Anupama Thakur

Tragedy Inspirational

4.1  

Anupama Thakur

Tragedy Inspirational

भारत बंद

भारत बंद

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मध्य रात्रि में अचानक बच्चे के रोने से पुनिया और माधव दोनों परेशान हो गए घर में दूध भी नहीं था जो उसे पिला सके पुनिया ने जैसे- तैसे अपनी सुखी छाती उस 2 साल के बच्चे के मुँह में दी, जिसे वह जोर -जोर से खींचने लगा पर उसमें से भी उसे कुछ ना मिलने लगा तो फिर वह बिलख - बिलख कर रोने लगा। मटके में से एक कटोरी भर पानी निकालकर पुनिया उसे पिलाने लगी पर पानी से कहाँ क्षुधा शांत होती है।

रो-रोकर बालक स्वयं ही सो गया। माधव को कहाँ पता था कि यह भारत बंद इतना लंबा जाएगा। वह तो रिक्शा चला कर जैसे-तैसे रोज कमाता और रोज खाता। जब उसने भारत बंद का समाचार सुना तो उसका ह्रदय काँप गया, समझ में नहीं आया कि कैसे गुजारा होगा। फिर भी हिम्मत कर उसने जितने रुपए उस दिन कमाए थे, उससे 3 किलो चावल, आधा लीटर तेल और 1 किलो दाल ले पाया। दो दिन में ही यह राशन हवा हो गया। तीसरा दिन पानी के घूंट पी - पीकर गुजरने लगा पर  उस नन्हे बालक को क्या देते ? दुबला - पतला तथा लंबे कद काठी वाला, दसवीं कक्षा तक पढ़ा माधव अपना गांव छोड़कर शहर इसलिए आया था ताकि पेट भरने का इंतज़ाम हो सके। नई ब्याहाता पूनिया बिल्कुल देहाती रहन -सहन वाली, साँवला रंग एवं दुबली- पतली, ठिंगनी देह  परंतु हर परिस्थिति  से जूझने की ताकत रखती थी। माधव सिर पर हाथ लगाए चिंता में सोचने लगा कि अब क्या किया जाए। चिंता में कब रात गुजरी पता ही नहीं चला। सुबह फिर से वही परेशानी। बच्चे के लिए दूध और दोनों के लिए भोजन जुटाना।


माधव ने एक दृष्टि दीनू पर डाली, आँसू लुढ़क कर ऐसे ही गालों पर सूख गए थे। वह कुछ क्षण लगातार दीनू को देखता रहा और मन ही मन कुछ निश्चय कर भोर में ही कमरे के बाहर निकला गया, अंधेरा अभी पूरा छंटा भी नहीं था, गलियाँ सुनसान थी। मदद भी माँगे  तो किस से? हाथ में गिलास लिए माधो बहुत देर तक वहीं मोड़ पर खड़ा रहा। निराश होकर वह अपने मकान की ओर लौटने ही लगा था कि तभी मुँह पर रुमाल लगाए, एक दूधवाले को आते देखा। माधो ने उस दूध वाले को रोककर बच्चे के लिए थोड़ा दूध मांगा, दूधवाला जैसे देवदूत था वह बिना बताए ही सब कुछ जान गया। उसने माधव को गिलास भर दूध दिया और घर में रहने की हिदायत देकर चला गया। माधव के कदम अब जल्दी-जल्दी अपने मकान की ओर बढ़ने लगे। उसे अपने बच्चे के रोने की आवाज़ सुनाई देने लगी । मकान में पहुँचकर उसने देखा पूनिया, दीनू को गोद में लेकर , बैठे बैठे ही ऊंघ रही थी। रात भर सो नहीं पाई थी वह।एक तो खुद के पेट में आग लगी थी और दूसरे दीनु भी भूख के मारे रो रहा था। उसने दोनों को बिना जगाए ही धीरे से बर्तन लिया और दूध गर्म करने लगा। दूध में उबाल आने पर उसने चूल्हा बंद कर दिया और खुद भी वहीं दीवार से सटकर बैठ गया। उसके मस्तिष्क में विचारों का तूफान थमने का नाम ही नहीं ले रहा था। दूध का इंतज़ाम तो हो चुका था पर अभी भी उसके और पुनिया के भूख का इंतज़ाम नहीं हुआ था। भूखे पेट कितनी देर सोया जा सकता था। कुछ ही देर में दीनु जोरों से रोते हुए उठ गया और पुनिया को भी उठना पड़ा। दीनू को रोता देख पुनिया के चेहरे पर चिंता साफ नजर आ रही थी। माधव ने बीना कुछ कहे ही एक कटोरी में दूध लिया और चम्मच रख कर पुनिया को दिया। पुनिया ने पूछा, "यह दूध कहां से लाए हो ?" उसने कहा, "था कोई देव मनुष्य, जो हमारे बच्चे के लिए दूध दे गया।" पूनिया दूध पिलाने में व्यस्त हो गई। दीनू का पेट भरने पर वह हाथ पैर मार-मार कर खेलने लगा। पुनिया की समझ में नहीं आ रहा था कि अब वह चूल्हे पर क्या पकाए। उसने सभी डिब्बों को खंगालना शुरू कर दिया।  इसे दैवी कृपा ही कहो, उसे एक डिब्बे में चावल की थोड़ी सी चूरी मिली।  उसके चेहरे पर संतोष दिखाई दिया।  उसने पतीला लिया उसमें पानी और नमक डाला। चूरी को अच्छे से चुन लिया और धोकर उसे पानी में छोड़ दिया। उस दिन चावल का पानी पीकर दोनो ने अपनी क्षुधा शांत की।  

