Turn the Page, Turn the Life | A Writer’s Battle for Survival | Help Her Win
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Mrinal Ashutosh

Abstract

4  

Mrinal Ashutosh

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भरोसे का खून

भरोसे का खून

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373


ऑफिस के कार्य से राजधानी जाना था तो तड़के ही घर से निकल पड़ा। आखिर चार-पाँच घंटे का रास्ता जो ठहरा। इक्का दुक्का वाहन आते जाते दिख रहे थे। सुहाना मौसम था और हल्की बूँदाबाँदी भी हुई थी तो मैं भी उसका आनंद ले रहा था। स्पीड 50-60 से अधिक नहीं थी। ड्राइवर की तबीयत ठीक नहीं थी तो स्वयं ही ड्राइवर बना हुआ था। बमुश्किल 30-40 किलोमीटर गया होऊँगा कि देखता हूँ, सड़क पर एक महिला गिरी पड़ी है। जब तक ब्रेक लगाता तब तक 100 मीटर आगे बढ़ गया था। अब खुद असमंजस में पा रहा था। एक मन कहता था कि जाकर देखूँ। उस महिला की क्या स्थिति है। दूजा आधुनिक और प्रक्टिकल बनने की वकालत करता। अंत में माँ के संस्कार ने बाजी मार ली और गाड़ी वापस मोड़ दिया। गाड़ी से उतरा और नज़दीक जाकर देखा तो महिला की साँस चल रही थी पर चोट काफी थी। सर से थोड़ा खून भी बह चुका था। देखने में अच्छे परिवार की लग रही थी और उम्र भी 35-37 के आस पास की होगी।

उसे उठाकर हॉस्पिटल ले जाने के लिये गाड़ी में डालने ही वाला था कि पत्नी का चेहरा सामने आ गया। पता था कि वह उल्टा ही सोचेगी। क्या करुँ या न करूँ, वाली स्थिति आ चुकी थी। क्या इसे यहीं छोड़कर चला जाऊँ। न न, मैं ऐसा नहीं कर सकता। इसी उहापोह में कई मिनट बीत गये। फिर हिम्मत कर डरते डरते पत्नी को फोन मिलाया। उसने फोन नहीं उठाया। फिर दोबारा साहस जुटाया तो 8-10 रिंग के बाद उसने फोन उठाया,"हेलो !"

"हेलो! सुनती हो ?"

"नहीं। बहरी हूँ। बोलो।"

अब कुछ आगे कहने का तो सवाल ही नहीं था। मैंने पुचकारा,"कुछ नहीं जानू! ऐसे ही फोन किया था।"

अचानक से उसके भीतर स्कॉटलैंड यार्ड का इंस्पेक्टर घुस आया,"सच बताओ। क्या बात है, बताओ! मैं सब समझ रही हूँ।"

 हे भगवान! कौन सा पाप किया था जो यह महिला मुझे मिल गयी। बड़बड़ाते हुये मैं अपने बाल नोचने लगा। फिर याद आया कि मैडम को पता तो दिया ही नहीं। पता क्या खाक देता, उसने कुछ कहने का मौका ही कहाँ दिया। मैंने सदर हॉस्पिटल का पता एस एम एस कर दिया और डरते डरते उस महिला को किसी तरह कार में डालकर हॉस्पिटल पहुँचा। संयोग अच्छा था कि कॉउंटर पर कुछ खास भीड़ नहीं थी। तुरन्त उस महिला को भर्ती भी कर लिया गया। तभी मैडम का फोन गरजा," कहाँ हो? मैं गेट नम्बर 2 के सामने हूँ।"

बिना देर किये उसकी ओर भागा।

उसके पास पहुँचते ही मैं भीगी बिल्ली बन गया," उस महिला का एक्सीडेंट हुआ है। ज्यादा चोट तो नहीं है पर बेहोश है। चलो न देखते हैं!"

