बचपन की होली
बचपन की होली
होली का त्योहार आते ही अपने बचपन की होली याद करने लगती हूँ, वो दिन भी क्या थे, हम सब मोहल्ले की लड़कियों का ग्रुप बहुत उधमी था, हम बस होली के आने के पहले ही खूब प्लानिंग करते थे।
हम सब होली के दिन अपने सब टोली के साथ बहुत दूर की सहेलियों के घर पहुँच जाते, ख़ूब हुड़दंग मचाते, फिर थक कर घर पहुँचते।
एक बार की बात है, मैं होली खेल कर घर पहुँची, घर में हमारे दूर के रिश्तेदार आये हुए थे, वो कट्टरपंथी थे, उन्होंने मेरे अब्बा से बोल अरे "मोलवी साहब" आपने अपनी बच्ची को होली वगैरह जैसे त्योहार से रोकते नहीं है,उनको मेरे अब्बा का जवाब था, "इन मासूमों में ये ज़हर न भरे" तो बेहतर होगा।
क्या त्योहार मेरा, क्या तेरा करते रहे, तो इंनसानियत ख़त्म हो जाएगी ...क्यों न हम बच्चों को एक अच्छा इंसान बनाएं।
मेरे अब्बा की ये बात दिल को छू गई, मेरे अब्बा उस वक़्त हॉयर सेकंडरी स्कूल में प्रंसिपल थे और मस्जिद में इमाम भी सारे मुस्लिम को पाँचों वक़्त नमाज़ की पढ़ाते थे।
कुछ सालों बाद में शादी हो कर दूसरे शहर आई, मेरे ससुराल वाले सरकारी क्वार्टर में रहते थे, वहाँ भी सब भी समाज के लोग एक परिवार की तरह रहते थे।कुछ लोगों को जो दूसरे समाज के थे, उन्हें पता था नई बहू पड़ोस में आई है वो कट्टर पंथी नहीं है। मेरी सास को सब "अम्मी जी" कह कर पुकारते थे, "होली" पर ज़िद करने लगे हम तो भाभीजी के साथ होली खेलेंगे, सास ने मना भी किया लेकिन वो लोग नहीं माने, मैं एक कमरे में बंद हो गई। मेरे पति ने ख़ुद दरवाज़ा बजा कर कमरा खुलवाया और सबसे कहा- थोड़ा गुलाल लगाओ बस, उस दिन लगा, मेरे घर में भी, मेरे अब्बा के ख़्यालात वाले मेरे पति है, उन्होंने सबका मान भी रखा ...।