*बहिरो चाची*
*बहिरो चाची*


तकरीबन पैंतीस साल के बाद अपने उस जगह पर गई थी जहाँ मेरा बचपन और किशोरावस्था बिता था। मुझे भी सब आश्चर्य से देख रहे थे और मैं भी ,कहाँ तो साथ में खेलते-कुदते थे,शैतानियाँ करते थे,एक दूसरे से गुत्थमगुत्था होकर मारपीट करते थे वह सब छरहरापन गायब हो गया था।सब अधेड़ हो गये थे सबपर उम्र का प्रभाव था। किसी के घुटने में दर्द था तो किसी को मोतियाबिंद की शिकायत थी ,कोई नकली बतीसी चमका रहा था तो कोई माला फेर रहा था।खैर सबसे मिलने के बाद मैं बहिरो चाची से मिलने गई यह नामकरण उनका अब हुआ था।मैंने उन्हें प्रणाम किया।
मैं--"चाची प्रणाम"
चाची--"के बाड़ु हो?"
मैं--"चाची हम मृदुल"
चाची--"अमरूद!अमरूद बेंचताड़ु का?"
मैं---"अरे ना चाची हम पाठक जी के छोटकी बेटी हईं-मृदुल-मृदुल।"
चाची--"एहिजा कहाँ कोई फाटक बा हमरा के वेवकूफ समझ ताड़ु।"
उनकी बेटी ने जोर से कहा-"ऐ माई ई पाठक बाबा के छोटकी बेटी बाड़ी नईखे चिन्हत?" शायद उसके बोलते ही चाची के दिमाग का कोना खुला वो बोलीं "ढेर बुड़बक ना बुझ ये बछिया तुं हम्मर माय बाड़ु की हम तोहार?पाठक जी के दु बेटी और एक ठे बेटा रहल । मंजु और मृदुल और जयंत।हई मृदुल बाड़ी कि मृदुल के फूलौता।मृदुल त पातर -दुबर सुंदर लड़की रहली, हई त कौनों मोटगर भईंस लागतिया।" और गुस्साते हुये चाची अंदर चली गईं। मेरे कायापलट का इतना सुंदर वर्णन शायद ही किसी ने किया हो ।
मैं भी बहिरो चाची से सहमत होकर बाहर आगई।