sonal johari

Comedy Drama Romance

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sonal johari

Comedy Drama Romance

बिन्नी की विलेन मम्मी-पार्ट :1

बिन्नी की विलेन मम्मी-पार्ट :1

16 mins
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सन 2016, स्थान: आगरा समय: शाम के 6 से 7 के बीच का समय होगा,

कहते हैं अपनी जिस खूबी पर आप मन ही मन खुश हो रहे होते हैं...प्रकृति आपके उसी गुण की ऐसी परीक्षा लेगी... कि आपको खुद लगेगा ..ये किस बात की सज़ा और क्यों? ..लोग कहते जरूर हैं या तो ऐसी सिचुएशन से भाग जाइये या लड़िये...मगर हालात ऐसे बनते हैं कि लड़ना ही पड़ता है" .भागने का ऑप्शन बताना या सोचना फिजूल है....दूसरों के दुख को अपना दुख समझने की जिस आदत को मैं अच्छा मानती थी...उसके कारण इतने बड़े फसाद में फंस जाऊँगी...मैंने सपने में भी नहीं सोचा था...

मैं उन दिनों पोस्ट ग्रेजुएशन के एग्जाम दे रही थी...जैसा कि जगजाहिर है उत्तर प्रदेश में लाइट आती कम है... जाती ज्यादा है, 3 दिनों बाद मेरा एग्जाम था, और गर्मी में बिना लाइट के पढ़ाई करना बहुत कोशिशों के बाद भी सम्भव नहीं हो पा रहा था। साथ ही एग्जाम का प्रेशर बेचैन कर रहा था सो अलग।

"सारे बच्चे छत पर पढ़ते मिलेंगे इस समय, तुम भी छत पर क्यों नहीं पढ़ लेती.." मेरी माँ ने मुझे लाइट न होने के कारण झुंझलाते हुए देखकर कहा..

छत पर पढ़ना तो बहुत दूर की बात गई ...मुझे ये भी एहसास हो जाये कि कोई मुझे पढ़ते देख रहा है तो एक मिनट भी मेरा मन पढ़ने में नहीं लगेगा, भगवान की पूजा में ध्यान और पढ़ाई मैं ऐसे कभी नहीं कर पाती..

"होता क्या जा रहा है तुम्हें ...बात सुन कर अनसुनी कैसे कर देती हो"...उन्होंने फिर कहा..

"अरे नहीं ...जा रही हूँ..बस्स मॉडल पेपर नहीं दिख रहा था..." मैं उनके गुस्से से बचने के लिए झूठ बोली, और बिना एक पल और गवाएं मैंने इकोनॉमिक्स का मॉडल पेपर उठाया और छत पर चल दी..

"गुँजन को देखो...कितनी होशियार लड़की है....जब देखो पढ़ती हुई दिखेगी....कुछ सीखो उससे" मैंने छत पर जाने के लिए पहली सीढ़ी पर पैर रखा ही था, कि ये शब्द मेरे कानों में पड़े।

एक छत को छोड़कर अगली छत पर सच में गुँजन आँखों के सामने छोटी सी किताब रख कर टहलते हुए पढ़ रही थी...मोहल्ले की सारी लड़कियाँ उससे चिढ़ती थीं...गुँजन की इस आदत की वजह से उनपर डाँट जो पड़ती थी....

कुछ वक्त पहले की भी बात होती तो मैं गुँजन को ऐसे पढ़ते देखकर बहुत हँसती ...लेकिन उन्हीं दिनों मेरे घर पर सिन्हा आँटी और अंकल का आना अक्सर लगा रहता था..सिन्हा आँटी को कैंसर था जिसके ट्रीटमेंट के चलते उनके सिर के सारे बाल झड़ गए थे... मैंने इतने नजदीक से तब तक इस बीमारी का ऐसा भयंकर रूप नहीं देखा था...मेरे दिमाग पर इसका बहुत असर पड़ा था, किसी की भी अजीब हरकत या आदत देखकर मेरे मन में बस यही आता ना जाने कौन ...कैसे हालात से गुजर रहा हो ...

बेचैनी में मैंने छत पर चहलकदमी शुरू कर दी, इक्का-दुक्का बच्चे और भी पढ़ते नजर आए, "क्या यार तुम्हारे ही नखरे हैं, क्या ये बच्चे पास नहीं होते हैं ?...बहुत अच्छी ना सही....थोड़ी पढ़ाई तो होगी ही....कोशिश तो करो" ये बात मैंने खुद से ही कही और किताब खोल ली.