माधव की समझ में नहीं आ रहा था, अब दूसरे दिन का क्या?  तभी उसके मस्तिष्क में विचार आया क्यों ना गांव लौट चलें। उसने पुनिया से कहा,  "पुनिया हम गांव लौट जाते हैं।" पुनिया ने पूछा कैसे जाएंगे? ना बस है और ना ट्रेन है, और ना ही हाथ में पैसे।"  माधव के चेहरे पर निर्भयता और दृढ़ता के भाव झलकने लगे। उसने कहा, "ना ट्रेन , ना बस, ना सही , हम पैदल ही जाएंगे।" पुनिया ने कहा, "पागल हो गए हो क्या?" गांव यहां से 120 किलोमीटर दूर है और पैदल कैसे जाएंगे माधव ने उसी निर्भयता से कहा, "वह मुझे नहीं पता पर एक बार चलना शुरू करेंगे तो अवश्य पहुंच जाएंगे।"  पुनिया ने भी सोचा गांव जाएंगे तो कम से कम अपने लोगों के साथ तो रहेंगे, चाहे रूखी - सूखी ही क्यों न खानी पड़े। यह तो बेगानों का शहर है। कोई किसी से बात तक नहीं करता । इसलिए उसने भी माधव का विरोध नहीं किया। जो दो- चार चीजें जुटाई थी, वह एक थैली में डाल दी और रात होने पर बच्चे को लेकर रास्ते पर निकल पड़े। चलते- चलते सांसे फूलने लगी, गला सूखने लगा तो वहीं रास्ते के किनारे थोड़ी राहत ले लेते। चलते- चलते पूरी रात बीत गई। कभी माधव थैली लेता तो कभी दीनू को गोद में लेता पर दोनों की हिम्मत कमाल की थी। शायद परिस्थितियां ही सामना करने की हिम्मत भी देती है। जैसे ही भोर हो गई , दोनों की मुश्किलें भी बढ़ गई। रास्ते में उन्हें अकस्मात ही गोल मटोल एवं श्याम वर्ण के एक दरोगा ने रोका और पूछा, अरे डंडा बजाते हुए पूछा, "कहां जा रहे हो ?" पुनिया डर गई। पर  माधव बिल्कुल निर्भय होकर कहने लगा, "हमारे गांव जा रहे हैं साहब।" उत्तर सुन कर दरोगा ने माधव को नीचे से ऊपर तक देखा और पूछा, "कहां है गांव?" माधव ने कहा, "गाँव 120 किलोमीटर की दूरी पर है साहब।" दरोगा ने माथे पर हाथ लगाया और लंबी सांस छोड़ते हुए व्यंग एवं चिंता से पूछा "पैदल जाओगे?" माधव ने कहा, " क्या करें , न काम है न धंधा, भूखे मर रहे हैं।"  दारोगा की समझ में नहीं आया कि वह क्या उत्तर दे। उसने बच्चे पर दृष्टि डाली और कहा, "इस बच्चे को रास्ते में कुछ हो जाए तो, क्या करोगे?" जहाँ हो वहीं रहते तो सरकार तुम्हारी मदद अवश्य करती।"  

