बोलकर जाने की तो बनती है
बोलकर जाने की तो बनती है
रोमा सुबह से उठती थी, फिर वह चाय बनाने, नाश्ता बनाने से लेकर खाना बनाकर अपने कार्यालय जाने की तैयारी करती थी। साथ ही झाड़ू फुहारी, पोछा आंगन साफ करना इत्यादि काम भी निपटाती। उस समय कामवाली बाई इतनी आसानी से मिल नहीं पाती थी।
रोमा और सतीश की शादी हुए ज्यादा दिन हुए भी नहीं थे कि नयी-नवेली बहु का ससुराल में ज़िम्मेदारी के साथ काम करना शुरू हो गया। सतीश के माता-पिता व छोटा भाई साथ ही में रहते थे।
"नयी नवेली दुल्हन रोमा", उसके भी कुछ अरमान थे, जैसे सभी दुल्हनों के नयी ज़िंदगी शुरू करने के समय होते हैं। मां-बाबा के संस्कारों को साथ लेकर चलने की सीख के साथ अपनी मुहिम शुरू कर दी। एक छोटी बहन थी रोमा की, "फिर उसकी भी शादी करनी थी न "। हमारे घर के बड़े-बूढे सोचते भी नहीं है कि "नयी नवेली दुल्हन के भी कुछ सपने देखे होंगे "..... नवीन संसार की शुरुआत जो करनी होती है । यही स्थिति नये दुल्हे की भी होती है ।
सतीश की ड्यूटी सुबह ७ बजे से ४ बजे तक और रोमा की ९ बजे से ५.३० तक । नौकरी करने के कारण वैसे ही दोनों जगह की भूमिका निभा पाना बहुत मुश्किल होता था । वैसे तो दुल्हा और दुल्हन नौकरी पेशा होने के कारण इनको समयाभाव के कारण हर जगह भूमिका निभाना बहुत कठिन है। इसीलिए इनको विवाह बंधन में बंधने के बाद थोड़ा समय तो देना चाहिए न ? एक दूसरे को समझने का..... साथ में समय बिताने का।
लेकिन ये क्या ससुराल में आकर तो तस्वीर ही अलग देखने को मिली। रोमा की सासु मां का सुबह सुबह चिल्लाना शुरू हो जाता था, अरे बहु तूने ये काम नहीं किया, फलाना काम करने में इतनी देर लगती है। उसे समस्त कार्यों में सामंजस्य स्थापित करके ड्यूटी भी जाना है, यह भूल ही जाते हैं ।
फिर संस्कारों का सम्मान करने की कोशिश में बहु रोमा शांति से सहन कर रही थी, कि मेरी मां जैसी इनकी मां, मेरे पापा जैसे इनके पापा.....इन्हीं विचारों को व्यक्त करने का अवसर प्राप्त होना भी मुनासिब नहीं होता है.... हाय वो ऐसे कठिन पल ...
उधर सतीश भी घर का बड़ा बेटा होने के नाते समस्त ज़िम्मेदारियों को निभाते हुए रोमा के लिए भी सोचा करता। आखिर जीवन संगिनी जो ठहरी.... साथ निभाना साथिया ज़िंदगी भर का.....। इसी कोशिश में उसने आखिरकार कुल्लु मनाली जाने की योजना बना ही ली। उसकी इच्छा रोमा को सरप्राइज देने की थी, लेकिन माता-पिता इस बात से खुश नहीं होंगे, वह अच्छी तरह जानता था....बस इसी उधेड़बुन में लगा था ।
रोमा और सतीश की शादी हुए एक माह भी नहीं हुआ था कि बहु - बेटे के अरमानों के बारे में कुछ भी विचार नहीं करते हुए, अपनी अपेक्षाओं को थोपना कहां तक उचित है।
फिर दूसरे दिन रोमा यथानुसार अपने काम पूर्ण कर ही रही थी कि सतीश ड्यूटी जाने के लिए तैयार हो रहा था, तभी रोमा गरम- गरम चाय लेकर आई और बोली ये लिजीए पतिदेव ..... चाय हाज़िर है....लेकिन ये क्या.......सतीश हमेशा की ही तरह बोला, रख दें उधर.....बस फिर क्या, सतीश ने चाय पी और बाईक चालु करके जा ही रहा था कि रोमा अंदर से दौड़ कर आई और बोली अरे पतिदेव......एक नज़र इधर भी देखें.......प्यार को चाहिए क्या एक नज़र, एक नज़र.... अरे मैं मायके से सीखे संस्कारों के साथ अपनी भूमिका निभा रही हूं तो ड्यूटी जाते समय मुझसे बोलकर जाने की तो बनती है ना संय्याजी ?
सतीश अवाक सा होकर और दोबारा वापस आकर रोमा के चेहरे को एकटक निहारते हुए, " हां हां क्यों नही बनती रोमा ? मैं भी तो तुम्हें कुल्लु मनाली जाने की योजना का सरप्राइज गिफ्ट देना चाहता हूं, क्या ख्याल है ? कहां खो गई रोमा......मंज़ूर है ? हां सतीश, तुम्हारा सरप्राइज गिफ्ट सर आंखों पर।
जी हां इसलिए मेरे विचार से घर के बड़े-बुढों को चाहिए कि जब अपने बहु-बेटे या बेटी-दामाद के विवाह होने के बाद घर की जिम्मेदारियों और अपेक्षाओं पर खरे उतारने के पूर्व उन सभी लोगों को एक दूसरे को समझने का अवसर अवश्य ही प्रदान करें .....आखिरकार ज़िंदगी भर का साथ जो निभाना है.....।