बंद मुट्ठी की रेत
बंद मुट्ठी की रेत
सुख में सुखी और दुःख में दुःखी तो सभी प्राणी होते है परन्तु कभी कभी स्थितियां मनुष्य की मनः स्थिति पर ऐसा प्रभाव डालती है कि उसे स्वयं पता नहीं चल पाता कि उसे खुशी क्यों महसूस हो रही है या वह दुःख की गहरी गुफा में क्यों प्रवेश करता जारहा है। । डॉकडाउन की अजब परिस्थिति ने मनुष्य की मनः स्तिथि और स्वभाव को गंभीर रूप से प्रभावित किया।मनुष्य सामाजिक प्राणी है उसे गतिशीलता प्रिय है लौकडाउन ने इन दोनो प्रवृत्तियों पर बंधन लगा दिए । सुन्न पड़े दिमाग और जड़ पडे शरीर को स्फूर्ति दे ने के लिए 'दो महीने तक दो कमरे के घर में नजरबंद मैंने अन्ततः आज घर के बाहर टहलने का वादा स्वयं से किया।
रात के साढे दस बजे थे, मैंने मास्क लगाया और ठीक घर के बाहर टहलना प्रारम्भ किया।
एकाएक घुप्प शान्र वातावरण में दो स्रियों की खनकती धीमी आवाज मेरे कानों में पड़ी ' देखा दो स्रियाँ गली से निकल घर के सामने सडक पर जा रही थी।
एक ' कोई पचास पचपन की होगी, लाल धोती से सिर के उलझे वालों को ढके हाथों को मटकाते हुए बात कर रही थी '
दूसरी, सूटमें थीं उम्र कोई चालीस पैतालिस साधारण तरीके से बनाया गया जूड़ा माथे पर लाल गोल बिन्दी व गले में दुपटटा दोनो मास्क लगाए बाते करती सीधे निकल गयी ।
फिर तो अकसर वे रात में दिख जाती बड़ी कभी मास्क लगाती कभी नही ' धीरेधीरे खुसर फुसर करती ' चलते चलते पास आती और फिर अचानक से दूर हो कर चलने लगती। उनके चेहरे की मुस्कराहट बताती कि बड़ी मुश्किल से ' घर से समय चुरा कर वे बाहर आती थी कभी कभी जब मुझसे आंखे टकराती दोनो मुस्कराती फिर समवेत स्वर में धीमी आवाज़ में हंस पड़ती उनके हावभाव ' शरीर के अंग प्रत्यंग की गति बताती उनके दुखःसुख साक्षे थे ' उनकी निजी बाते भी निजी नही रह पाती थी वे घनिष्ठ मित्र थी।
सितम्बर बारह की सुबह सुबह पता लगा पीछे गली में कोई स्त्री करोना के कारण स्वर्ग सिधार गयी। पहले का समय होता तो पूरा मुहल्ला उमड़ता परन्तु इस करोना काल की ऐसी गत कि नाते रिश्तेदार पहुंच जाए, बड़ी बात ' कुछ पल का मौन सबने अपने - अपने घरों में रखा।
पूरे मुहल्ले में सिहरन फैल गयी ' रोज साईकिल दौड़ाने वाले बच्चे घर में पुनः बंद किए गए पाँचरु की चिप्स और कुरकुरे लेने वाले बच्चे भी दिखना वंद हो गए, यू लगा ज्यों मुहल्ला बांझ हो गया '
मैंने भी डर से निकलना पुनः छोड दिया लेकिन चार पांच दिन में पेट की गैस ने इतना परेशान किया कि मजबूरी में रात में टहलना शुरू कर दिया।
टहलते टहलते जब कभी गली की ओर नज़र जाती उन दोनो स्त्रियो की स्मृति साथ लाती वे न दिखती पर कोने मेँ मुँह छुकाए कुछ पेड़ उनका इंतजार करते प्रतीत होते।
कुछ हः सात दिन बाद वो दूसरी सूटवाली स्त्री आती दिखाई दी
आन्तरिक प्रेरणा से मैने पग कुछ जल्दी बढाए परन्तु पता नहीं क्यों मुझे अनदेखा कर वह आगे बढ़ गयी मैं कुछ गुस्से में वापस आकर टहलने लगी। मन बेचैन था इतने दिनो बाद वो भी अकेली कुछ चिन्ता हुयी, पता नहीं क्यों मैं उसका इंतजार करने लगी ' कुछ एक मिनट बाद ही वह आती दिखी मै हठात उसके सामने खड़ी हो गयी और मुस्कराते हुए पूछा इतने दिनों बाद ' ? उसने मुझे देखा मेरी आँखें उसकी आंखो से जुड़ी - - - उसकी औखों में न जाने कितने सागर उफन रहे थे बेबसी लाचारी व असहाय होने का जो भाव उभरा उसने मुझे भीतर तक भिगो दिया उसने थूक को दबा कर विना आवाज धीरे से निगला ज्यो कहा यही जीवन है ' वारह दिनों की अभ्यस्त लाल आंखों ने सागर की एक वूंद को भी बाहर निकलने की इजाजत नहीं दी, बिना कुछ बोले वह थोड़ी टेड़ी होकर आगे निकल गयी मुझे केवल उसकी पीठ दिख रही थीं मैने दर्द की लंबी सांस ऊपर खींची।
इस कोरोना काल में एक और बंद मुट्ठी की रेत सर्र से निकल गयी थी।
