बगीचे की चुड़ैल
बगीचे की चुड़ैल


गर्मी की छुट्टियों में हम प्रतिवर्ष अपने गाँव बनारस जाया करते थे। वहाँ चाचाजी और उनका परिवार हमारी खूब आवभगत करते थे। उनके दो जुड़वा बेटे बिल्कुल मेरी उम्र के थे; अजय और विजय।
गाँव में हमारा एक आम का बगीचा और बहुत सारे खेत-खलिहान थे। बारिश इस बार जून में ही दस्तक दे चुकी थी। इधर पीले चमचमाते गेँहू का मस्तक धड़ से अलग हो चुका था और उधर धान की जरई अपनी बारी की बाट जोह रही थी।
इसी बीच चाचा ने एक शाम फरमान सुना दिया-
"कल शाम खेत में जरई लगाई जायेगी तो तुम लोग आज रात को खेत में पानी लगा देना।"
आदेश उनके दोनों पुत्रों के लिए था पर मैं भी कौतूहलवश कार्य में शामिल हो गया। रात में लिट्टी-चोखा का कार्यक्रम था तो हमने सोचा सुबह तड़के तीन बजे टिब्बुल(ट्यूबवेल) खोलकर पानी लगा देंगे।
गाँव में सुबह तड़के उठना कोई नई बात नहीं थी, ये तो हम नगरवासियों की विलासिता की देन है, की हम 9 बजे तक बिस्तर में पसरे रहते हैंi
उधर गाँव के ही लड़कों ने बताया की उधर मत जाना भैया। वहां बाग़ में आम के पेड़ पर एक औरत ने फाँसी लगा ली थी। वो चुड़ैल बनकर रात में वहाँ घूमती है, सबने देखा है। मैंने उनकी बातों को अनसुना करने की कोशिश की। पर सोते समय बार-बार वही ख्याल आ रहे थे। खैर, कुछ देर बाद मुझे नींद आ गयी।
अगली सुबह तीन बजे तय कियेनुसार हम पाइप लेकर खेत पहुचे और टिब्बुल खोलकर पानी चला दिया। मैं और विजय खेत में ही पानी से खिलवाड़ करने लगे वहीँ अजय पास के एक पेड़ की शाखा में पैर लगाकर उल्टा लटक गया और कसरत करने लगा।
अभी मैं और विजय एक दूसरे पर पानी उछाल ही रहे थे की धम्म से किसी के गिरने की आवाज़ आयी। हम भागकर उधर गये, देखा की अजय ज़मीन पर गिर गया है। लगता था की उसके पेट या छाती में चोट लगी थी क्यूँकी वह कुछ बोल नहीं पा रहा था। हम उसे उठाकर टिब्बुल वाले कमरे में ले गये। उसकी छाती मलकर हमने उसे पानी पिलाया की इतने में उधर फिर धम्म से कुछ गिरा। हमने वहाँ जाकर देखा तो होश उड़ गये। शरीर का एक-एक रोंया तन गया। पैरों के नीचे ज़मीन ग़ायब। चेहरा सफ़ेद पड़ गया। अजय फिर वहीं गिरा पड़ा था। सारा माजरा समझ के परे था। मेरी तो घिग्घी बंध गयी, बुत बना वहीं खड़ा रहा। विजय हिम्मत करके आगे गया। अजय का एक हाथ पकड़कर वो जैसे ही उसे उठाने को हुआ, अजय का शरीर पूरा हवा में तैरने लगा। मेरी चीख निकल गयी।
लेकिन विजय जाने किस मिट्टी का बना था। उसने अजय का हाथ छोड़ा नहीं बल्कि उसके पकड़कर अपनी ओर खींचने लगा। लेकिन उसके अकेले के बस का काम नहीं था ये। मैं जोर-जोर से बचाओ-बचाओ चिल्लाने लगा लेकिन मेरी आवाज़ जैसे उस बाग़ के बाहर जा ही नहीं पा रही थी।
"अबे चिल्लाना बन्द कर और मेरी मदद कर"- विजय की आवाज़ से मेरा ध्यान टूटा।
मैं तेजी से उसकी ओर बढ़ा पर ये क्या मैं खुद उल्टा हवा में उछल गया। जैसे किसी ने उठा कर फेंका हो। मेरा तो जैसे दम निकल गया। मैं उसी पेड़ से टकराया और नीचे गिर गया। इधर विजय पूरी दम से अजय को खींच रहा था पर न जाने कौन उसे रोक रहा था क्यूँकी इस पूरे वाक्ये में मुझे कोई दिख नही रहा था। खैर, उसने जैसे तैसे अजय को खींचकर कंधे पर लादा और मुझसे कहा "भाग गौरव! पीछे मुड़कर मत देखना।"
मैं तेजी से भागा तो सही पर अपनी मानवीय प्रकृति के कारण पीछे मुड़कर देख ही लिया। ठीक मेरे पीछे एक बिना सर का धड़ भाग रहा था।
मैं तुरंत बेहोश हो गया।
होश आने पर पता चला की वो बाग़ भूतिया है। वहाँ सुबह ४ बजे के आस-पास ही उस औरत ने फाँसी लगायी थी। उस समय जो उसे देख लेता है वो मर जाता है। मैं इसलिए बच गया क्यूँकी मैं बाग़ से बाहर निकल आया था, उसके बाद मैंने उसे देखा था।
इतने में ही विजय की आवाज़ आयी-
"चल भाई! पानी लगाने नहीं चलना है क्या खेत में"
मेरा सर घूम गया। अब फिर से ये क्या हो गया।
हड़बड़ाहट में मेरी आँख खुल गयी। पूरा शरीर पसीने से भीग गया था।
"क्या हुआ गौरव! तबियत ख़राब है क्या तेरी?"-
विजय ने पूछा।
"नहीं ,मैं....मैं ठीक हूँ"-
मैं समझ गया ये सब सपना था। मैंने रात में बहुत कुछ सोच लिया था, इसीलिए ये सपना देखा।
"मैं नहीं जाऊंगा।"
-कहकर मैं फिर से सो गया..... पर आँखों से नींद ग़ायब थी.....