माधव ने कहा," सरकार की मदद हम तक पहुंचने तक यह बच्चा मर जाता, ऐसे में इसकी भूख का इलाज जरूरी था।" दारोगा भी अच्छी तरह जानता था कि सरकारी सुविधाएँ सभी को मिले यह संभव नहीं है। उसने पूछा, " कब से चल रहे हो?" माधव ने कहा, "कल रात 9:00 बजे से शुरू किया है, तब से बस चल ही रहे हैं।" अब तो दरोगा का भी दिल फिसल गया। वह मन ही मन इस महामारी को कोसने लगा । उस ने माधव से पूछा, " कुछ खाया- पिया भी है या नहीं ?" माधव कुछ देर खामोश रहा, फिर कहा, "नहीं बाबू जी, कहाँ से खाते, इस खाने के चक्कर में ही तो भटकना पड़ रहा है।" दरोगा ने कहा, "ठीक है, वहां तनिक बैठ जाओ।  वह खुद मुड़ गया और वहीं दीवार पर रखी एक थैली से एक डिब्बा निकाल कर ले आया। उसने माधव की ओर बढ़ाते हुए कहा, "इसमें रोटी -सब्जी है खा लो और बच्चे को भी थोड़ा- थोड़ा चूर कर कर खिला देना। मैं देखता हूं यहाँ कहीं दूध मिलता है क्या?" माधव और पुनिया की आंखों में आँसू आ गए। पुनिया ने रूंधे हुए गले से कहा,  "बाबू जी यह आपका खाना है, आप हमें खिलाएंगे तो आप क्या खाएंगे?" दारोगा ने कहा, "चिंता मत करो मैं दूसरा डिब्बा मंगवा लूँगा , पहले हाथ सामने करो।

माधो और पुनिया ने हाथ सामने किया तो दरोगा ने उनकी हथेलियो पर सैनिटाझर  डाला और हथेलियों को रगड़ने के लिए कहा। इसके पश्चात दरोगा ने एक दूसरे कॉन्स्टेबल को आवाज़ लगाई और कहा " जरा देखो यहाँ कहीं इन घरों में जाकर, कोई इस बच्चे के लिए थोड़ा सा दूध दे दे।" कॉन्स्टेबल ने कहा, "जी सर।" और वह चला गया। कुछ देर बाद वह एक छोटी सी बोतल में दूध ले आया। माधव और पुनिया उस अन्न को ग्रहण करते हुए दरोगा को हजारों दुआएँ देने लगे। उनका संकल्प अब और दृढ़ होने लगा। उनकी समझ में आ गया कि ईश्वर उनके साथ है। भोजन कर उन्होंने दरोगा से अनुमति मांगी। दरोगा ने दूध की बोतल देते हुए कहा, "देखो इसकी अनुमति तो नहीं है पर इस छोटे से बालक की ख़ातिर मैं तुम्हें जाने दे रहा हूँ । अभी और कितनी दूर है तुम्हारा गांव ?"