"हा हा छत पर बैठकर पढ़ाई...वाह इतनी ही पढ़ाकू होती तो टॉप ना करती ....आस पास के लोग सोच रहे होंगे कितनी होशियार है लड़की"

ये आवाज मेरे अंतर्मन से आयी....लोगों का अंर्तमन ज्यादातर उनके पक्ष में होता है ...मेरा अन्तर्मन मेरे ही खिलाफ रहता है ..वो भी हमेशा...झुंझलाते हुए मैंने किताब बन्द कर दी....

मुझसे नहीं होगा...

"हाइ सोना..." आवाज कानों में पड़ते ही मेरी नजर छत की ओर आती हुई सीढ़ियों पर गयी ...देखा तो विनीता चहकती हुई चली आ रही है....उसे देखकर मेरे चेहरे पर भी मुस्कान आ गयी ...

हम अपने फ्रेंड या किसी पसंदीदा इंसान को कब उस से जुड़ी चीजों से पहचानने लगतें हैं हमें खुद पता नहीं लगता..बिनीता के लंबे ईयरिंग्स और घुटनों से भी लंबे बाल मेरे लिए उसकी पहचान बन गए थे...हों भी क्यों ना....उससे पहले और उसके बाद आज तक मैंने अपने सर्कल में किसी के बाल इतने लंबे नहीं देखे...

उस दिन भी ऐसा लग रहा था जैसे उसने सफेद मोतियों की माला को बीच मे से तोड़कर, दोनों कानों में पहन लिया था...

'और उस दिन बालों का जूड़ा बनाया हुआ था...औसत आँखें और गोल नाक की शेप के नीचे पतले होंठ...मेरे पास आकर उसने अपना एक हाथ मेरे हाथ में रख दिया...ये उसकी अजीब आदत थी... जब वो मुझे पहली बार मिली तो उसने अपना हाथ मेरी ओर बढ़ाया ... जाहिर तौर पर ये हाथ मिलाने का तरीका है सो मैंने भी हाथ बढ़ा दिया....लेकिन ये क्या.. उसने अपना हाथ बस्स मेरे हाथ पर रख कर छोड़ दिया था...उस वक़्त ये कुछ अजीब सा ही था मेरे लिए...खैर मैंने उसे ना तो तब ना, उसके बाद कभी टोका....मुझे पता है आजकल निश्छलता मिलना अपवाद है ..इसे टोककर क्यों कृत्रिम बनाया जाए...

....मैं कुछ बोल पाती इससे पहले ही मेरी नजर उसकी माँ की ओर चली गयी ...मुझे उनसे चिढ़ थी......अब तक इतनी चिढ़ जाहिर तौर पर किसी महिला से कभी नहीं हुई है...उसकी ठोस वजह भी है....कुछ सालों पहले उनकी आँत बढ़ना शुरू हो गयी....जिसका ऑपरेशन हुआ और वो महीनों बिस्तर पर रहीं ...मेरी माँ की मित्र थी सो, जब मेरी माँ उन्हें देखने गयी मुझे भी साथ लेती गयी....तब ही बिनीता से पहली बार मिलना हुआ...तब मैं हाईस्कूल में थी...बिनीता ने अपने नन्हे हाथों से पूरी गृहस्थी का काम संभाल लिया था...जिसमें बिनीता के माता-पिता एक छोटा भाई हर्षित और दादा, दादी भी थे।

फिर बाद में उसकी माँ को आराम करने की जो लत लगी तो कभी नहीं छूटी ...वो कोई ना कोई बीमारी का बहाना बना कर हर समय बिस्तर पर रहतीं और बिनीता का ध्यान पढ़ाई से हटकर घर के कामों में ऐसा रमा कि उसने हाईस्कूल के बाद पढ़ाई की ही नहीं..या पढ़ने का कारण उसकी माता जी ने छोड़ा ही कहाँ"? और उस पर भी हैरत की बात ये कि, परिवार के किसी भी इंसान को बिनीता के ना पढ़ पाने का रत्तीभर अफसोस नहीं था....सो चिढ़ की वजह जायज थी मेरे हिसाब से...

नाजुक सी लड़की दिन रात की गृहस्थी में ऐसी लगी मुझे यकीन है उसका कद बामुश्किल 5 फ़ीट का... अधिक काम के चलते रह गया था..

