Meenakshi Kilawat

Abstract

4.9  

Meenakshi Kilawat

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बीता हुआ कल

बीता हुआ कल

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हम जब छोटे थे कितना हमको अच्छा लगता था, गिर गिर के उठते थे। इतना जादा रोते थे फिर हमें मम्मी पापा गोद में दौड़कर उठा लेते थे। बड़े प्रेम से सहलाते थे। उस जगह हो जहां अब हम गिरे उस जगह पर फूंक मारकर पाव पटककर उस जमीन को डांटते थे। आकाश में हाथ उठाकर चिड़िया दिखाते थे। हमें कहते- देखो ऊपर चिड़िया देखो, जिधर पापा हाथ दिखाते उस तरफ देखने लग जाते थे,एवं फिर से गदगद होकर हँसने लग जाते थे, फिर से खेलने लग जाते थे।

मुझे याद आ रहा है वह बचपन, कई सालों पहले जब मैं छोटी थी, मुझे बिच्छू ने डंक मार दिया था। मैं जब जोर जोर से रोने लगी, तब मम्मी ने मुझे अपने गोद में उठा लिया बहुत प्यार किया, लेकिन जलन बहुत तेज थी, इसमें लगातार फूट-फूट कर रोए जा रही थी, पापा घर पर नहीं थे। वह कोई काम से दूसरे गांव जा रहे थे तो बस स्टैंड से उन्हें वापस बुलवाया। पापा ने कुछ इलाज किया। मेरे साथ मम्मी पापा दोनों रो रहे थे। मैं तो गोदी से नीचे उतर ही नहीं रही थी लगातार 3 घंटे मुझे बिच्छू की जलन होती रही, तब तक मम्मी पापा मुझे लेकर घूमते रहे,

आज भी मुझे याद है कि मम्मी पापा ऐसे ही होते हैं। वहां माया ममता का प्यार भरा खजाना होता है आज भी याद आता है। जैसे जैसे हम बड़े होते गए वैसे वैसे मम्मी पापा की हमें उतनी जरूरत नहीं रही। वह बचपन का दुलार वह बोल सब कम होता गया, वह कितना प्रगाढ़ प्रेम था जिस पर हम बचपन में अटल विश्वास करते थे। जब हम बड़े हुए तो हमें समय ही नहीं मिलता।हम उन्हे भूल चुके हैं,अब हम बड़े हो चुके हैं।

अब हमें वह सब बातें बेमालूम सी लगती है। अब हम उन्हें ही सिखाने लगे हैं। ना हमें अब उस प्यार की जरूरत है। हमें लगने लगा है, बचकानी बातों से बहलाकर या क्या फूंक मारकर या पंछी दिखाकर हमारा दुख दूर हो सकता है, हालांकि वह विचार ही हमारे मन में आना बंद हो गया है कि, हमको बड़ा होकर भी वह शब्दों की "सच्ची ताकत का पता ही नहीं चला।" जैसे हम बड़े होते गए हम अपने जगतमें स्कूल में कॉलेज में व्यस्त रहने लगे। अपने कार्यों में खुश रहने लगे,अपना व्यवसाय पैसा कमाने की लगन मे मस्त रहने लगे, अपने शौक के लिए भी जब हम समय नहीं निकाल पाते हैं। इस दौडती भागती जिंदगी में कितनी परेशानियां आती है, कभी किसी को कोई तकलीफ शारीरिक होती है कभी मानसिक होती है, मन में कोई दुखदर्द होता है, अनेक बातों में हम स्पर्धा में दूसरों को नीचा दिखाने में या ऊंचा उठाने में लगे होते हैं। घर में मम्मी जब कुछ पूछती है तो छोटा उत्तर होता है। घर से निकलते हैं तो सब बराबर चाहिए होता है, जैसे रूमाल, टिफिन या छोटी मोटी चीजें नहीं मिलती, तब हमे चिड़चिड़ा पन होता हैं, या फिर छोटी-छोटी बातों में मीन मेख निकालते हैं। बाहर की दुनिया में जाकर कभी कोई बुरे व्यसन भी लग जाते हैं या कभी सक्सेस अनसक्सेस होता है तो हमारे मन में अनेक विचार आते हैं। इसे हम अकेला ही झेलना चाहते हैं और इस आयु में हम उत्तम तरीके से जीने का प्रयास भूल जाते हैं, दो बात अगर मम्मी पापा से शेयर करें तो कुछ ठीकठाक भी हो सकता है, लेकिन आज की युवा पीढ़ी में, समय की कमी होती है।

युवा पीढ़ी नहीं जानती की, बचपन के वह शब्द कितना सामर्थशाली थे। कितना हौसला बढ़ाते थे। जबकि आज मां बाप से बात करने के लिए समय नहीं मिलता, वह नहीं जानते इस विशाल वृक्ष छाया को कि वह कितनी अनुभवी समृद्ध होती है। दुनिया में ऐसा कोई नहीं होता जो अपना दुख दर्द कम कर सके, ना कोई बाहरवाला हमारा दर्द हल्का कर सकता है, ना कोई हम पर भरोसा कर सकता है।

ऐसा लगता है जैसे बचपन में हम फिर से चले जाए और वही लड़ने झगड़ने वाली दुनिया में हमें फिर से वही फिर से वही मां बाप का प्यार मिले और नियति से लड़ने के लिए हम तैयार रहे। मां-बाप का सहारा शक्ति देता है। एक एक बोल यथार्थ होता है, यहां अमूल्य भावनाएं समझने वाला कृतार्थ हो जाता है। जो ना समझे वह ना समझ कहलाता है। लेकिन जो बीत गई सो बीत गई हाथ से तीर निकल जाता तो तकदीर से शिकायत कौन करेगा। मां बाप के प्रेम की हमको आज भी उतनी ही जरूरत है। फिर से ऐसा बचपना मिलेगा क्या ? कभी बालपन में हमको उन्होने इतना सक्षम बनाया एवं अतुलित प्रेम दिया क्या उन्हें कभी भी हमें भूलाना चाहिए ? क्या हम इतने बड़े हो चुके कि उन्हें ही सिखाने लगे,आज उन्हें जरूरत है इस ममता एवं प्यार की, क्या हम उन्हें वह प्यार वापिस कर सकते हैं ?


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