पत्नी का चेहरा सामान्य होते देख मेरे जान में जान आया।

ऑफिस में खबर कर दी कि आज एक्सीडेंट होने के कारण राजधानी नहीं जा पाया। दो-तीन बाद ही जा सकूँगा। शाम तक महिला को हॉस्पिटल से छुट्टी मिल गयी। पत्नी के साथ मैं भी उसी का इंतज़ार कर रहा था।

मैंने ही पहल की,"बहन तुम्हारा घर कहाँ है? चलो छोड़ आता हूँ।"

उसने कोई जबाब नहीं दिया। उसकी चुप्पी देख पत्नी ने मेरी ओर सवालिया निशान लगाया।

अरे, मुझे कुछ नहीं पता। मैंने पत्नी को सच्चाई बताने की कोशिश की। फिर उस महिला की ओर मुड़ा,"बहन, तुम सच सच बताओ न!"

अब उस महिला को मेरी स्थिति का भान हो गया तो उसने धीरे से कहा,"ये मुझे नहीं जानते और न ही मैं इन्हें जानती हूँ। पर मैं अपने घर जाना नहीं चाहती।"

अचानक पत्नी ने मुझे आश्चर्य में डाल दिया," कोई बात नहीं। मेरे घर चलो।"

उसे लेकर घर तो चल दिया पर रास्ते भर दिमाग में उधेड़बुन चलता रहा। घर आकर हम तीनों ने खाना आया और आराम किया। रात में नींद कोसों दूर थी। उस महिला के बारे में सोच सोच कर धड़कन बढ़ जाती थी। सवेरा हुआ। अब महिला कुछ बेहतर महसूस कर रही थी। चाय-नाश्ते के बाद मैंने पत्नी को समझा बुझाकर किनारे किया और उसके नज़दीक जा बैठा,"मैं, आपके बारे में जानना चाहता हूँ।

उसकी चुप्पी ने फिर मुझे परेशान कर दिया।

" आप चुप रहेंगी तो मेरी पत्नी मुझे..."

"नहीं !नहीं ! मैं आपको सब सच बताती हूँ। अठारह साल पहले मेरी शादी हुई थी। प्यारा पति और हँसता खेलता संयुक्त परिवार। पति का छोटा मोटा व्यवसाय था। अगले ही साल भगवान का आशीर्वाद हुआ और मैं एक बेटी की माँ बन गयी। पति जी तोड़ मेहनत कर रहे थे और पड़ोसियों की आँख का कांटा बनने लगे थे। फिर लोन पर उन्होंने ट्रक ले लिया। अब तो पडोसी सब जल भून गए। होली का समय था। कुछ लोगों ने उनको धोखे से ज़हरीली शराब पिला दी। उल्टी दस्त शुरू हो गया। जब तक उनको लेकर शहर पहुँचते, तब तक.....।" रोने की आवाज़ सुन पत्नी दौड़ी आयी।

फिर उसे पानी पिलाया और ढाँढस बँधाया।

अब मैंने भी गौर किया कि उसके हाथ से चूड़ी गायब थी और माथे से सिन्दूर।

 नम आँखों से उसने अपनी दुखभरी कहानी जारी रखी,"उनके जाते ही मुसीबत का पहाड़ टूट पड़ा। ट्रक औने पौने दाम पर बेचना पड़ा। लोन का सेटलमेंट करते करते लगभग सारा पैसा खत्म हो गया। जो थोड़ा बहुत बचा, वह ससुरजी के बीमारी में काम आ गया जो बेटे के अचानक जाने के गम में टूट से गये थे।

जो परिवार अभी मज़े में चल रहा था। अचानक ही गाड़ी रूकती सी नज़र आने लगी। चाचाजी के पेंशन के अलावे और कोई आमदनी नहीं थी। थोड़ी बहुत खेती जरूर थी पर दोनों ससुर उस लायक न थे कि खेती कर सकें। बटाई के खेत का क्या हाल होता है, आपसे छुपा तो होगा नहीं! मेरे पति भाई में अकेले थे तो चाचाजी के दो बेटे थे। बड़ा बेटा विवाह कर छत्तीसगढ़ में ही कहीं बस गया था। उसका घर से मतलब नहीं के बराबर था। छोटा बेटा दिल्ली के किसी बड़े कॉलेज में पढ़ता था। उत्कर्ष नाम था उसका। ये उसको अपने भाई की तरह ही प्यार करते थे। वह भी घर साल में एकाध बार ही आता था।

 इनके जाने के बाद उसका आना जाना बढ़ गया। एक दिन उसने हाथ पकड़कर कहा कि भाभी, आपको सफेद साड़ी शोभा नहीं देती।

मैं अवाक सी उसको देखती रही।

"आप दूसरी शादी कर लो।"

उसके इस सुझाव ने मुझे रुला दिया," और रुपाली!आठ साल की होने को है!"