... बिनीता की माँ का वजन 95 किलो से कम तो हरगिज नहीं था। और लम्बाई कोई 4 फ़ीट, 8 या 9 इंच होगी...

और वो महारथी 24 घण्टों में से 23 घण्टे बिस्तर पर ही विराजमान रहतीं (हाँ उसमें कहीं आना जाना अपवाद स्वरूप था.) 

उन्होंने आखिरी सीढ़ी पर पैर रखते हुए मुझे देखा और हाँफने लगी.....मैंने नमस्ते की मुद्रा में उनसे हाथ जोड़ उनका अभिवादन किया..और उन्होंने हँसते हुए गर्दन हिला दी.. उस हँसी के पार मुझे खुद के लिए चिढ़ दिखी..मुझे यकीन था उन्हें भी मुझसे चिढ़ थी...जिसकी वजह मुझे बहुत बाद में पता लगी...ख़ैर

.."सो..ना ..." बोलकर मेरी माँ ने अपनी नजरें इनायत मुझ पर की जो इस बात का इशारा था..कि मुझे चाय नाश्ते का इंतज़ाम करना था।

"शर्बत या लस्सी क्या बनाऊँ आँटी जी " मैंने सीढ़ियों से उतरते हुए पूछा

"भई हम तो चाय ही पीते हैं...गर्मी हो या सर्दी " वो हँसते हुए बोलीं ..और मैं सीढ़ियां उतर गई ...मेरे पीछे बिनीता भी नीचे उतर आई

"सो...ना...भेलपुरी बनाना ...तेरे हाथ की पसंद हैं " आँटी की आवाज आई ..

हॉं हॉं केवल बिस्किट और नमकीन से आपका होगा भी क्या मोटो ..

"जरूर" कहते हुए मैंने चाय बनने रख दी

"पता है, लड़का देखा है एक मेरे लिए" बिनीता मुस्कुराते हुए बोली

2010 में मैंने पहली बार सुना था...कि उसके लिए लड़के ढूंढें जा रहे हैं..मैं भी चाहती थी उसकी शादी हो जाये....जितना काम वो यहाँ करती है इसका आधा भी अगर ससुराल में किया तो पूरा घर ना सिर्फ उसके काम का बल्कि हमेशा निश्छलता से मुस्कुराते रहने की आदत का मुरीद हो जाएगा....खूबसूरत तो वो है ही...और क्या चाहिए किसी को अच्छी बहू के रूप में ?

"हम्म" मैंने चाय में चीनी डालते हुए कहा

"पता है बहुत अच्छा है " ये बोलकर वो अजीब ढंग से मुस्कुराई

और मुझे अब इंटरेस्ट आने लगा था

"अच्छा ...चलो ये तो अच्छी बात हुई " मैंने खुश होकर कहा

तो वो अपने गले में पहने पैंडेंट को दिखाते हुए बोली

"ये इन्होंने... दिया है" और शरमाने लगी

"इन्होंने " सुनकर मैं चौंक गयी..मतलब मामला साधारण से थोड़ा ऊपर है, मैंने देखा एक सुंदर सा पैंडेंट जिसमें बीचोबीच एक सफेद रंग का नग चमक रहा था और उससे भी ज्यादा चमक रही थी बिनीता..

"मतलब शादी तय हो गयी है" मैंने खुश होकर पूछा

"अरे नहीं ...यार...किसी को पता भी नहीं घर में कि, मैं मिली हूँ इनसे" वो धीमी आवाज में बोली

"अच्छा....कहाँ मिली"? मैंने अब तक प्लेट में नमकीन बिस्किट लगा लिए थे

"वो रेस्टोरेंट है ना" वो किचिन की सीलिंग की ओर हाथ उठाकर बोली

"जो नन्हूमल चौराहे के पास नया खुला है.." मैंने साफ किया तो

उसने हामी में सिर हिला दिया

"हाँ लेकिन मैंने वहाँ जाने से मना कर दिया" वो ना में हाथ हिलाते हुए बोली

"अच्छा ...फिर? "

"फिर क्या ..फोन पर तो मैंने हाँ कर दिया था लेकिन बाद में हम मंदिर में मिले"

"क्यों इतना कन्फ्यूज कर रही है.यार....कुछ समझ नहीं आ रहा"

मैंने जल्दी बनती चाय की गैस बंद कर दी...और मैं भेलपुरी बनाने लगी, उसने मेरे हाथ से टमाटर लेकर काटना शुरू कर दिया और मैंने प्याज़, वो शर्मायी और बोली

"मैंने फोन पर कई बार बात कर ली इनसे, तो इन्होंने कहा..जब सबके सामने मिलना होगा तो बात नहीं हो पाएगी..क्यों ना हम पहले ही कहीं मिल लें..."

