बुढ़ापा
बुढ़ापा
रामलाल जब भी सोने जाता अपने जिगरी दोस्त ‘दिमाग’ के छत पर हाथ फेरना न भूलता, दिल की सारी बातें उसे बताता।
“मित्र, मेरा ख्याल रखना, मुझे अपने से ज्यादा तुम पर भरोसा है।”
पर, आज कुछ अलग हुआ--रामलाल को सपने में ‘दिमाग’ ने टोका,
“तुम्हारी पत्नी पेट से है, बता... अपने होने वाले बच्चे के बारे में क्या सब सोचा है ?”
“हाँ मित्र .. मैं बेहद खुश हूँ। अपने होने वाले बच्चे को दुनिया की सारी ख़ुशियाँ दूँगा, उसके परवरिश में कोई कसर नहीं छोडूंगा। बड़ा आदमी बनाऊंगा...चाहे मुझे कितना भी कष्ट झेलना पड़े।”
“ रामलाल, मुझे तो तुम्हारे सोच में कुछ कमी लग रही है! अभी औ..र सोचो...।”
“अरे.. क्या.... ? अगर मेरी सोच में कुछ कमी है, तो... तू बता दे।”
“ तूने अभी तक केवल दिल से अपने संतान के बारे में सोचा है... कुछ दिमाग से भी सोच। संतान को पढ़ा-लिखाकर बड़ा आदमी बना देगा और उसकी शादी बढ़िया से कर देगा। फिर तो तेरी सारी जवाबदेही खत्म हो जाएगी ?”
“हाँ, वही तो मैं तुमसे कह रहा हूँ।” रामलाल ने तपाक से उत्तर दिया। “
देख, रात अधिक हो गई है, मैं भी थक गया हूँ। लेकिन , जाते-जाते एक बात कह देता हूँ, आनेवाले बुढ़ापे के बारे में भी तुम्हें सोचना है। श्रवण- पुत्र का जमाना लद गया। मित्र कलयुग है.. ! हाथ काटकर नहीं, हाथ बचाकर संतान को पालना। ताकि बुढ़ापे में अपने ही संतान के आगे...तुम को हाथ न फैलाना.... ”
“इतना सुनते ही... रामलाल की आँखें भक्क से खुल गई और वो बड़े प्यार से दिमाग को सहलाने लगा। ”