भोग
भोग


(ध्यान से पढ़िए क्यों की कहानी की शुरुआत ही अंत है और अंत ही शुरुवात है। )
(स्थान वृद्धाश्रम)
वृद्धाश्रम के आंगन के कोने में कुर्सी लगाये एक वृद्ध बैठे थे। मानो ऐसा लग रहा था की शायद अपनी खुद की जीवनी पढ़ रहे हो ऐसे विचार में डूबे थे। उन्हें विचार में डूबा देख मेरा मन उनकी अवस्था जाने के लिए आतुर हुआ तो उनके निकट जा कर मैंने पूछा।
अंकल, क्या बात है ?
कुछ नहीं बेटा, अपने बीते दिन याद कर रहा हूँ मेरे हाथों हुई गलतियों को गिन रहा हूँ।
गलतियां ?
आओ बैठो सुनाता हूँ।
जी, अंकल जी।
बेटा मेरा विवाह 23 साल की उम्र में हुआ था। तब में अस्थायी LIC एजेंट का काम किया करता था, दिन भर इधर उधर घूम कर लोगो से LIC खरीदने को कहता था, वेतन भी इतना ही था कि बस गुजारा हो जाये और समाधान हो जाये।
मेरी माता तो पहले ही गुजर गई थी, पिता जी थे जिन्होंने बहुत स्नेह से मेरा पालन पोषण किया, मुझे कोई कठिनाई ना हो इसका पूरा ख्याल रखा, और मैंने भी उसने यही सीखा जो कष्ट मुझे हो वो कष्ट में अपने बच्चों को भोगने नहीं दूंगा।
विवाह के 1-2 साल बाद ही हमारे जीवन में हमारा बेटा हरीश आया। हरीश के लिए हम ने दुनिया भर की खुशियाँ खरीदने की कोशिश की। एक अच्छे स्कूल में प्रवेश कराया जो हरीश ने चाह उसे वो दिया।
क्यों कि पिता ह्रदय ही ऐसा होता है, जो संघर्ष पिता देखता हैं वो बेटा ना देखे उसके लिए जी जान एक कर देता है।
मुझे आज भी याद है, हरीश का जब 12 वीं कक्षा का निकाल आया था, तब उसे बहुत से विषयों में कम नंबर में थे, और वो फिर भी इंजीनियरिंग करना चाहता था क्यों की मित्रों से साथ ना छूट जाए। निकाल के बाद वो बहुत गुमसुम रहना लगा, ढंग से बात नहीं करना गुस्सा हो जाना।
हम ने बहुत मनाने की कोशिश की कोई नहीं इंजीनियरिंग ना सही तो कोई और पदवी के लिए कोशिश करो पर वो नही माना. बहुत से शिक्षकों ने आगाह किया की हरीश इंजीनियरिंग नही कर पाएंगा उसके वर्ष व्यर्थ हो जायेगा, पर हरीश नहीं माना, अतः अपने बेटा का दुखः मुझ से देखा नहीं गया, और एक बड़ी डोनेशन के साथ उसका ऐडमिशन इंजीनियरिंग कॉलेज में करवा दिया।
और जो होना था हो गया, उसके साल व्यर्थ गए, फिर उसने एक साधारण पदवी कर ली, आज वो एक खासगी कम्पनी में क्लर्क है।
" पर अंकल आप इसमे कहा गलत हुए।"
गलत मैं तब हुआ जब विवाह के बाद, मेरी अर्थिकस्थिति अच्छी न होने के कारण, इसी वृद्धाश्रम में अपने को पिता जी को छोड़ा था, और मैं गलत कब हुआ बताऊँ,
माता पिता का यह प्रथम कर्तव्य होता हैं कि अपनी संतान को जीवन जीना सिखाए,नाकि केवल भोग करना, पुत्र की खुशी में,मैं इतना डूब गया की उसे सिर्फ मैंने भोग करना सीखा दिया, जिस तरह मेरे पिताजी ने मेरी चाहत में किया था।
मैंने अपने पुत्र को कभी संघर्ष देखने ही नहीं दिया, जिसके कारण वो जीवन के मूल्य सीख नहीं पाया और मेरी ही तरह बन गया।
तुम पूछ रहे थे ना क्या हुआ ?
बस यही सोच रहा था। मुझ से मिलने आने वाला है इसी वृद्धाश्रम में जहां मैंने भी अपने पिताजी को छोड़ा था।