"हम्म..तेरा नम्बर उसे कहाँ से मिला "

"ओह्ह, हर्षित की अच्छी बनती है इनसे, मम्मी ने एक दो बार फोन पकड़ा दिया था हर्षित को...फिर वो हर्षित से उसके स्कूल में भी मिल आये थे...तभी ये बोलकर कि उसे साइकिल दिलाएंगे, हर्षित से मेरा नम्बर ले लिया था" उसने हँसकर बताया

"अच्छा...लड़का ठीक तो है ना" मैंने चिन्तावश पूछा, बिनीता मासूम जो थी और ये लड़का तेज़ लग रहा था, हर्षित (बिनीता का भाई) वैसे भी भोंदू सा लगता मुझे, कहने को इंग्लिश मीडियम स्कूल में सातवीं या आठवीं में पढ़ता होगा, लेकिन वो मुझे रट्टू तोते से ज्यादा कुछ और कभी महसूस नहीं हुआ, उससे नम्बर लेना आसान था..हे भगवान लड़का अच्छा हो मैंने मन ही मन प्रार्थना की

"ओहहो तू चिंता मत कर दादी, सुन तो... फिर हुआ क्या"

"हॉं हाँ बता..."

"घर से ये बोलकर कि मंदिर जाना है, मैंने नन्हूमल चौराहे पर पहुँचकर ...उन्हें फोन कर दिया....बात करते करते लगा....कुछ टक..टक की आवाज सी आ रही है ..फ़ोन रखकर जब देखा तो ..हा हा हा" वो हँसने लगी

"क्या हँसे जा रही है बता भी"

"मैंने देखा मेरा सेंडिल ..सेंडिल टूट गया था...हा हा हा"

"हद्द है......क्या मौके पर सैंडिल टूटा है...फिर तो लौट आयीं होओगी तुम ?" मैंने सिर हिलाकर प्रतिक्रिया दी

"लौटना क्यों ? तूने देखा नहीं ..वो मोची, जो वहाँ बैठा रहता है ...वहीं पास ही तो है"

"हम्म ...हम्म " मैंने याद करते हुए कहा

"बस्स जाकर मोची को अपनी सैंडिल दे दी, इतने में ही इनका फिर से फोन आ गया..."

"फिर?"

"क्या आज ही चाय मिलेगी ...?" जैसे ही ये आवाज मेरे कानों में पड़ी मैंने हड़बड़ाकर, गैस जला चाय गर्म की और जब चाय कपों में छानीं तो मुश्किल से दो कप हुई,

"ओहहो चाय जल गई....अब तो पक्का डाँट पड़ेगी..कहेंगी इतनी देर से चार कप चाय भी नहीं बना पाई" कहते हुए मैंने ट्रे में कप रखे ही थे कि उसने फिर से फ्राईपेन गैस पर रखते हुए कहा "तुम चलो मैं बस्स अभी आयी.."

"इतनी जल्दी कैसे बनेगी" मैंने कहा

"ओहहो, आज मेरी खातिर थोड़ी कम उबली चाय पी लेना" वो मुस्कुरा कर बोली ..तो मैने भी हँसते हुए समर्थन किया, और छत पर चली गयी...जैसे ही ऊपर जाकर ट्रे रखी आँटी बोलीं "मुझे लगा तुम आसाम निकल गयीं आज"

मैं मुस्कुरायी और नीचे जाने को मुड़ी तो बिनीता हमारी चाय और भेलपुरी लेकर आ चुकी थी, हमने अपने कप उठाये और छत के एक कोने में चले गए,

"फिर क्या हुआ ?" मैंने पूछा

"फिर जैसे ही मैंने इनका फोन उठाया ...."

"क्या यार..वो, इनसे, इन्होंने...नाम ले ना" मैं झुँझलायी

"हा हा अच्छा ...हाँ तो नीरज ने फोन किया और बोले मैं आ गया हूँ तुम कहाँ हो...मैंने उनका फोटो एक बार ही देखा था लेकिन फिर भी मैं उन्हें पहचान गयी...सड़क पार देखा तो नीली शर्ट पहने वो बाइक पर थे...मैंने कहा सामने देखिए...रोड पार...'