"मैं हूँ न!"

"मतलब"

"मैं आपसे शादी करूँगा।"

उसके प्रस्ताव ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया," माँ-बाबूजी, चाचाजी-चाची क्या सोचेंगे?"

"उनको मैं मना लूँगा।" उत्कर्ष की बात में दृढ़ता और भरोसा दोनों नज़र आ रहा था।

रात के खाने पर उसने शादी का ऐलान कर दिया। सबने बिना मेरी ओर देखे सहमति दे दी।

माँजी ने धीरे से पूछा तो कब करोगे शादी?

"कोर्स खत्म होने वाला है। जल्दी ही नौकरी मिल जाएगी। फिर शादी।

"तब भी कितना समय? कुछ....?"

"साल भर तो लग ही जायेगा न!"

वह रात कयामत की रात थी। सबको खाना-पीना खिलाने के बाद खुद खाकर मैं अपने कमरे का दरवाजा बंद ही करने वाली थी कि उत्कर्ष ने मेरा हाथ पकड़ लिया। मैं हाथ छुड़ा न सकी। वह अपने कमरे में ले गया। जैसे ही उसने मेरे कन्धे पर हाथ रखा, मैं उससे छिटकी,"अभी हमारी शादी नहीं हुई है!"

"वह तो हो ही जायेगी।"

"उससे पहले यह ठीक नहीं।"

"तो आपको मुझ पर विश्वास नहीं।"

"नहीं, ऐसा नहीं है।"

फिर उसने भगवान से लेकर माँ-बाप, चाचा-चाची, यहाँ तक कि रुपाली की कसम खाकर शादी करने का भरोसा दिलाया तो मैं कमजोर पड़ गयी। फिर वह हो गया जो शादी से पहले नहीं होना चाहिए था।

 अब वह हर महीने आने लगा। एक-दो दिन से अधिक कभी न रूकने वाला अब हफ्ते भर तक रूकने लगा। कब साल बीत गया, पता ही न चला। 

ऐसे ही एक दिन जब वह मुझसे खेल रहा था तो मैंने उसे शादी की याद दिलायी।

आज उसके जबाब में वह उत्साह न था जो साल भर पहले थी,"दो-चार महीने और इंतज़ार करो। मैं कहीं भागा नहीं जा रहा हूँ।"

मैं उसका चेहरा देखते रह गयी।

एक दिन बिटिया की बात सुन मेरे पैर तले जमीन खिसक गई," माँ, तुम रात में कहाँ थी?

"बेटा, मैं तुम्हारे साथ ही तो सोई थी।"

"नहीं। तुम चाचा के कमरे में थी।"

हे भगवान यह सुनने से पहले मुझे मौत क्यों न आ गयी। मैं अपने एकलौते बच्चे से मुँह छुपा रही थी। अब झूठ बोलना सम्भव न था,"बेटा, चाचा जल्दी ही मुझसे शादी करेंगे और आप उनको पापा कहेंगे।"

"चाचा, तुमसे शादी कभी नहीं करेंगे।" और वह पैर पटकते हुए बाहर चली गयी। पता नहीं क्यों मुझे उसकी आँखों में वह आशंका दिख रही थी जो मैं सपने में भी नहीं देखना चाह रही थी। बुरे दिन तो पहले ही चल रहे थे। यह हमारी जिंदगी के बहुत बुरे दिन की कभी न खत्म होने वाली शुरुआत थी।