माधव ने कहा, "बस अब 50 -60 किलोमीटर की दूरी पर है, जल्दी-जल्दी कदम उठाकर पहुंच जाएंगे साहब।" दरोगा को पता था वह इनको छोड़कर गलत कर रहा है पर वह जानता था कि ईश्वर भी मासूम और बेबस लोगों को सताना पसंद नहीं करते। दरोगा ने कहा , "देखो, किसी के निकट मत जाना, खुद का और इस बच्चे का ध्यान रखना।"  माधव और पुनिया ने दरोगा को प्रणाम किया और फिर अपनी पद यात्रा पर निकल पड़े। चलते -चलते थक जाते तो किसी पेड़ की छांव में बैठ जाते। चलते -चलते रात हो गई। पुनिया काफी थक चुकी थी। उसने माधव से कहा, "कहीं रुक कर रात गुजार लेते हैं।" माधव ने कहा, "उसकी जरूरत नहीं, वह जो सामने रोशनी नजर आ रही है ना वही हमारा गांव है, बस थोड़ा ही चलना है।" रोशनी देखकर पुनिया भी उत्साहित हुई और बड़े-बड़े कदम उठाने लगी। दो-तीन घंटे लगातार चलने पर भी गांव कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। चंद्रमा की रोशनी में दोनों चल रहे थे। पुनिया को डर लग रहा था। दीनू ने भी रोना शुरू कर दिया।

रास्ते में एक मंदिर दिखाई दिया। माधव पूनिया और दीनू को उस ओर ले गया, तीनों वहीं मंदिर की सीढ़ियों पर बैठ गए,  बोतल में जितना दूध बचा था पुनिया ने दीनू को पिला दिया। रात में सीढ़ियों पर काट कर भोर होते ही वे फिर से निकल पड़े। रास्ते में कुछ लोग खाना बांट रहे थे , माधव जाकर एक प्लेट खिचड़ी लेकर आया।  दोनों ने बैठकर खाया और थोड़ा नरम कर बच्चे के मुंह में भी डाला और फिर आगे बढ़े। दोपहर के समय में वे अपने गांव पहुंच गए। गांव को देख कर दोनो बहुत खुश हुए। उन्हें लगा कि उनके घरवाले, गांव के सखा , मित्र उन्हें देखकर बहुत खुश होंगे। 