"हम्म...."

"नीरज ने कहा नहीं दिख रही तुम...मैंने कहा एक बड़ी सी छतरी दिख रही है और उसके नीचे बैठा मोची?...वो बोले हाँ ...फिर मैंने कहा बस्स उस मोची के पास पड़े पत्थर पर ही तो बैठी हूँ...

"हे भगवान "

"हा हा ..वो मुझे देखकर मुस्कुराये..और बस्स आ गए रोड पार....तब तक मेरी सैंडिल भी ठीक हो गयी थी.."

"हद्द है ... क्या पहली मुलाकात हुई है" मैंने अपने माथे पर हाथ रखते हुए कहा..."तुम्हारा पत्थर पर बैठना जरूरी था क्या?" मैं खीज़ी

"थक गई थी ना...हा हा हा..." वो हँसे जा रही थी

"क्या यार ... हद्द है, मोची की दुकान पर बैठी मिली हो उसे " मैंने उसे डाँटते हुए कहा

"अरे ये तो कभी भी किसी के साथ कभी हो सकता ."

हम्म बात तो ठीक कह रही थी...

"हम्म फिर? "

"नीरज तो रेस्टोरेंट ले गए लेकिन मैंने मना कर दिया...पहले वहाँ गयी थी फैमिली के साथ एक बार ... लड़के तो लड़के आदमी भी ऐसे देखते हैं जैसे गर्दन में हड्डी ना हुई स्प्रिंग हो गयी...ये लड़के क्यों देखते हैं? क्या मिल जाता है देखने से ?"

"क्या पता...शोध का विषय है..अभी तक तो पता लग नहीं पाया..."

"हम्म...फिर हम कैलाश मंदिर चले गए..."

"अच्छा"

"सुन मैंने उन्हें तेरे बारे में बता दिया है" कुछ रुककर वो बोली

"क्यों भला" मुझे ये सुनकर कोई बहुत अच्छा नहीं लगा था

"अब कौन है तेरे अलावा मेरा"...वो हँस कर बोली तो मुझे एहसास हुआ इसमें बुराई भी क्या है..."ठीक है" मैंने कहा...

**

तीन दिन बाद एग्जाम देकर मैं सुकून से बैठी टी. बी. देख रही थी कि मेरा फोन घनघनाया, बिनीता का ही था मैंने उठा लिया

"हाय पेपर कैसा हुआ"? उधर से वो चहकते हुए बोली

"ठीक ठाक हो गया है"

"अच्छा सुन... घर आ"

"क्यों"?

"अरे आ तो ...तेरी पसन्द के काले गुलाब जामुन बनाये है"

मेरा जाने का बिल्कुल मन नहीं था,

"क्या हुआ..आजा यार बहुत मन है मिलने का" बिनीता प्रार्थना करती हुई बोली,

"ठीक है ...आ रही हूँ" एग्जाम के चलते रात भर ठीक से सो नहीं पायी थी ..और अब थकान भी थी..लेकिन उसने ऐसे कहा तो मना नहीं कर पाई..और अगले तीस मिनट में मैं उसके घर पर थी..

सामने ही बेड पर आँटी बैठी हुईं थीं...मुझे बैठने का इशारा किया और पूछा " पता तो लग ही गया होगा तुम्हें..."

"क्या?" मुझे पता था..वो नीरज़ और बिनीता के बारे में पूछ रही थीं...फिर भी बिनीता के मामले में मैं अति की हद तक संजीदा थी...क्या मालूम क्या चल रहा हो और बेचारी को कुछ सजा मिल जाये...

