छब्बीस जनवरी
छब्बीस जनवरी


आज वोट का दिन था। मंगरू और चन्दर दोनों तेज़ी से मिडिल स्कूल की ओर जा रहे थे।
" अरे ससुरा, तेज़ी से चलो न! देर हो जाएगा।"
" भाय, वोट के कारण सवेरे से काम में भिड़ गए थे। ठीक से खाना भी नहीं खा पाये।"
स्कूल पर पहुँचते ही देखा कि पोलिंग वाले बाबू सब जाने की तैयारी कर रहे हैं।
"मालिक, पेटी सब काहे समेट रहे हैं?" चन्दर ने हिम्मत दिखाया।
"वोट खत्म हो गया तो अब यहाँ घर बाँध लें क्या?"
"लेकिन अभी तो पाँच नहीं बजा है। रेडियो में सुने थे कि...."
" रेडियो-तेडीओ कम सुना
करो और काम पर ध्यान दो। समझे।
" जी मालिक। पर पाँच साल में एक बार तो मौका मिलता है हम गरीब को, अपने मन की बात...
"तुमको ज्यादा नेतागिरी समझ में आने लगा है क्या?" सफेद चकचक धोती पहने गाँव के ही एक बाबू साहेब पीछे से गरजे।"
"चल रे मंगरु। लगता है कि इस बार भी अपना वोट गिर गया है!"
" भाय, एक चीज़ समझ में नहीं आता है कि हम निचला टोले वाले का वोट हमरे आने से पहले कैसे गिर जाता है?"
इससे पहले कि वह कुछ जबाब देता, पुरबा हवा बहने लगी और उसके अंदर से दर्द की गहरी टीस उठी।,"आह !"