देवता
देवता


परमानंद झा 'प्रभास' की कथा संग्रह 'सरसों का फूल' पढ़ने में मग्न, अर्पिता ट्रिंग-ट्रिंग ट्रिंग-ट्रिंग की आवाज़ सुन मोबाइल की ओर लपकी। स्क्रीन पर 'प्रभास सर कालिंग' देख उसकी खुशी का ठिकाना न रहा।
"सर नमस्ते! कैसे हैं!"
"नमस्ते। ठीक हूँ। आपके शहर आया था तो सोचा कि आपको कॉल कर लूँ!"
"सर, क्यों मज़ाक करते हैं?" अर्पिता मुसकाई।
"सच कह रहा हूँ। आपके शहर में ही हूँ। अच्छा, आप बताओ कि आप क्या कर रहे थे?"
"आप की कथा संग्रह 'सरसों का फूल' पढ़ रही थी!"
"अब तुम मज़ाक कर रही हो! है न?"
"नहीं सर! सच कह रही हूं। अपनी कसम!"
"अरे कसम-वसम मत खाया करो। हमें आप पर विश्वास है पगली जी?" प्रभास जी ने थोड़ा चिढ़ाने की कोशिश की।
"ठीक है। अब आपने कह दिया तो नहीं खाएंगे। सच में मेरे शहर में हैं तो आइये मेरे घर पर! पता मैसेज कर रही हूं।" कहने के साथ पता प्रभास जी के इनबॉक्स की अपना स्थान ग्रहण कर चुका था।
"आपका घर रेलवे स्टेशन से कितना दूर है! आने में कितना समय लगेगा?"
"बस बारह किलोमीटर। ऑटो से मुश्किल से आधे घण्टे! पर शाम का समय है तो जाम...जाम लग गया तो एक घण्टे या उससे अधिक भी लग सकता है!"
"तब रहने दीजिए। मेरी ट्रेन का समय है। अगर छूट गयी तो बहुत मुश्किल हो जायेगी। आपको तो पता ही है कि रिजर्वेशन कितना कठिनाई से मिलता है!"
"तो मैं आ रही हूं। आपसे मिलने की बड़ी इच्छा है। कहाँ हैं आप अभी!"
"आप आयेंगी? एक दोस्त के यहां आया हुआ था पर पड़ोस में एक एक्सीडेंट हो जाने के कारण वह सब हॉस्पिटल गये हैं।"
"सर, पता भेजिये!" कहते हुए ही वह तैयार होने लगी। इसी बीच मैसेज की रिंग बजी 'ट्रिंग'
और पता उसके मोबाइल का हिस्सा बन चुका था। फटाफट तैयार हो वह पार्किंग की ओर भागी। वहीं से अपने पति वैभव को फोन लगाया,"प्रभास सर से मिलने जा रही हूं। जाम के कारण आने में देर हो सकती है!"
"अरे उनको तुम फेसबुक से ही जानती हो न! जाना ठीक नहीं है!
"पागल हो क्या! एक साल से जानती हूँ उनको। वह ऐसे वैसे व्यक्ति नहीं हैं!"