"अरे वही ....लड़का देखा है उसके लिए ...अच्छा है...नीरज नाम है उसका"

"हॉं हाँ बताया था कि कोई शादी की बात चल रही है..ज्यादा कुछ नहीं पता मुझे" मैंने बहुत संभाल के शब्द प्रयोग किये

"हम्म, वैसे तो ठीक है लेकिन लड़का एम. आर. है मेडिकल कम्पनी में, बस्स यही थोड़ी दिक्कत है...बाकी तो ठीक ही है..बिन्नी (बिनीता) तो उससे फोंन पर बात भी करती है.." वो उभरी हुई आँखो को और आगे निकालकर बोली.. खुश नहीं दिख रही थीं

...तभी बिनीता मेरे लिए एक प्लेट में काला गुलाब जामुन रख कर ले आयी...मुझे लगा कह दूँ...आपने अपनी बेटी को पढ़ाया नहीं...कुछ सिखाया नहीं..ना ही उसकी पसंद नापसन्द की चिंता की...वो तो बस्स उसका खुद का व्यवहार और सुंदरता है..वर्ना कहने को लड़का भी बोल सकता है ..लड़की बस्स हाईस्कूल पास है।

"आँटी आपने बिनीता को पढ़ाया क्यों नहीं.." मैंने सटीकता से ये प्रश्न कर दिया...ऐसे प्रश्न की उन्होंने आशा कभी भी नहीं की होगी...वो भौचक होकर पलकें झपकाने लगीं...

"तुम्हें तो पता है....मम्मी की तबीयत ठीक नहीं रहती है....फिर अब मेरा मन भी पढ़ने में नहीं लगता" बिनीता ने अपनी माँ की ओर से जब ये जवाब दिया तो वो मेरी नजरों में और चढ़ गई...

बेचारी... इसे फिक्र है अपनी माँ की लेकिन माँ को ...?

"देखो बिन्नी (बिनीता ) पढ़ने से सोचने की शक्ति बढ़ती है..पढ़े लिखे होने से पति भी इज़्ज़त करता है.." मैंने बिन्नी को समझाते हुए कहा

"अब इस उम्र में ये बारहवीं के पेपर देते हुए कैसी लगेगी ...बच्चे हँसेंगे नहीं इस पर" आँटी बिनीता का मजाक उड़ाती हुई हँसने लगी, उन्हें ऐसे हँसते देख बिनीता के चेहरे से भी हँसी गायब हो गयी थी...

"अच्छी लगेगी, शक्ल से बिन्नी बीस साल से ज्यादा की नहीं दिखती...उम्र सिर्फ फॉर्म पर लिखनी होती है...सबको बतानी नहीं होती" मेरे ऐसा कहते ही आँटी ने हँसना बन्द कर दिया

"तुम्हें पता नहीं है बिन्नी, आजकल के बच्चे भी ..अगर माँ पढ़ी लिखी ना हो तो इज़्ज़त नहीं करते.."

मेरा ऐसा कहना ही था...कि आँटी ने मुझे एक चुभती नजर से देखा, मुझे भी एहसास हुआ बिन्नी का अच्छा करने की चाहत में फ्लो-फ्लो में, मैं ना सिर्फ ज्यादा ...बल्कि गलत भी बोल गयी हूँ..

"हैं ...? "बिनीता के मुंह से अचरज से जब ये निकला तो मैंने खुद को माफ कर दिया...लगता है बात का असर हुआ है..वो अचानक से कमरे से बाहर चली गयी...और आँटी ने मेरी ओर घूरते हुए देखकर कहा, "इसपर तुम्हारी बातों का असर खासतौर पर कुछ ज्यादा जल्दी हो जाता है....ऐसा कुछ कहना हुआ करे तो अकेले में पहले मुझसे कहा करो.....ये पढ़ेगी तो ...घर का काम कौन करेगा...और मेरी तबीयत ...और पैसा...हर घर की समस्याएं अलग अलग होतीं हैं"..

ओह तो ये बात है...हे भगवान...मतलब मेरा चिढ़ना बेकार में ही नहीं है

"इसकी शादी होगी, तुम्हें क्या लगता है हवाओं में हो जाएगी ...पैसा खर्च होता है" वो जोश में बोलते हुए मेरी ओर खिसक आयीं थीं..और उनकी इन समस्याओं के बखान का मुझ पर रत्तीभर फर्क नहीं पड़ा कि इतने में बिनीता मेरे लिए एक और गुलाबजामुन लेकर आ गयी ...

"एक और ले ना.. बता कैसे बने हैं" मेरी प्लेट की ओर झुकती हुई वो बोली

"न नहीं ..अब नहीं....मन तो क्या पेट भी भर गया है...बेहद टेस्टी बनें हैं" कहते हुए मैं जाने के लिए उठ गई

"बहुत भरोसा है तुम पर....कम से कम इतनी अक्लमंद तो होगी ही....कि तुम्हें पता हो कौनसी बात किसको नहीं बतानी है " वो बिनीता की ओर इशारा करते हुए बोलीं

जाहिर है अभी उनकी कही हुई बात अगर बिन्नी को पता लगी तो उसे कितना दुख होगा, वो ना भी कहती मुझसे, तो भी नहीं बताती मैं उसे..

