बुधना
बुधना


वो क्या करता है कि रोज सुबह छह बजे वाली लोकल ट्रेन पकड़ने के लिए गमछा में सतू मुढी बांध कर घर से निकलता है। और ढाई सौ तीन सौ रूपैया दिहारी पर शहर में दिन भर मजदूरी करता है।
और वहाँ से जब शाम को वापस घर चलता है तो इस्कीम बनाता है कि एक किलो चाऊर(चावल)लेंगे, 150 ग्राम दाल लेंगे, एक किलो आलू लेंगे एक पाव भिंडी लेंगे,और आधा किलो आटा। प्याज महँगा है उसे छोड़ देते है। मिर्ची और धनिया पत्ता फ्री में।
थोड़ा बहुत पैसा बचा तो फिर इस्कीम बनाया और दूगो अण्डा आ एगो देशी पाउच ले लिए। फिर पैसा बचा ही कहाँ स्कूल फीस और बच्चे के खिलौने के लिए।
एक तो महँगाई इतना कि दो वक्त का रोटी जुगाड़ करना मुश्किल हो रहा है। उपर से रोजगार की कमी। 30 दिन में बमुश्किल15 से 20 दिन ही काम मिल पाता है। शेष दिन खाली बैठना पड़ता है ।
पिछले ही महीने परब था। उसमें बाबाजी बोले की बिना पाठा बलि चढाये कल्याण नहीं होगा। सो एगो एक रंगा पाठा खरीदने में ही चार हजार लग गया। और पूजा पाठ के सामान में एक हजार और खरचा हुआ। बाबा और देवता के पीछे इस तरह पाँच हजार का बेमतलब का खरचा बढ गया। और सब के सब पाँच रुपैया सैकड़ा के हिसाब से महाजन से ब्याज पर लेना पड़ा।
एतना खरचा करने के बाद भी दु:ख है कि घटने का नाम नही लेता। अब क्या करे?
परब के चार ही दिन बिते थे । आज फिर नूनिया के माय बोल रही थी रात को उलूल जुलूल भूत-प्रेत वाला सपना आ रहा है। बुधना ने भी पास बैठ कर गौर किया। डरी डरी सी लग रही थी। हड़ताल प्रदर्शन के कारण शहर बंद का एलान कल ही सुना था । सो आज वो काम पर भी नहीं गया।
बगल वाली काकी को नूनिया माय के बारे में बताये तो वो बोली रामपुर में एक ओझा है उससे दिखा दो।
बगल में बैठी रमिया भौजी भी हाँ में हाँ मिलाते हुए बोली, कोनो दुई साल पहिले की बात है । उनके भी नैहर में बड़की भौजी के साथ ऐसा ही हुआ था तो ओही ओझा से दिखाये थे। अब ठीक है। सो हम तो कहेंगे एक बार वहाँ भी दिखबा लो रे बुधना।
मरता क्या नहीं करता। ब
ुधना नूनिया माय को लेकर रामपुर चले गये दिखाने। दाढ़ी वाला बाबा के वहाँ रोगी सभन का भीड़ देखकर मन चकरा गया। कोई तीन चार घंटा बाद बुधना का नंबर आया। बाबा क्या देखे पता नहीं ? सोचे थे झाड़- फूंक से ठीक हो जाएगा । परंतु दुख निवारण के लिए फिर वही बात । काला रंग का एक रंगा पाठा लो, गाँव के बाहर देवस्थान में बली दो। खुद खाओ या न खाओ पर बाबा और गाँव वालो को भंडारा खिलाओ। मतलब फिर चार पाँच हजार का चक्कर। बात कुछ हजम नहीं हुआ। बुधना वहाँ से मुँह लटकाए घर वापस आ गया।
काम का आभाव। हरेक महीने महाजन का ब्याज भुगतान का चिंता। स्कूल फीस। कपड़ा लत्ता। परब त्योहार। रोजाना चावल,आटा,नमक,तेल का फिकर,दवा-दारू।
कैसे करेंगे ये सब । कभी-कभी तो मन करता है........?
नहीं - नहीं !!! अनर्थ हो जायेगा। जब हम ही नहीं रहेंगे तो कौन परवरिश करेगा इन फुल जैसे छोटे - छोटे बच्चों का। कौन भरण पोषण करेगा नूनिया माय का। कहाँ जाएगी वो काम खोजने।
उधेर-बुन की समंदर में डुबते उगते मन को न मानते हुए फिर से समझाया। सोचे जो होगा देखा जायेगा ।
सोचे ओझा-गुणी को बहुत दिखाया एक बार डाक्टर से भी दिखवा लेते हैं।
भोरे सुत-उठकर तैयार हुए और चल गये डाक्टर के पास। वहाँ भी वही लफड़ा। पच्चीस तरह का टेस्ट। और अंत में निष्कर्ष निकला की नूनिया माय कुपोषण की शिकार है।
कुछ दिन सात्विक खाना और टाॅनीक पीने के बाद अब ठीक है।
आज एक तारीख़ है। बच्चों का स्कूल फीस देना है।बिजली बिल भरना है। शाम तक महाजन भी पैसा मांगने आएगा। घर में चावल नहीं है। छोटकी एक महीना से डिजाइन वाला फ्राॅक के लिए रट लगाये बैठी है,आदि-इत्यादि। सोचते हुए काम पर निकल गया बुधना। शहर के चौक पर काम की तलाश में खड़ा था। बगल में एक पुराना पेपर पड़ा था। टाइम पास के लिए उसे पढ़ने लगा। लिखा था :-
भरमे भूत जगत के माही
जे पूजे सेकरे खांही
देवा मांगे खीर पुड़ी
देवा मांगे झटका
अंत समय कोई काम न आया
सब देवता घसका।