Meeta Joshi

Tragedy Inspirational

4.8  

Meeta Joshi

Tragedy Inspirational

चाहत

चाहत

10 mins
227


"क, की, कु, छ, घ से नाम निकला है जोशी जी। आओ आकर पोती के कान में उसका नाम सुना दो। "

शंख को पीले कपड़े में लपेट, पंडित जी ने जोशी जी के हाथ में दे दिया। उन्होंने उसे पकड़ धीरे से कान के पास जा पुकारा "मेरी प्यारी कृष्णकली। "

दादा जी के मुंह से कृष्णकली सुनते ही ग्यारह दिन की बच्ची ने तुरंत आँखें फरका दी। ईजा (माँ) ने तभी सोच लिया था सांवली-सलोनी बिटिया का नाम 'कृष्णकली' ही होगा।

भाग्यहीन थी बिचारी। पैदा होने के दो महीने पहले ही पिता चल बसे। कोई मनुहार करने वाला न था। दादाजी ने ही माँ को सहारा दिया। उसकी हिम्मत बने। बेटी पैदा होने पर उन्हें तनिक भी दुख नहीं था। लड़का-लड़की में भेद करने जैसी कोई भावना उस प्रांत के लोगों के दिलों में है ही नहीं।

कृष्णकली जल्दी ही किशनुली बन गई। चंचल इतनी थी कि चलना सीखा तो जमीन पर नहीं टिकती। सारे घर में फुदकती रहती। जोशी जी उसमें अपने बेटे का बचपन जीते थे। घर खर्च छोटा बेटा ही चलाता। बहुत अधिक नहीं था पर घर में किसी चीज़ का अभाव भी न था।

जल्द ही देवर की शादी हो गई। किशनुली की ईजा अब किसी पर बोझ नहीं बनना चाहती थी। उसने किसी और के खेत में काम करने का निश्चय किया। देवर बहुत गुस्सा हुआ, "उच्च कुल की हो, किसी के खेत में काम करोगी तो हमारी क्या इज्जत रह जाएगी। "किंतु जोशी जी बहुत समझदार इंसान थे। उनकी पूरी सहानुभूति किशनुली की ईजा के साथ रहती। वो उसे छोटी-बहू के आगे दबते नहीं देखना चाहते थे। लोक-लाज सब एक तरफ रख बोले, "काम कोई छोटा या बड़ा नहीं होता। उसके पीछे का मकसद बड़ा होता है। " उन्होंने बहु को काम के लिए हाँ कर दी। किशनुली की ईजा(माँ) किसी और के खेत में काम पर जाने लगी। कमाई कर अपने पैसे घर खर्च में लगा स्वाभिमान से जीती।

छोटी सी, दुबली-पतली काया वाली, सांवले रंग की किशनुली सारे दिन चिड़-चिड़ करते रहती। बस यही काम था उसका। नाम की भी सुंदरता नहीं थी उस बच्ची में, तब भी एक आकर्षण था जो किसी को भी मोह में बांध लेता। अपनी ईजा के साथ खेत-खलिहान में जा खुले आसमान के नीचे उसका मदमस्त बचपन बीत रहा था। खिलौनों की जगह दातुल, कुटल, फावड़ा, दराती, हसिया(खेती में काम आने वाले पहाड़ी उपकरण)ने ले ली। छोटी सी किशनु जिद्द करती तो ईजा घास काट डलिया में डालने को समझाती। बचपना था, जब तक मन लगता वो नित-नए काम के जरिए समय बिता लेती। उन्हीं खेत-खलिहानों के बीच बड़ी होती गई। उसकी ईजा शांत और शालीन स्वभाव की थी। जबसे देवरानी आई है उसकी घर में, महज़ एक नौकरानी जितनी हैसियत रह गई थी।

जिस सेठ के खेत में काम करती हर पंद्रह दिन से अपना मेहनताना लेने उसके घर जाती। सेठानी ही हिसाब किया करती क्योंकि पति शहर में कमाने निकले हुए थे।

