के बहार झाड़ू लगते हुए इस गली में आये नए और एकदम भिन्न व्यक्ति के बारे में एक दूसरे से अठकलें लगा रही थीं।
वह थोड़ा और पास आया तो सरला और इमली का विस्मय बढ़ गया। अब उनका ध्यान उस व्यक्ति से हटकर उन वस्तुओं पर जा रुका जो किसी अन्य गृह की सी जान पड़ती थीं। यह कैसी घडी है जो उसका शीशा छूने से भी मोबाइल फ़ोन की तरह चलती है ? और बिना कान पर फोन लगाए यह व्यक्ति किसी से बात कैसे कर रहा है ?
आधुनिकता का यह नया स्वरुप उन दोनों के लिए बहुत आश्चर्य की बात थी। अगर उन्हें आपने घर में सबसे आदुनिक वास्तु खोजनी होती तो वह प्राय मोबाइल फ़ोन या टेलीविजन ही होता। और अब इस दूसरी दुनिया के प्राणी को देखकर उन दोनों के मन में यह प्रश्न कोलाहल कर रहा था की वो आज के ज़माने से कितना पीछे हैं ?
खैर , उनकी इस उधेड़ - बून के बीच वह लड़का दोनों हाथों में सामान लिए , धीरे - धीरे दौड़ लगता हुआ आगे की ओर बढ़ गया। दोनों आश्चर्य से देखते हुए अपनी झाड़ू हाथ में लिए खरंजे पर कुछ कदम आगे बढ़कर उसे देखती रहीं। कुछ आगे जाकर वह लड़का एक घर के सामने रुक गया और पीछे मुड़कर उस घर की ओर इशारा करते हुए किसी से सवाल किया --
यही घर है न काका ?"
सरला और इमली की गर्दन बिजली की सी तीव्र गति से स्वयं ही उस दिशा में मुड़ गयी। देखा , तो पीछे गिरिधर काका धीरे - धीरे चले हुए उसी ओर चले आ रहे थे। इस बस्ती में उनसे बड़ा दुःख या दुर्भाग्य जो भी कह लो किसी ने नहीं देखा था। पत्नी बहुत पहले ही चल बसी थी , एक बेटा था जो शहर में अच्छी नौकरी करता था।
परन्तु कुछ समय पहले उसे भी दुर्भाग्य ने आपने पंजों में जकड़ लिया और वह एक वीभत्स सड़क दुर्घटना का शिकार हो गया। रीढ़ की हड्डी में गंभीर चोट लगने के कारण वो अब चल - फिर नही सकता था। जब से वह घर और अपनी बस्ती में वापस आया था किसी से बात भी नहीं करता था। इसी के परिणामस्वरूप लोगों का अनुमान था कि वह उस दुर्घटना में वह शायद शायद अपनी आवाज़ भी खो बैठा था।
कुछ भी हो यह तो सत्य था कि बस्ती में रहने वालों तक ने सिर्फ उसकी झलक भर ही देखी थी। परन्तु कुछेक लोग जो उसे बहुत पहले से जानते थे बताते हैं की वह बहुत होनहार था। बारह वर्ष की आयु में ही उसने घर छोड़ दिया था , कुछ वर्षों पश्चात ही उसके पास शहर में एक अच्छी नौकरी थी। वह बहुत बढ़िया कमा रहा था। दुर्घटना के बाद ही उसे वापस बस्ती लौट आना पड़ा । अगर उसके साथ यह हादसा न हुआ होता तो आज वो यहाँ इस बस्ती में नहीं सड़ रहा होता बल्कि किसी बहुत बढ़िया स्थान पर कार्यरत होता।
गिरिधर अगर किसी कारण से जी रहा था तो वो सिर्फ उसका बेटा था। उसे उम्मीद थी कि एक दिन वह उसका इलाज ज़रूर करवा पायेगा।
सामने से आती हुई उस आकृति के हाथ में डंडा और गले में सीटी पड़ी थी। जो उन्हें न जानने वालों को भी यह तुरंत बता देती थी कि वो चौकीदार हैं। और चेहरे की गर्वित कांति यह स्पष्ट बता देती थी कि उन्होंने जीवनभर आपने काम को पूरी निष्ठा के साथ किया है।
"हाँ वही है बेटा !" गिरिधर ने उस युवक को गदगद ह्रदय से उत्तर दिया।
"राम राम ताऊ !" सरला और इमली ने एक स्वर में मुस्कुराते हुए गिरिधर से कहा।
"राम राम बेटा --- और सब बढ़िया?" गिरिधर ने मुस्कारते हुसे उत्तर दिया।
"जी।"
चलो, बढ़िया है --खुश रहो !" आपने हाथ आशीर्वाद की मुद्रा में हवा में उठाते हुए वो आगे निकल गये।
सरला और इमली ने कुछ क्षण रूककर उन दोनों को कोतुहल से देखा तत्पश्चात वापस आपने काम में लग गयीं। अब उन्हें पता था उनकी जिज्ञासा का निवारण कैसे होगा। कभी भी निकलते बड़ते गिरिधर काका से उस लड़के के बारे में पूछ लेंगी और उनके प्रश्नो का निराकरण हो जायेगा। यह तस्सली पाकर उनके मन का तूफ़ान शांत हो गया।
