बर्थ-मार्क
बर्थ-मार्क
"मम्मी जी आपने ही आशीर्वाद दिया था ना 'सदा सुहागन' चाची जी आपने भी मम्मा....आपने भी...क्यों चुप हैं आप सब !बताइए ना क्या हो गया ये!" रोती बिलखती आशा बेसुध हो गई।
सभी का उसको देख बुरा हाल था। सास-ससुर उसकी तकलीफ के आगे अपनी भूल चुके थे।
जिसने सुना उसे विश्वास ही नहीं हुआ। हर दूसरे को उससे हमदर्दी थी। चाहे पड़ोस हो रिश्तेदार या दूर-दराज का जानने वाला इस हृदय-विदारक घटना के आगे सब मौन थे।
दो महीने की बच्ची को संभालें या वसुधा को। कल तक जिस घर में मस्ती-मजाक की आवाजें थीं सब खत्म हो गईं। ताई ने बड़े प्यार से बच्ची को अपने आँचल की छाँव दी।
वसुधा से जो मिलने जाता बिना रोए वापिस न लौट पाता।
"आंटी जी आपने भी कहा था ना"तेरे माथे पर तो भगवान ने सदा-सुहागन का लाल टीका पैदायशी लगाया है। देखिए ना ये सब मेरी बिंदी हटा रहे हैं। मेरे प्रेम को कुछ नहीं हुआ है....। मैंने कल अपनी सास का कहा नहीं माना ना इसलिए सब ऐसा व्यवहार कर रहे हैं।"
वसुधा से मिलने गई आंटी मुँह में पल्ला दबाए बाहर आई।
"ये क्या हो गया प्रेम की मम्मा!कैसे जिएगी ये!बहुत दयनीय स्थिति है बिचारी की।"
जब से आई जेठानी से अनबन थी लेकिन प्रेम की असामयिक दुघर्टना और कल उसका अचानक काल का ग्रास बन जाना....पूरे घर को तोड़ कर रख दिया। इतनी कम उम्र में इतना बड़ा हादसा!आज जेठानी को वसुधा से बस सांत्वना थी। उसने उसकी दो महीने की बच्ची को माँ की ममता दी।वो उनके प्यार की छाँव तले बड़ी होने लगी। ताई को बड़ी-माँ और अपनी माँ को छोटी-माँ कहती।
वसुधा की हालत दिन-प्रतिदिन बिगड़ती जा रही थी। वो किसी को अपने पास न आने देती। कहते हैं माँ शब्द में एक अलग ही एहसास होता है। जहाँ सब बच्चे वसुधा के पास जाने से कतराते वहीं छोटी सी बिटिया जूही थम-थम कर नन्हे कदमों से वसुधा की गोद में बैठ अपनी फतह दिखाती और वसुधा....जो किसी को अपने पास फटकने भी न देती थी जूही को लाड़-लड़ाती।
जूही के माथे पर भी अपनी माँ जैसा बर्थ-मार्क था। जब जूही माँ के पास जाती वो अपने लाल-गोल बिंदीनुमा निशान से अपनी माँ के लगा देती और ताली बजाकर हँसती।
बच्चे बड़े होते गए वहीं वसुधा की हालत दिन-प्रतिदिन ज्यादा खराब होने लगी। किसी का कहा नहीं मानने वाली वसुधा को शांत करने के लिए जूही को भेजा जाता। धीरे-धीरे वो जोर-जोर से चिल्लाने लगी। कहीं शादी-विवाह या किसी मंगल धुन को सुनती तो आपा खोकर खुदको नुकसान पहुँचाने लगती। एक दिन अत्यधिक अवसाद में जूही को कस कर पकड़ लिया। बड़ी मुश्किल से उसकी गिरफ्त से छूटी। जूही रोते हुए कमरे में चल दी। बड़ी माँ उसके पास गईं तो देखा रगड़-रगड़ कर दोनों भौहों के बीच में लगे उस निशान को मिटाने में लगी थी।
"क्या कर रही हो ?क्या पागलपन है ये!"कह पहली दफा उस पर हाथ उठा दिया।
"माँ अब मैं कभी उनके पास नहीं जाऊँगी। डर लगता है मुझे उनसे। पागल है वो....क्यों भगवान ने मुझे उनका जैसा निशान दिया....नफरत करती हूँ मैं उनसे!"
"जानना चाहती है क्यों तुझे उसका जैसा निशान दिया!क्योंकि माँ है वो तेरी....तेरी अपनी माँ। दो महीने की थी जबसे मैंने तुझे पाला लेकिन उसकी ममता देख जो किसी को अपने पास नहीं आने देती और कैसे इतने अवसाद की स्थिति में भी तुम्हारे माथे के निशान को अपने माथे पर लगा तुमसे प्यार का इजहार करती हैं।"
उस दिन की घटना के बाद दो-एक दिन जूही बिल्कुल शांत थी। शायद अपनी माँ से बोले शब्दों के कारण खुद से ही घृणा हो रही थी या जिसे आज तक माँ समझती आई थी वो सगी माँ नहीं है सोचकर....।
दो दिन बाद जूही ने चुप-चाप जा वसुधा का दरवाजा खोला लेकिन वहाँ कोई नहीं था"बड़ी माँ....बड़ी माँ....!"