सेठानी बच्ची को बड़ा प्यार करती। किशनुली उसके आते ही शरमाकर, ईजा का पल्लू पकड़ उसके पीछे छुप जाती। उसे छुपा देख बड़े प्यार से सेठानी कहती, "अरे कहाँ गई! किशनु, आज क्या लेगी। "और उस दो मिनट में किशनु सारे नखरे दिखा डालती। शरमाती, नजर बचाती, मनुहार करवाती। एक वही तो थीं जो उससे पास आने को मनुहार करतीं।

सेठानी के पास पैसों की कोई कमी न थी, बस भगवान ने संतान सुख नहीं लिखा था। शादी के नौ-बरस बीत चुके थे पर संतानहीन थीं।

धीरे-धीरे किशनुली बड़ी होने लगी अब वो अपनी ईजा से पहले भाग हवेली में जा सेठानी को आवाज़ लगाती, "ताई हम आ गए। आज मुझे क्या दोगी?"

आज जब ताई नीचे उतर के आई तो उनकी सुंदरता देखते बनती थी। नाक में बड़ी सी नथ जो की कुमाऊँ प्रांत की संपन्नता की प्रतीक है, अन्य गहनों के साथ वो भी पहनी हुई थी, जिससे उनकी सुंदरता-संपन्नता निखर कर बाहर आ रही थी। जब वो आई तो बोलीं, "अरे किशनुली आ गई आज क्या चाहिए तुझे?"

 मासूम बचपन ने तुरंत नथ की तरफ हाथ बढ़ा दिया। सेठानी और माँ उसकी इस मासूम हरकत पर हँस दिए पर किशनुली, वह तो आज पहली बार हठ कर बैठी। बहुत समझाया गया पर अड़ी रही। सेठानी उसे कुछ न कुछ जरूर देती। आज जो चीज़ सेठानी ने उसे दी वह भी काबिले तारीफ थी। उसके आगे स्लेट व बरता करते हुए बोली, "इसमें लिखाई- पढ़ाई करेगी हमारी किशनु। अब कल से ईजा के साथ खेत मत जाना। "

किशनुली की ईजा रो पड़ी, "ऐसे इसके भाग कहाँ। यही सब किस्मत में होता तो भगवान पिता का साया ही न छीनता। " सेठानी ने उसका हाथ पकड़ वादा किया, "अब तू जब भी खेत जाएगी, किशनुली मेरे पास पढ़ने आया करेगी। आज से इसकी पढ़ाई की जिम्मेदारी मेरी।

"अब किशनु रोज सेठानी के पास जाने लगी। माँ ने देखा वो जबसे सेठानी से मिली है बड़ी खुश रहती है। बड़ी हवेली में जा बड़ी-बड़ी बातें करने लगी है।

आठ साल की हुई तो एक दिन अड़ गई, "ईजा मेरी भी नाक छिदा दो। "दादा ने उसकी यह हठ जल्द ही पूरी कर दी। नाक छिदवा बहुत खुश थी।

मांँ देखती वो तिनका ले, उसे गोल-रिंग बना, लोंग में फंसा लेती और ईजा से कहती, "ईजा देख कैसी है किशनुली की नथ!लग रही हूँ ना बिल्कुल सेठानी जैसी। "अपनी कल्पनाओं के चित्र में जब अपनी ईजा की फोटो बनाती तो वो हमेशा बड़ी नथ के साथ ही होती। अक्सर अपनी ईजा से कहती, "जब तू खूब सारा पैसा कमा लेगी, तू मुझे नथ दिलाएगी ना ईजा, बड़ी सी, सेठानी जैसी। "

पढ़ाई में भी कुछ कम नहीं थी किशनुली। अच्छे नंबरों से मैट्रिक पास की अब कॉलेज में आ गई थी। सेठानी ने उसका पूरा सहयोग किया पर किस्मत को कुछ और ही मंजूर था। सेठानी का पति खेत बेचकर, पत्नी को ले शहर का रुख कर गया। किशनुली ने हिम्मत ना हारी। बच्चों को पढ़ा अपनी पढ़ाई का खर्चा निकाल लेती। दादाजी चल बसे। अब अपना कहने को बस माँ साथ थी। चाचा को कोई मतलब न था और रिश्तेदार कभी देखे ही नहीं थे, पहाड़ों में साधन कम और दूरी अधिक होने की वजह से किसी का मिलना जल्दी संभव नहीं होता।