"मेरी बात तो तुम सुनोगी नहीं। जो मर्ज़ी हो, करो।" कहते हुए वैभव ने फोन काट दिया।
अर्पिता स्कूटी स्टार्ट कर चल दी। स्कूटी के साथ साथ दिमाग भी चल रहा था। एक फेसबुक काव्य समूह से मिले थे दोनों। कितना बढ़िया से उसकी गलती को बताकर सुधारा था। फिर फ्रेंड रिक्वेस्ट भी भेज दिया उसने। उन्होंने भी स्वीकार करने में देर न लगाई। फिर अक्सर बात होने लगी। बात के मूल में साहित्य ही रहता पर बात खूब होती। फिर कॉल भी हो जाता कभी कभार! दो तीन बार वीडियो कॉल भी हुआ था! कब दोस्त बन गए, पता ही न चला। पर अर्पिता ने आदर सम्मान बनाये रखा। हाँ, प्रभास आप और तुम
के बीच झूलते रहते। कभी डाँटते तो कभी प्यार से भी बात करते! कभी कभार चिढ़ा भी देते तो कभी पुचकार भी लेते। एक दो बार रात के एक-दो बजे भी बात हुई पर प्रभास जी ने उस मर्यादा का सदा निर्वहन किया जो पुरूष अक्सर भूल जाते हैं जैसे ही कोई स्त्री नज़दीक आती है। अब अर्पिता अपने परिवार के परेशानियाँ भी साझा करने लगी। प्रभास जी के सलाह उसे उबरने में मदद करते। प्रभास विवाहित थे पर अक्सर टूर पर रहते थे। एक बार अर्पिता ने उनके पत्नी से भी बात की। वह भी बहुत अच्छी थी। दोस्ती हर दिन एक नए आयाम रच रही थी। फिर एक दिन प्रभास जी ने आय लव यू कह दिया। अर्पिता सोच में पड़ गयी। फिर प्रभास जी ने उसे खूब समझाया भी था कि ये तो मज़ाक है पर कोई मज़ाक का बहाना बनाकर आगे भी बढ़ सकता है। महिला को अधिक सावधान रहना चाहिए। देर रात बात करने से बचना चाहिए। और भी बहुत सारी बातें...अर्पिता अब सबसे कहती कि प्रभास सर से बेहतर इंसान उसने दुनिया में नहीं देखा!
अब दिन रात उनका ही जिक्र... प्रभास कुछ भी कहते, अर्पिता प्रतिवाद न कर पाती!
यह सब सोचते सोचते वह दिये गए पता पर पहुँच गयी। दूसरी मंज़िल तक पहुँचते पहुँचते वह थोड़ी हाँफने भी लगी थी। घण्टी बजायी तो सामने प्रभास सर....
"सर मुझे तो विश्वास ही नहीं हो रहा कि आप सामने हैं!"
"अब आपको विश्वास दिलाने के लिये क्या करूँ? लाइये अपना हाथ!"
उनके हाथ मे अपना हाथ दिया। फिर क्या मन में आया, वह खुशी से गले लग गयी।
गले लगते ही प्रभास जी मे कुछ बदलाव सा होने लगा। हाथ कंधे से नीचे उतरते हुए पीठ, फिर कमर पर अटक गयी। अर्पिता को आभास होने लगा कि वात्सल्य प्रेम अब स्त्री-पुरुष प्रेम में परिणत हो रहा है। उसके आँखों से आँसू निकल पड़े। इधर प्रभास जी इसे मौन सहमति समझ अपने प्रेम को गति प्रदान करने की कोशिश में लगे हुए थे। अगला कदम उठाते हुए उन्होंने अपने होंठ अर्पिता के होंठ पर रख दिया। अब सब्र का बाँध टूट गया और अर्पिता फूट पड़ी।
अब प्रभास को वास्तविक स्थिति का भान हुआ,"तो क्या तुम यह नहीं चाहती थी?"
"नहीं। नहीं। मैं तो आपको देवता समझती थी!"
"ओह्ह!" और प्रभास जी धम्म से ज़मीन पर बैठ गए। अर्पिता दरवाज़ा खोल तेज़ी से बाहर निकली। सीढ़ी से उतरते समय अपने आपको नियंत्रण में रखना मुश्किल हो रहा था। बड़ी मुश्किल से स्कूटी में चाबी लगाई कि ज़ोर से आवाज़ हुई। देखा तो सामने प्रभास सर ज़मीन पर खून से लोथपोथ पड़े थे। अर्पिता फिर चीखी। इस बार चीख और भी तेज थी,"प्रभास सर!" पर प्रभास सर दम तोड़ चुके थे। अर्पिता रोते हुए उनको हिला रही थी कि तभी उनके हाथ से कागज़ का एक पुरजा गिरा। खून से भींगे होने के बावजूद उसमें लिखा हुआ स्पष्ट नज़र आ रहा था,"देवता को इंसान बनने का अधिकार नहीं!"