मैं दिन-प्रतिदिन कमजोर होती जा रही थी और वह मुझ पर हावी होता जा रहा था। फिर एक दिन उसने खुशखबरी सुनाई कि उसे किसी बड़ी कम्पनी में नौकरी लग गयी थी। पुणे में छह महीने की ट्रेनिंग होगी। मेरे पैर अब जमीन पर नहीं पड़ रहे थे। पर यह मेरा दिवास्वप्न था। इन छह महीने में वह एक बार भी नहीं आया। उसका मुझसे फोन पर बात करना भी बहुत कम हो गया था। मुझे रह रहकर बिटिया की बात याद आ जाती और मैं चौंक उठती। छह महीने बाद वह आया और अगले ही दिन मुझ पर वज्रपात कर दिया। किसी और लड़की से उसके शादी के ऐलान के बाद तो मुझे गश्त पर गश्त आने लगा। मन किया कि फाँसी लगा लूँ पर बिटिया का चेहरा सामने आ जाता। माँ-बाबूजी ने भी बहुत समझाया पर वह टस से मस नहीं हुआ। कलेजा पर पत्थर रख माँजी ने एक-दो रिश्तेदार को भी हमदोनों के संबंध के बारे में बताया तो उन लोगों ने उल्टे मुझे ही कुलटा घोषित कर दिया। इन सारे तमाशे के बीच चाचा-चाची मूकदर्शक बने रहे। आखिरकार बेटी की बात ही सच साबित हुई। मैंने बेटी की खातिर जीने का फैसला कर लिया। वह जिंदगी जो मौत से भी बदतर थी। न मैं किसी से नज़र मिला सकती थी और न ही कोई मेरी ओर देखना चाहता था। बिटिया बड़ी हो रही थी। पर उसकी पढ़ाई-लिखाई के लिये मेरे पास पैसे नहीं थे। इसी बीच इनके एक दोस्त भगवान बन कर आये और उन्होंने मुझे पड़ोस के गाँव में स्वास्थ्य विभाग में छोटी सी नौकरी लगवा दी। नर्क की जिदंगी अब थोड़ी बेहतर होने लगी थी। फिर बिटिया ने अच्छे नम्बर से दसवीं पास की। फिर...."

"फिर...फिर क्या हुआ ?"

"फिर वह हुआ जो नहीं होना चाहिए था। हाँ, एक चीज़ बताना भूल गयी कि इस बीच बिटिया मुझसे दूर होने लगी थी। मुझसे बहुत कम बात करती। सीधे मुँह जबाब देना तो शायद भूल ही गई थी।"

"ओह्ह! यह तो बहुत बुरा हुआ।"

 पत्नी की आँखों में भी अबआँसू साफ दिख रहे थे।

बेचारी दुखयारीअपने दर्द को हमारे सामने बयां करती रही,"बिटिया ने दसवीं पास करते ही होस्टल जाने की ज़िद ठान दी। मेरा मन तो बिल्कुल न था पर ससुर बिटिया की ज़िद के सामने झुक गए। होस्टल गए छह महीने न हुए थे कि होस्टल से आये कॉल ने मुझे फाँसी लगाने पर मजबूर कर दिया।"

"ऐसा क्या हुआ?" मैं हतप्रभ था।

 "रुपाली होस्टल के चपरासी के साथ भाग गई थी। मैं फाँसी लगा ही रही थी कि सास-ससुर ने पैर पकड़ लिया। फिर आगाह भी किया कि अगर मैंने फाँसी लगायी तो गाँववाले उनदोनों को फँसा देंगे। मुझे उनकी बात माननी पड़ी। दस दिन बाद रुपाली जब आयी तो उसके चहरे पर पश्चाताप के कोई भाव न थे। शर्मिंदगी तो बहुत दूर की बात थी। मैं ज़िंदा लाश बन गयी थी। बड़ी मुश्किल से सास-ससुर ने मुझे सम्भाला। यह करीब दो महीने पहले की बात है।"

"अब रुपाली कहाँ है ?"

"दो दिन पहले वह फिर भाग गई, गाँव के ही किसी बस कंडक्टर के साथ !"

"हे भगवान !"

"अब आप ही बताइये कि क्या मुझ अभागिन को इस धरती का बोझ बढ़ाना चाहिए।"

मैं उस महिला से क्या, अब अपनी पत्नी से भी नज़र नहीं मिला रहा था। "आत्महत्या पाप है।" यह जानते और मानते हुए भी मुझे उसका आत्महत्या करने का निर्णय गलत नहीं लग रहा था।"


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