Arunima Thakur

Romance

4.9  

Arunima Thakur

Romance

बदलाव

बदलाव

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"जून की इस चिलचिलाती धूप में किसने कहा था घर से निकलने के लिए तुझे" मैं अपने आप पर ही झुंझुलाई। बूढ़ी हो गई अक्ल नहीं आई। मंदिर ही जाना था ना, शाम को चली जाती। मेरा एक मन कुनमुनाया, "शाम को क्या कम धूप रहती है"? वैसे भी अभी 9:30 ही तो बज रहे हैं । पर इस सूरज को तो देखो जैसे पत्नी का गुस्सा हम पृथ्वी वासियों पर उतार रहा हो । चलते चलते मुझे चक्कर सा मालूम हुआ। मंदिर घर से बस दो कदम पर ही था। इतनी कम दूरी के लिए रिक्शा मिलता भी नहीं है और कुछ मेरा लालच की थोड़ी चहलकदमी हो जाएगी, रास्ते मे थोड़ी साग भाजी, फल खरीद लूंगी। रिक्शा में बार बार रुक रुक कर तो खड़े हो नहीं सकते ना । वैसे तो साग भाजी मेरे पति ही लाते हैं । मुझे चक्कर जैसा महसूस हुआ तो मैं वहीं फुटपाथ पर भाजी का थैला रखकर बैठ गयी। हाँ भाई दिमाग को इतना सक्रिय तो रखना ही पड़ता है। वहीं खड़े गिरती और हड्डी वड्डी टूट जाती तो बुढ़ापे में हड्डी जुड़ती भी नहीं है । थोड़ी देर बैठने के बाद भी उठने की हिम्मत नहीं हो पा रही थी। बहुत लोग आ जा रहे थे, परिचित, अपरिचित। पर सुबह का सबका ऑफिस का टाइम, किसी ने भी रुक कर मुझसे पूछा नहीं ना हीं मैंने किसी को रोकने की कोशिश की। एक बार हाथ का सहारा लेकर फिर उठने की कोशिश की पर लगा कि जैसे गिर जाऊंगी। तभी एक कार रुकी उसमें से दो लड़कियां उतरी और बोली, "क्या हुआ आपको" ? 


यह दोनों कौन है ? इन्हें तो मैं नहीं जानती । उनमें से एक ने अपने बैग से पानी की बोतल निकाल कर मुझे थोड़ा पानी पिलाया। वास्तव में प्यास बहुत लगी थी । आज एकादशी थी सुबह चाय भी नहीं पी थी कि मंदिर से आने के बाद पियूँगी । पानी पीकर थोड़ा अच्छा लगा । मैंने कहा, "अब मैं ठीक हूँ । तुम लोग जाओ"। 


तो वो बोली, "ऐसे कैसे ? आपको अकेले कैसे छोड़ दें ? चलिए आप बैठ जाइए हम आपको घर छोड़ देते हैं"। 


मैंने कहा, "मेरा घर यही पास में ही है"।


वह बोलीं, "हाँ हम जानते हैं । हम आपके पड़ोसी हैं । हम अक्सर आपको गमलों में पानी डालते देखते हैं। आपका गार्डन बहुत सुंदर है। जब अंकल बाहर बैठकर अखबार पढ़ रहे होते है या चाय पी रहे होते है, आप उन पर पानी डालती हैं हमें बहुत अच्छा लगता है। इस उम्र में आप लोगों का प्यार, नजर न लग जाए आप दोनों को"। 


इतनी बातों के बीच कार ला कर दरवाजे पर खड़ी कर दी। दूसरी लड़की ने दरवाजा खोलकर मुझे उतारा और सहारा देकर अंदर लाने लगी । मैं बोली, "मैं ठीक हूँ, जुग जुग जियो तुम दोनों। तुम्हारे अंकल की तरह ही तुम्हें भी ख्याल रखने वाले जीवन साथी मिले"। 


 वह दोनों एक दूसरे को देख कर मुस्कुरा दी। मैं अंदर आ गई । पति ने आँखों के इशारों से पूछा, "क्या हुआ" ? तो मैंने बोला, "रास्ते में मिल गई थी तो घर तक छोड़ दिया"। वैसे तो मैं पति से झूठ नहीं बोलती हूँ। पर यह मेरी तबीयत का सुनकर बेकार में परेशान होंगे इसीलिए नहीं बताया । यह बोले, "झूठ नहीं बोल पाती हो तो मत बोला करो। वह लड़कियां ऑफिस जाने के बजाय घर की तरफ क्यों आएंगी"? अब झूठ मैं बोल चुकी थी । पर मुझे झूठा साबित नहीं होना था तो बोली, "अरे मुझे क्या मालूम । क्या पता ऑफिस जा रही हो। यह बोले, "पर मुझे पता है कि उनका ऑफिस इस तरफ नहीं है । वह अपने बाजू वाले घर में ऊपर की मंजिल पर रहती हैं और उनका ऑफिस......"। मैंने बात काटते हुए बोला, "सही कहा गया है मेंस विल बी मेन। आप भी ना सब खबर रखते हैं । यह मुस्कुराते हुए बोले, "सब की नहीं सिर्फ अपनी बुढ़िया की"। इनकी बाहों में सिमटी हुई मैं सोच रही थी कितनी प्यारी लड़कियां थी । 