ऐसी ही सुखद कल्पनाएं करते हुए वे गांव की सीमा पर आ गए। वहां पहुँचकर वे सन्न रह गए। गांव को चारों तरफ से लकड़ी के बांबुओ से घेरा डालकर नाकाबंदी कर रखी थी। दो- चार आदमी वहीं पहरा दे रहे थे। माधव ने निकट पहुंच कर उन सब को नमस्ते कहा और अपना परिचय दिया। उसने हरिया काका से कहा, "काका आपने मुझे नहीं पहचाना, "मैं माधव।" हरिया काका ने माधव को गौर से देखते हुए कहा, "अरे! तुम नंदू के बेटे हो ना? जो, मुंबई में रहता है। "  माधव खुश हो गया उसे लगा, अब उसे गांव में प्रवेश मिल जायेगा। खुशी से उसने कहा, "हां काका।" कुछ पल रुक कर हरिया काका ने कहा, "देखो माधव! तुम हमारे गांव के हो और इस गांव पर तुम्हारा पूर्ण अधिकार भी है पर क्योंकि तुम मुंबई से आए हो तो पहले तुम्हें अपनी जांच करानी होगी।" उन पांचों में से किसी ने डॉक्टर और पुलिस को भी सूचना दे दी थी।  माधव कुछ कहे इस से पहले ही, देखते ही देखते वहाँ पुलिस और डॉक्टर, नर्स आ गए। माधव ने उन्हें समझाने का बहुत प्रयत्न किया कि वह तो बिल्कुल तंदुरुस्त है । उसे सर्दी, खांसी बीमारी के कोई लक्षण नहीं है और न ही उसके पत्नी और बच्चे को है। पर किसी ने उसकी एक न मानी । इसे अपने गांव से ऐसी अपेक्षा नहीं थी। एक ही पल में उसके सारे अपने उससे दूर हो गए थे। न ही उसके घर वाले भी उसे अपनाने को तैयार थे। तीनों को गांव के अस्पताल में ले गए और वहां तीनों की जांच हुई। रिपोर्ट आने तक उन्हें 14 दिन तक उसी अस्पताल के कमरों में रहना था। माधव और पुनिया निराश थे। उन्हें अपने निर्णय पर पछतावा होने लगा। वे सोचने लगे, "क्यों छोड़ा उन्होंने मुंबई?"  अपने लोगों के लिए ना और यहां कोई उन्हें अपनाने के लिए तैयार नहीं है। ना ही कोई उनके निकट आना चाहता है। वह यह सोच ही रहा था कि माधव की काका दोनों के लिए भोजन और बच्चे के लिए दूध लेकर आए। पर वे भी अस्पताल के बाहर खड़े थे। माधव ने वहीं पर खड़े होकर उनसे बात की और उन्हें समझाने का प्रयत्न किया कि उन्हें किसी तरह की सर्दी खांसी बुखार नहीं है। काका जी ने माधव को समझाते हुए कहा माधव तुम लंबी यात्रा तय करके आए हो, रास्ते में तुम कई लोगों से मिले हो। यह जरूरी नहीं कि कोई लक्षण हो, कई बार बिना लक्षण के भी संक्रमण हो जाता है । यह सब तुम्हारी और हमारी बेहतरी के लिए है। तुम बुरा ना मानो। माधव के पास कोई दूसरा रास्ता ना था। वह मौन हो गया। 2 दिन बाद उनकी जांच की रिपोर्ट आई। दुर्भाग्य से पुनिया और माधव दोनों संक्रमित पाए गए। भगवान की कृपा थी कि बच्चे को अभी तक किसी प्रकार का कोई संक्रमण ना था। जब माधव को यह बात पता चली तो वह हैरान रह गया। अब दोनों के सामने यही प्रश्न था कि बच्चे को अलग कैसे किया जाए। उसकी देखभाल कौन करेगा? गांव में सभी को यह बात पता चल चुकी थी। उतने में वहां पर मीरा काकी आई और उन्होंने कहा,  "बच्चे की चिंता ना करो बबुआ।" हम सभी गांव वाले उसे संभाल लेंगे।" नर्स के हाथों से उसने बच्चे को अपने पास मंगवा लिया। मीरा काकी बच्चे को लेकर गांव चली गई। माधव और पुनिया अब आश्वस्त हो गए उनकी समझ में आया कि गांव वालों ने जो किया वह उनकी भलाई के लिए ही किया। वे निश्चिंत होकर इस बीमारी से लड़ने लगे उन्होंने अपने शरीर की ताकत को बढ़ाने के लिए योग और प्राणायम करना प्रारंभ किया।  भगवत गीता और अन्य पुस्तकें पढ़ने में अपना मन लगाने लगे।

एवं उन सभी फरिश्तों को याद करने लगे जिन्होंने उनकी मदद की थी वह देवदूत दूधवाला, वह सच्चिदानंद दरोगा, अन्न बांटने वाला वह विधाता। सच्चाई और अच्छाई में उनका विश्वास और दृढ़ होने लगा। उन्हें विश्वास हो गया कि ईश्वर कभी डॉक्टर के रूप में तो कभी दरोगा के रूप में उनके साथ है।

8 दिन बाद उनकी दूसरी जाँच की रिपोर्ट भेजी गई , जो नेगेटिव आई। परंतु फिर भी उन्हें छुट्टी नहीं मिली और एक दूसरी जांच के लिए उन्हें वहां रुकना पड़ा।

8 दिन बाद फिर से उनकी तीसरी जांच की रिपोर्ट मुंबई भेजी गई और इस बार भी रिपोर्ट नेगेटिव आई। यह सब पुनिया और माधव के सकारात्मक सोच का नतीजा था। उन्होंने यही सोचा कि ईश्वर जो भी करता है वह भले के लिए ही करता है। वे शहर वासियों से भी ज्यादा गांव वालों की बुद्धिमानी, सतर्कता, सावधानी एवं समझदारी से अचंभित थे। इतनी जागरूकता तो उन्हें मुंबई जैसे शहर वासियों में भी दिखाई नहीं दी। उन्हें अपने गांव वालों का प्रेम समझ में आ गया ।

एक सकारात्मक सोच के साथ हम सबको मिलकर करोना को हराना है।


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