अब कृष्णकली को एक नया शौक चढ़ा था शहर जाने का! पर कैसे! तो माँ से कहती, "जब रिश्ता देखेगी ना तो शहर का लड़का देखना। चाहे में बड़ी उम्र की हो जाऊँ शहर ही विदा करना। "अब उसने M.A. कर लिया। ( कुमाऊं क्षेत्र में स्त्री शिक्षा पर कभी कोई प्रतिबंध नहीं रहा है। हांँ साधन और व्यवस्था न होने के कारण लड़कियां प्राइवेट पढ़ाई करतीं पर लड़कियां पढ़ी-लिखी ही मिलती। )किशनुली की पढ़ाई के चर्चे पूरे गाँव में थे। किसी ने रिश्ता बताया शहर में मकान है। घर का सबसे छोटा बेटा है। संपन्न परिवार है। सब बेटे अलग-अलग हैं। गाँव की सुशील पढ़ी-लिखी लड़की चाहिए ताकि माँ-बाप की सेवा कर सके।

माँ के लिए इतना जानना ही काफी था। किशनुली ने देखा सास-ससुर का रहन-सहन अच्छा है, लड़का शहर में ही अपना बिजनेस करता है, उसने तुरंत हामी भर दी। देने को ईजा के पास कुछ नहीं था। बड़ी सी नथ का ख्वाब अधूरा ही रह गया। मामा की स्थिति भी मजबूत न थी। ईजा ने समझाया, "अच्छा परिवार है। तेरे भाग में नथ होगी तो वो लोग ही चढ़ा देंगे। ( कहते हैं जितना संपन्न परिवार उतनी वजनी और आकार में बड़ी नथ होती है । जब संपन्नता बढ़ती जाती है उसके साथ नथ का आकार और वजन भी बढ़ता चला जाता है। इसे वहाँ की महिलाएँ किसी विशेष पूजा या वार त्यौहार में पहनती है। )किशनु अपने अरमानों को मन में दबाए विदा हो गई। वहाँ जा समय बीतते-बीतते पता चला पति का किसी और के साथ संबंध है। तब तक किशनुली की बेटी हो चुकी थी। सास-ससुर ने इतना बड़ा धोखा देने के कारण बेटे को घर से निष्कासित कर दिया। हारी हुई किशनू ने ससुर को ढाँढस बंधा कहा, "पिताजी भाग्यशाली होती तो पिता का साया ही न होता। विधाता ने मेरे भाग्य में चाहे जो लिखा हो वो मैं सहर्ष स्वीकार करती हूँ, पर अपनी बेटी का भाग्य तय करने का अधिकार मैं किसी को नहीं दूँगी स्वयं भगवान को भी नहीं। मेरी बेटी का भाग्य मैं खुद लिखूँगी। बस आप अपना आशीर्वाद, साथ व विश्वास मुझ पर बनाए रखें। "इतने सालों में किशनुली ने कभी अपने भाग्य को दुहाई न दी।

ईजा से मिली तो ईजा के आँसू थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे। बच्ची को देख बोली, "यह बिचारी भी दूसरी किशनुली तैयार हो गई। "

किशनुली माँ की बात का विरोध करते हुए बोली, "ईजा तू पराश्रित थी। परिस्थितियां अलग-अलग हैं। अपनी सामर्थ्य के अनुसार तुमने जो किया बहुत था। मेरी बेटी का इसमें कोई दोष नहीं मैं इसका भाग्य इतनी आसानी से किसी को लिखने का हक नहीं दूंगी। "

ससुर जी ने भी उसका समर्थन कर कहा, "मैं तेरे साथ हूँ। अपनी बेटी के भविष्य का सोचो। अपनी अधूरी पढ़ाई वापस शुरू कर दो और एक दिन इतना नाम कमाओ कि मेरे बेटे को अपनी गलती पर शर्म महसूस हो। जब कभी भविष्य में माफी भी माँगे, तो भी उसे माफ न करना। "

किशनुली ने पढ़ाई शुरू कर दी। एम. ए किया, पीएचडी फिर लेक्चरर, प्रोफेसर और साथ ही साथ एक प्रसिद्ध लेखिका।

बेटी को उच्च शिक्षा प्राप्त करवाई और जब उसे अपने पैरों पर खड़ा कर दिया तो उसका विवाह उसी के साथ कार्यरत एक योग्य लड़के से तय किया।