कितनी ख्वाहिश थी हमें लड़कियों की, पर भगवान ने हमें तीन बेटे ही दिए। हाँ लड़की की चाहत में तीसरा भी बेटा ही हुआ। काश यह लड़कियां हमारी बहू बन सकती। फिर याद आया बेटियां तो अच्छी ही होती है पता नहीं बहू बनने के बाद क्या हो जाता है ? आज की प्यारी लड़कियां कल को किसी की बहु बनेगी। मेरी भी दोनों ही बहुये अच्छी हैं । पर सबके अपने - अपने घोंसले है । हम बुढे बुढ़िया अपने घोसले में (घोसले का मोह बच्चों से ज्यादा होता है) । पता नहीं क्यों चाय का कप पकड़ाते हुए यही बात मैंने अपने पति से कही तो वह मुस्कुरा कर चाय पीने लगे। फिर बोले, "तुम सच में नहीं जानती इन लड़कियों को" ? मैं अचरज से इनका मुँह देखने लगी । ना जाने ऐसी क्या बात है । यह कुछ नहीं बोले । 


अब सुबह या शाम पानी डालते या लॉन में बातें करते समय या पति से छेड़छाड़ करते समय एक नजर बगल के घर में ऊपर की चली जाती । पता नहीं देख तो नहीं रही है। वह दोनों होती तो हाथ हिलाती। बस इतनी सी पहचान थी । मैं हमेशा बोलती, "बड़ी प्यारी लड़कियां है"। 


ऐसे ही एक दिन मेरी एक सहेली जो मेरे मोहल्ले में रहती है वह आकर बताने लगी, "घोर कलयुग आ गया है । लड़कियां बेशर्म हो गई है। सुना है दोनों साथ साथ ही रहती है"। मेरी भी उत्कंठा जागृत हो गई। कौन है ? कहां रहती है ? ऐसे कैसे माँ बाप है, कैसे संस्कार दिए हैं ? हुआ क्या है पूरी बात बताओ। क्या रात बिरात आती है ? क्या लड़कों के साथ घूमती हैं ? "नहीं नहीं यह सब भी हो तो ठीक"।


मैं आश्चर्य से यह सब ठीक कैसे ? ऐसा क्या गलत काम करती है ? क्या ड्रग्स ? 


"अरे नहीं दोनों लड़की लड़की ....फिर मुँह दबाकर मुस्कुरा कर बोली, "वो क्या बोलते हैं ... समलिंगी। बताओ कितनी बेशरम है ना । और तुम्हें नहीं मालूम तुम्हारे पड़ोस में ही तो रहती है"। मैं तो आश्चर्य से जैसे फटी जा रही थी। वह लड़कियां तो कितनी अच्छी है । वह तो चली गई, पर मेरे देखने का नजरिया बदल गयी । अब मैं उनको देख कर मुस्कुराती नहीं थी । वह देखकर हाथ हिलाती तो मैं मुँह फेर लेती। यह बातें मेरे पति ने नोटिस की पर वह कुछ बोले नहीं । 


मेरे मन की तरह मौसम भी बदल चुका था । वह गर्मजोशी से उन लड़कियों को अच्छा मानने वाला मेरा मन भी मौसम की तरह सर्द हो गया था । मौसम बदलने की वजह से मेरे पति वायरल फीवर की चपेट में आ गए । दो दिन बीते थे यह पूरी तरह से ठीक हो पाते इससे पहले मुझे भी बुखार आ गया । वायरल के बाद कमजोरी वैसे भी बहुत हो जाती है । हम दोनों की तबीयत की तरह बाहर के पौधे भी सूख रहे थे । दोनों का ख्याल करने वाला कोई नहीं था। एक दिन मेरी सहेली का फोन आया कि कैसी हो ? मैंने बताया वायरल फीवर है तो वह इतना बोल करके ध्यान रखना। उसने भी अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली। जरा से बुखार में बच्चों को क्या खबर करना। चौथे या पांचवें दिन की बात है, दरवाजे की घंटी बजी मेरे पति ने बड़ी मुश्किल से उठ कर जाकर दरवाजा खोला । वह दोनों लड़कियां खड़ी थी। "अंकल क्या हुआ ? आंटी कहां है ? क्या कहीं बाहर गई है ? आपको क्या हुआ ? इतने में मैंने पूछा, "कौन है जी ? वे दोनों अंदर आते हुए बोली, "अरे आंटी क्या हुआ आपको ? फिर उनके पचासों सवाल, दवा खाई ? डॉक्टर को दिखाया ? कुछ खाया ? घर का तो हाल बेहाल था । फल सब्जी तो दूर घर में दूध भी नहीं था । हालत यह थी कि दो दिन से कामवाली भी नहीं आ रही थी । उसके बच्चे को भी बुखार था। पलक झपकते ही मेरे घर की बागडोर उन दोनों ने संभाल ली। एक जाकर दूध और सब्जी लेकर आयी। दूसरी ने किचन साफ किया, चाय बनाकर पिलायी। सर्दी का मौसम था इसलिए सारी खिड़की दरवाजे बंद रखे थे । उन्हें ताजा हवा आने के लिए खोल दिये। पानी गर्म करके इनको नहाने को बोला। यह बोले, "बुखार था बेटा"। वह बोली, "अंकल हल्का सा स्पंज ही कर लीजिए और कपड़े बदल लीजिए, अच्छा लगेगा। एक ने मेरी स्पंजिंग की। मुझे आदत नहीं थी, थोड़ी शर्म आ रही थी पर माँ की तरह एक ने मुझे पोछकर कपड़े बदल दिए । पलंग की चादर तक बदल दी और मुझसे कहा आंटी मैं आपको सहारा देती हूँ आप मंदिर में दिया लगा दो । आपके भगवान कब से ऐसे ही बैठे हैं । पढ़ी-लिखी लड़कियां भी भगवान को मानती हैं ? वो भी ऐसी लड़कियां । 