"क्या हुआ जूही क्यों घबरा रही हो!बड़ी माँ वो....कमरे....में....नहीं है।"
"कौन बेटा!क्या हुआ है!"
"वो 'मेरी माँ'।"
आज पहली बार छोटी माँ की जगह मेरी माँ शब्द सभी के दिल में अलग-अलग असर कर रहा था।
"वसुधा....!उस दिन तुम्हारी बात सुनने के बाद वो ज्यादा अवसाद में आ गई। डॉ. ने कहा कभी भी खुदको नुकसान पहुँचा सकती हैं इसलिए इन्हें एडमिट करना जरूरी है।"
समय बीतता गया। जूही बड़ी होने लगी। बिल्कुल माँ जैसी सुंदरता,सौम्यता और वही भौहों के बीच लाल बिंदी नुमा जन्म का निशान....।
जब शीशे के आगे खड़ी होती तो कहती"माँ चाहे लोग इस निशान से आपकी किस्मत का आकलन करने लगें हों। मेरे लिए तो ये निशान मेरी माँ का आशीर्वाद है। मुझे खुशी है मेरी माँ की पहचान हमेशा मेरे साथ रहेगी।"
बड़ी माँ ने आँसू छलकाते हुए उसके सिर पर हाथ फेरा "जानती हूँ माँ को बहुत याद करती हो। अपना भविष्य बनाओ उन दोनों की अंतरात्मा वैसे ही खुश हो जाएगी।"
आज बहुत समय बाद वसुधा शांत है। डॉ. ने मिलने आने को कहा है। जब जेठानी और सास सब मिलने गए तो सहम कर पीछे हट गई और अपने हाथों से मुँह को ढक लिया।
जूही पास जा माँ के पास बैठ गई"माँ" जूही को देख अनायास ही चेहरे का तनाव हटने लगा। माथे पर लगे उस लाल निशान को छूती और फिर एक तनाव में आ जाती।
"कैसी हो माँ?"जैसे ही जूही ने कहा उसके आंँखों के पोर लगातार गीले होने लगे।
"मैं जल्दी ही आपको लेकर जाऊंँगी माँ" तो मुस्कुरा दी।
दूर तक आँखों की टुकटुकी लगाए बेटी को जाते हुए देखती रही। बिटिया भी मुड़-मुड़ कर माँ को देख रही थी जैसे चाहती हो माँ आवाज़ लगाए और वो भाग कर उसकी गोद में छुप जाए।
जूही ने साइक्लोजिस्ट बनने का फैसला किया। वो अपनी माँ जैसी तमाम महिलाओं के दर्द को बाँटना चाहती थी। डॉ. सौरभ जिनके अंडर उसने अपने मुकाम को चरम सीमा तक पहुँचाया शुरू से उससे प्रभावित थे। बोले"क्या मेरे घर की बहू बनोगी?"
तो दो टूक शब्दों में जवाब दे गई"मुझे माफ़ कीजिएगा शायद मैं एक बहू के रूप में खरी न उतर पाऊँ। मेरी माँ मेरे जीवन का ध्येय है। मैं उनके लिए और उन जैसी महिलाओं के लिए कुछ करना चाहती हूंँ।"
डॉ. साहब मुस्कुरा कर बोले"मेरा बेटा फिर भी तुम्हारी मदद करना चाहे तो?"
मुस्कुरा दी।
बेटे आकाश से पहली मुलाकात यादगार रही।
दादी,बड़ी-माँ,बड़े-पापा के आशीर्वाद से विवाह संपन्न हो गया। अब बारी थी आकाश को अपना दिया वादा पूरा करने की।
"तैयार हो जूही माँ को लेने चलना है ना।"माँ को लेकर जब लौट रहे थे तो गाड़ी किसी और दिशा में मोड़ दी।
"ये कहाँ जा रहे हैं आकाश!"
गाड़ी तेजी से ले जाकर एक बहुमंजिला इमारत के बाहर खड़ी कर दी।
"वसुधा माँ को लेकर आओ।"
जूही ने देखा सभी घर वाले वहाँ पहले से उनका इंतजार कर रहे थे। नजर ऊपर की तो लिखा था 'वसुधा एक मानसिक अस्पताल-आशा की किरण'।
जीवन की गाड़ी चलने लगी। जूही माँ को पूरा समय देती। बच्चों जैसी फिक्र करती। आज बहुत समय बाद बड़ी माँ मिलने आई तो वसुधा हल्के रंग की साड़ी में थी।
"दीदी" कह गले लग रो पड़ी। उसके मासूम चेहरे को हाथ में ले जेठानी ने देखा तो हल्के रंग की उस साड़ी में भौहों के बीच में लगा वो लाल बचपन का निशान आज भी उसको सुंदरता में चार चांँद लगा रहा था। उसके लाल बिंदी नुमा तिल से उसकी सुंदरता उभर कर बाहर आ रही थी। सच कितना शुभ है ये लाल-निशान जिसने एक माँ की ममता को जीवित रखा और बेटी को माँ जैसा होने का आभास करवाया।
भगवान ने दुनियां में हर जना अलग बनाया है। अलग-अलग चेहरे,अलग आदतें और अलग पहचान। शरीर में नजर आए किसी भी निशान को गम्भीरता से लेकर उसके पीछे कोई नकारात्मक सोच न उभरने दें। जन्म का निशान तो हमारी पहचान है और किसी की पहचान गलत कैसे हो सकती हैं !