उधर गिरिधर भी अब तक आपने घर की मुंढेर पर आ पहुंचा। लड़के ने अपना फ़ोन बंद कर अपनी जेब में रख लिया। गिरिधर ने उसकी ओर मुस्कराते हुए देखा और फिर आपने घर की फाटक में हल्का सा धक्का मरकर उसे खोल दिया।
"अंदर आओ बेटा ! -- बस बस -इन्हे यहीं रख दो। "
"जी।"
"अरे ! मैंने तुम्हारा नाम तो पूछा ही नही। क्या नाम है तुम्हारा ? "
इतने में गिरिधर का बेटा वहाँ अपनी व्हीलचेयर पर आ पहुँचा। यह अजीब था क्यूंकि आज तक गिरिधर ने उसे किसी बाहर वाले के सामने स्वयं जाते नहीं देखा था। किसी बाहरवाले के सामने तो छोड़िए वो किसी रिश्तेदार से भी नहीं मिलता था। कोई घर पर आ भी जाये तो स्वयं को कमरे में तब तक बंद कर लेता था जब तक वह चला न जाये।
"ये मेरा बेटा है - राहुल। "
"हे ब्रो ! --मयंक।" वो मुस्कुराते हुए राहुल की और आपने हाथ बढ़ता है।
राहुल कोई उत्तर नहीं देता और आपने कमरे की तरफ मुड़कर जाने लगता है। राहुल का यह अपेक्षित व्यवहार देखकर गिरिधर को मयंक के लिए बुरा लगता है। लेकिन उस भरी भरकम वातावरण को कुछ हल्का करने के लिया मयंक चहकते हुए गिरिधर से कहता है।
"बहुत ज़ोरों की प्यास लगी है काका , एक गिलास पानी मिल जाये तो मज़ा आ जाये। "
"तुम बैठो , मैं अभी लता हूँ। "
"अरे नहीं नहीं आप बता दीजिये मैं खुद ले लूंगा। "
"अरे अब बैठो भी। "
इतना कहकर गिरिधर रसोई की और चला जाता है। मयंक जिस राहुल अभी थोड़ी देर पहले गया था उस ओर बड़ी तीव्रता से चल पड़ता है। वह राहुल के कमरे की चौखट पर खड़ा होकर देखता है राहुल अपने फ़ोन में लगा है।
वह चिकित्सा से सम्बंधित कोई विडिओ देख रहा था। यह समझाना कोई मुश्किल काम नहीं था कि वह निश्चित रूप से अपना उपचार खोजने का प्रयास कर रहा था। भले ही उसने किसी के सामने रो - रोकर अपना दुःख व्यक्त न किया हो पर सत्य तो यह था की उसे अपनी दयनीय स्थिति से पीड़ा तो होती ही थी , जैसे किसी भी मनुष्य को होगी। उसकी वेदना ने उसे चिड़चिड़ा बनाने के स्थान पर अत्यंत शांत बना दिया था , इसलिए उसकी वेदना का अनुमान लगाना ज़्यादातर लोगों के लिए असंभव ही था।
"यहाँ आकर मै तो निराश ही होने लगा था , पर मेरे हाथ तो हीरा लग गया। (कुछ रूककर ) हम दोनों एक दूसरे के काम आ सकते हैं , अगर तुम चाहो तो --- (गहरी साँस छोड़कर ) यहाँ में उम्मीद कर रहा था कि तुम पूछोगे , कैसे ? " मयंक ने बात शुरू की।
राहुल ने कोई उत्तर नहीं दिया। वह आपने फ़ोन में ही लगा रहा।
मयंक मुस्कुराया और राहुल की ओर बढ़ने लग , उसकी मेज़ के पास पहुंचकर वह ठहर गया।राहुल ने अपना फ़ोन झट से बंद कर दिया और प्रश्न भरी आँखों से उसे देखा। मयंक ने टेबल पर पड़ी कलम उठा ली और राहुल से अपना हाथ आगे बढ़ने का इशारा किया। पहले तो राहुल कुछ झिझका पर फिर धीरे - धीरे अपना हाथ मयंक की ओर बढ़ा दिया। मयंक ने उसकी हथेली पर एक फ़ोन नंबर लिख दिया।
"मुझे यकीन है तुम अपनी बात यहाँ ज़रूर बोलोगे। " मयंक ने हलकी सी मुस्कराहट के साथ अपनी बात खत्म की।
अपनी बात समाप्त कर वह मुड़ा और कमरे से बाहर चला गया। जाते जाते उसने राहुल पर एक दृष्टि डाली वह बहुत तीव्र दृष्टि से अपनी हथेली को घूरे जा रहा था। मयंक समझ गया कि राहुल का मन डोलने लगा है और यह उसके लिए अच्छा संकेत है। वह तेज़ी से घर के बाहर चला गया।
गिरिधर पानी लेकर लौटा तो उसे मयंक कहीं नहीं मिला। उसने उलझन में यहाँ - वहाँ तलाश की पर मयंक गायब था।
"शायद कोई ज़रूरी काम आ गया होगा। " गिरिधर ने आपने मन में सोचा और वापस आपने काम में लग गया।
दूसरी ओर मयंक अभी उस बस्ती के बाहर भी नहीं पहुँचा था कि उसे किसी अनजान व्यक्ति का फ़ोन आ गया। मयंक ने जीत की सी मुस्कराहट के साथ फ़ोन उठाया।
"ओह ! तो ऐसी है तुम्हारी आवाज़। अब जाकर हमारा परिचय पूरा हुआ ---तो , काम की बात शुरू करें ?"
कहानी जारी रहेगी अगले भाग में .........