"आप फिक्र मत कीजिये ..आपका ये... भरोसा तो कभी नहीं तोड़ूंगी" मैंने बहुत संयत होकर कहा तो उनके चेहरे पर सुकून आ गया

बैठने से सिलवटें पड़े अपने कपड़े मैंने यूँ ही ठीक किये तो वो बोलीं " तुम इतने अजीब से कपड़े पहनती कैसे हो....ये पैंट तो ऐसे लग रहा है जैसे किसी लड़के का हो" वो फिर मजाक उड़ाने वाले अंदाज में हँसने लगी, मैं समझ गयी ये उनकी मेरे प्रति खीज़ है जो बिन्नी को पढ़ाई का महत्व समझाने से उपजी है

"ये पलाज़ो है, और लड़के पलाज़ो नहीं पहनते.." नपा- तुला इतना जवाब देकर मैंने उनके उभरे पेट की ओर देखा कम से कम दस इंच का पेट बेतरतीबी से बाहर निकला हुआ था...जिसे 6 मीटर की साड़ी भी ढ़कने में नाकाम थी....

क्या ये जो सच में अजीब है....इन्हें अजीब नहीं दिख रहा?

'तो मन ही मन क्यों बोल रही है ...बोल दे मुँह पर ..है भी तो सच.." ये मेरा अन्तर्मन बोला

नहीं नहीं तहजीब भी कोई चीज़ होती है...मैंने खुद को ही जवाब दिया और बाहर निकल आयी कभी नहीं जाऊंगी बिनीता के घर

"नहीं नहीं जाओ गुलाबजामुन खाने...जाओ" फिर मेरे अंदर से आवाज आई

"मैं बिनीता से मिलने गयी थी, गुलाबजामुन खाने नहीं गयी थी"

"और मानेगा कौन" ये फिर से मेरा अंतर्मन बोला...

***

मई में मेरे एग्जाम खत्म हुए, जून में बिन्नी ने कई बार मुझे कॉल कर के बुलाया लेकिन मैं नहीं गयी...वो खुद मेरे घर आ नहीं सकती थी क्योंकि इस बार मोटो को टाइफाइड हुआ था....वो मुझे कभी -कभी फोन पर खुद के और नीरज के बारे में बताती रहती..तब तक मुझे यही लगता था...लड़का घरवालों की पसंद का है..और बिनीता को भी पसंद है तो सब आसान ही दिख रहा है...

लेकिन कुछ लव स्टोरियाँ उल्टे क्रम में चलती हैं...सबसे अच्छे दौर (जिसमें सब सहज दिख रहा होता है) से ...बुरे..फिर अत्यंत पीड़ाकारी और अंत में या तो घुटनभरी जिन्दगी जीने की बाध्यता या लड़ने का विकल्प ....

मैंने कहा ना.. भागने का विकल्प हमेशा नहीं होता.... .

जुलाई के दूसरे या तीसरे सप्ताह में डोरबेल बजी और बिन्नी अपनी माँ के साथ मेरे घर पर हाज़िर हो गयी...

उनके लिए जैसे ही पानी लेने किचन में गयी..बिन्नी मेरे पीछे -पीछे किचिन में आ गयी ..उसके.चेहरे की रौनक कम हो गयी थी

"क्या हुआ....सब ठीक तो है" मैंने पूछा

"हम्म..तुझे पता है मैंने अपना फॉर्म भरा दिया है, इंटरमीडिएट का...तू उस दिन ना कहती ..तो नहीं हो पाता ऐसा"

"ये तो सच में बहुत खुशी की बात है....फिर उदास क्यों हो" मैंने खुश होकर कहा, मैं उसके लिए सच में बहुत खुश थी..

हालांकि बिनीता की माँ ऐसे करते हुए मन ही मन मुझ पर कितनी नाराज हुई होंगी इसका मुझे एहसास था।

अचानक उसने एक गहरी सांस खींची...और अगले पल उसका चेहरा लाल हो गया...उसने अपने दुपट्टे को मुँह में लगभग ठूँस लिया और उसकी आँखों से झर-झर आँसू बहने लगे। 

..............क्रमशः....



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