बिटिया की शादी है। खरीदारी करने गई कृष्णकली ने सबसे पहले वह खरीदा जो कभी बचपन में उसका सपना हुआ करता था। जी हाँ, बड़ी सी नथ, वजन वाली। वह नथ जो कि आज उसकी मेहनत, उसके जज़्बे व उसकी हिम्मत की प्रतीक थी पर आज भी बिटिया के लिए। खुद के लिए तो वो आज भी ख्वाब था।

अपने बचपन के शौक को अपनी बिटिया पर लगा निहार रही थी, बिल्कुल वैसे-जैसे वो बचपन में गुड़िया को, तिनके की नथ से सजा निहारा करती थी। इतने में शीशे में किसी का जाना-पहचाना प्रतिबिंब दिखाई दिया। पलट कर देखा तो सफेद बालों में से झांकती मनमोहक छवि और उसे देख अनायास ही मुंह से निकल पड़ा, "सेठानी जी। "

सेठानी जी भी छोटी सी किशनुली को बड़े रूप में देख आश्चर्य कर गईं। रहन-सहन रुतबा सब देखते बनता था पर चेहरे का तेज और मासूमियत आज भी वही थी बस अपने सांवले रंग को करीने से ढकना सीख गई थी। दोनों एक दूसरे को देख बहुत खुश थीं।

सेठानी का पता ले कार्ड देने उनके घर पहुँची तो सेठानी ने एक गिफ्ट आगे कर कहा, "बहुत सालों से तुम्हारे लिए रखा था। पूरा विश्वास था एक दिन तुम जरूर मिलोगी। वहाँ से अचानक निकल आना हुआ। तुम्हारी माँ का कुछ पैसा भी मेरे पास पड़ा था वो तुम्हारे लिए जमा करवाया करती थी। मैंने उसमें कुछ पैसे मिलाकर तुम्हारे लिए कुछ खरीद रखा है। किशनुली ने देखा तो उसमें वही नथ थी, बड़ी सी, कितनी वजनी होगी! ना जानती थी और ना जानना चाहती थी। मुस्कुरा दी और बोली आपको मेरी पसंद आज भी याद है "नथ पहनाने वाला ही नहीं रहा सेठानी जी। अब सब चाहत खतम हो चुकी है। उसको तो नथ क्या मेरे चेहरे में कुछ भी अच्छा नहीं लगता था। शायद मेरे चेहरा ही नहीं। साल भर में मुझे छोड़ चला गया। "उसने सेठानी जी को सारा वाकया सुनाया।

उसकी किस्मत पर सेठानी को बड़ा तरस आ रहा था। निःशब्द सोचती रही कहते हैं, 'भगवान के घर देर है, अंधेर नहीं' पर यह सब क्या है।

हिम्मत कर सेठानी जी बोलीं, "तू मेरी बेटी है मैंने हमेशा तुझे अपना माना है। मुझे मातृत्व-सुख तुझसे मिला। जब अपनी बेटी के विवाह में बैठेगी तो ये नथ जरूर पहनना क्योंकि तुम्हें भी तो अरमान पूरे करते तुम्हारे अपने देखना चाहेंगे। आज अपने लिए नहीं मेरी खुशी के लिए तुम्हें ये पहननी होगी। "

ऐसा ही हुआ जब उसने नथ पहनी तो अपने बचपन के गहने को, अपने शौक को, उसकी चाहत को पूरा होते देख ईजा के आँसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे। कृष्णकली भी आज पहली दफा शीशे के आगे खड़ा हो खुद को निहार रही थी। बड़ी सी नथ पहने खुद को देख शायद पहली दफा इतना फूटकर रोई होगी।

यदि हम जज्बा रखें तो किस्मत में लिखा भी मिटा सकते हैं। जरूरत है कर्म करने की, मौजूदा हालात से लड़ने की और फिर से खड़ा होने की। किस्मत के आगे हार मानने वाले कभी तरक्की नहीं कर पाते। परिस्थितियों चाहे जो भी हों उनके आगे घुटने टेक देने से कभी समस्या का हल नहीं निकलता मजबूती से आगे बढ़ना ही जिंदगी है।


Rate this content
Log in

Similar hindi story from Tragedy