Rahul Wasulkar

Drama Tragedy

3.5  

Rahul Wasulkar

Drama Tragedy

वृक्षताओं - भाग 1

वृक्षताओं - भाग 1

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वो कहते है ना दुष्ट प्रवित्ति के लोग चाहे कितना भी अच्छा बनने का दिखावा कर ले, लेकिन वे अपनी दुष्ट प्रवित्ति को त्याग नहीं कर सकते है तो चलिए एक ऐसी जंगल की कहानी बताने जा रहा हूँ ।


वैनगंगा नदी के तट पर, मणा नाम का जंगल था। विशाल और हरे भरे पेड़ो और वन्य जीवों का सुरक्षित घर जब में जंगल कहता हूं इसका मतलब है छोटे-बड़े हर तरह के पेड़ों और झाड़ियों की घनी बस्ती। इसका मतलब है अँधेरी और खूँखार हरियाली का एकांत। इसका मतलब है जड़ों के नीचे की अपनी धरती, सिर के ऊपर का अपना आकाश, चारों तरफ की हवा..

वही रहता था वृक्षताओं,करीब 40,50 फुट का वृक्ष जो मानव शरीर की तरह चल सकता, सोच सकता था और मणा जंगल की रखवाली करता था।


3,4 शताब्दियों से जंगल की रखवाली करने वाले वृक्षताओं ने कभी किसी मनुष्य को हानि नहीं पहँचने दी, नाही किसी को मणा जंगल के भीतर आने दिया। वही नदी की दूसरी और राजा विधुकर की अपनी नई नगरी की निर्मित कर रहा था। वो जानता था कि मणा जंगल में वृक्षताओं रहता है और किसी भी तरह वहां वो जा नहीं सकता और नगरी के लिए जंगल से वृक्ष नहीं तोड़ सकता, पर दुष्ट अपनी प्रवित्ति कभी छोड़ नहीं सकते, इस लिए राजा विधु ने एक युक्ति अपनाई। 

नदी के तट वृक्षताओं से भेंट करने का निर्णय लिया।


सूरज की रोशनी के साथ, राजा विधुकर अपने काफिले के साथ तट पर पहुँचा। शंखनाद हुआ, नगाड़े बजे और वृक्षताओं को आवाज़ लगाई। सुबह के पक्षियों के मधुर गीतों में भींचकर आने वाली आवाज़ से, क्रोधित होकर।..तट के समीप के खड़े पेड़ो के बीच से निकलकर वृक्षताओं, विधुकर के सामने आ गया।

वृक्षताओं- " ये क्या बदतमीजी है ? "

विधुकर - क्षमा चाहता हूं, वृक्षताओं। (विधुकर अपना शीश झुकाकर) 

वृक्षताओं - क्या चाहते हो, विधुकर ?  

विधुकर - हे जंगलराज, मैं आपसे शमा मांगता हूं और बस इतनी विनती करता हूँ कि जंगल के बीच से एक पंगडंडी बना दीजिए जिसे मेरे सैनिक नगरी के लिए महत्वपूर्ण सामग्री उस छोर से इस छोर ला सके। 


वृक्षताओं - (क्रोध में )विधुकर तू जानता है, आज तक मेरे जंगल में मैंने किसी भी मनुष्य को अंदर आने की अनुमति नहीं दी, नाही कोई अंदर आ सकता है, फिर बेफिजूल मांग का अर्थ क्या है ? (वृक्षताओं जंगल की और मुड़ कर जाने लगा )

 

विधुकर - श्रीमान वृक्षताओं, रुकिए। मैं जानता हूँ इस जंगल के सभी पेड़ पशु पक्षी आपकी संपदा है आप अपने प्राण उनपर निछावर करते है, लेकिन मेरी समस्या भी समझिए, मेरी प्रजा जो एक नगरी बना रही है मैं भी उनके लिए ही यह सब कर रहा हूँ, जिस प्रकार आप अपने जंगल से प्रेम करते है मैं भी अपनी प्रजा से करता हूँ, मेरा राज्य आपके जंगल की दूसरी और हैं वहाँ से खानपान की सामग्री यहां तक घुमकर लाने में बहुत समस्या होती है, बहुत सा खान की सामग्री खराब हो जाती है। इसलिए में आपसे यह मांग कर रहा हूँ।

वृक्षताओं - मैं मनुष्य पर विश्वास नहीं कर सकता, विधुकर तुम जानते हो। 

विधुकर - मैं जानता हूँ जंगलराज, आपके लिए यह मुश्किल है पर मेरी भूखी प्रजा के बारे में ही भी जरा सोचिए, वो आपके ही बेटों की तरह है मतलब आपके पेड़ और पशु- पक्षियों की तरह।

वृक्षताओं - हम्म्म ठीक है, विधुकर, जंगल के बीच एक पगडंडी का इंतज़ाम हो जायेगा, पर याद रहें जो उस पगडंडी को तोड़कर मेरे घने जंगल मे आने का प्रयास करेगा, उसे में वैनगंगा माँ नदी के बहाव में छोड़ दूँगा, फिर वैनगंगा माँ ही उसका फैसला करेंगी। 

विधुकर - मंजूर है जंगलराज, मैं आपको वचन देता हूँ ऐसा कुछ नहीं होगा।


पगडंडी बन गयी , करीब 20,25 दिन मणा जंगल के बीच से काफिले गुजरते रहेमनुष्यों ने कोई नियम नहीं तोड़े यह देख वृक्षताओं खुश हुआ, अब वो भी आने जाने काफिलों को नज़रअंदाज़ करने लगा। 

एक दिन यूं ही राजा विधुकर भी जंगल की ओर बड़ा, और पंगडंडी से होकर जंगल के बीच पगडंडी पर रुक गया अकेला। 

और वृक्षताओं को आवाज़ लगाने लगा । 


वृक्षताओं के आने पर ...

विधुकर नतमस्तक हुआ

यह देख वृक्षताओं बहुत प्रसन्न हुआ। 

वृक्षताओं - उठो, विधुकर में तुम्हारी नम्रता से प्रसन्न हुआ , बोलो कैसे आना हुआ।

विधुकर - श्रीमान वृक्षताओं, मैं आपको खुद मेरी नगरी देखने के लिए निमंत्रण देना आया हूँ, मैं चाहता हूं कि मेरी प्रजा भी आपसे रूबरू हो और डरे नहीं , और आपका आभार व्यक्त करें। इसलिए में स्नेह निमंत्रण खुद आपके समक्ष आया हूँ।

वृक्षताओं - विधुकर, मैं तुम्हारे निमंत्रण का अपमान तो करना नहीं चाहता पर मैंने अपने इस घर को अकेले छोड़कर कभी कही नहीं गया। 

विधुकर - मैं जानता हूँ जंगलराज, पर आपको जाना ही कितना दूर है बस नदी की उस पार कुछ क्षण बिताने है । मेरे लिए यह बहुत सौभाग्य की बात होंगी की आप वहां आये, और बस कुछ क्षण बिताकर अपने घर लौट आये।

वृक्षताओं - ठीक है विधुकर आज कल शाम में तुम्हारी नगरी में प्रस्थान करूँगा। 

विधुकर - ( प्रणाम करते हुए ) मैं आभारी हूँ जंगलराज, आपने मुझे यह कहकर कृतार्थ किया है।


( यह कहकर

विधुकर अपने नगरी जाने लगा ) 

भाग 2 जल्दी ही।



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