अब मैं उन्हें, उनके क्रियाकलापों की ध्यान से देख रही थी। क्या अंतर है इनमें और सामान्य लड़कियों में ? फिर हमारे मना करने पर भी वह हमें बैठाकर डॉक्टर के पास ले गयी। डॉक्टर ने थोड़ी सी शक्ति और सामान्य दवाएं दी। वाकई में तो हमारी तबीयत उनके अपनेपन से ही ठीक हो गई थी। वापस आने के बाद एक सूप बनाकर ले आई । हम चारों ने बैठकर सुप पिया। खूब स्वादिष्ट बना था, या दो दिन के भूखे पेट को कुछ खाने को मिला था । सूप पीते समय वह बोलीं, आपको हमारे बारे में पता चल गया ना ? इसीलिए आप शायद आजकल हमें अनदेखा करती हैं ना। कोई भी नही समझ पाता। हम ऐसे है यह हमारा दोष तो नही है ना। आज जब किन्नरों को भी सम्मानित जीवन जीने का अधिकार है तो फिर हमारे ऊपर लाँछन क्यो ? क्या हम दो अविवाहित सहेलियों की तरह जीवन भर साथ नही रह सकते ? हम घर के बंद कमरे में क्या करते है, समाज को यह जानने की क्या आवश्यकता है? शादी करना ना करना व्यक्तिगत अधिकार है।हम जैसे कुछ प्रतिशत लोगो के कारण सामाजिक व्यवस्था पर कोई संकट नही आएगा"। खाने में खिचड़ी बना कर खिला कर, दवाई खिला कर वह दोनों तो चली गई पर मुझे सोचने के लिए कुछ विचार दे गई।


 कोई किस तरह से किसके साथ जीना चाहता है यह अधिकार उसे होना चाहिए । जब कानून ने इसे मान्यता दी है तो समाज को क्या परेशानी है ? दो सहेलियों की तरह अगर वह साथ रहती है तो गलत क्या है ? ना जाने कितनी लड़कियां ससुराल में प्रताड़ित होती है तब तो समाज बचाने नहीं आता है ना । दहेज के लिए मार दी जाती है तब तो समाज चुप रहता है ना। पर दो लड़कियो ने एक दूसरे के सुख दुख में साथ रहने का फैसला लिया तो समाज को क्या तकलीफ है ? क्यों बातें बनाई जा रही है ? समाज के डर से दो लड़को से शादी करके वह घुट-घुट कर जिंदगी जीती तो समाज को परवाह नहीं थी । पर वह खुश है अपनी जिंदगी में तो समाज दुखी है ।


क्या मैं भी ऐसे ही समाज का अंग हूँ ? क्या यह मेरी बेटियाँ होती तो मैं इन्हें घुट-घुट कर जीने देती ? वैसे भी हम कहते हैं "जीवन बिताना नहीं जीवन जीना चाहिए" । मुझे मुस्कुराते देखकर पति बोले, "ले लिया निर्णय ? तुम समाज नहीं अपनी बेटियों के साथ होना"। मैंने दृढ़तापूर्वक कहा, "मैं अपनी बेटियों के लिए समाज को बदलने का प्रयास करूंगी। जो जिसके साथ खुश है उसे उसके साथ जीवन जीने की आजादी होनी चाहिए"।


अगले दिन जब वह आयी तो मैंने उनके हाथों को थामते हुऐ कहा, बड़ी ख्वाहिश थी बेटियों की। तुम्हारे रूप में हमारी ख्वाहिश पूरी हो गयी। इस अनजान शहर में तुम हमारी जिम्मेदारी हो और तुम दोनों के साथ रहने के फैसले का हम समर्थन करते है और हम हमेशा तुम्हारा साथ देंगें।



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