बाबू जी
बाबू जी
कमरे से आती आवाजें लाली के कानों को भेद रही हैं, उसका मन चिंटू को खाना खिलाने में नहीं लग रहा, उसको दोनों भाइयों की बहस साफ -साफ सुनाई दे रही है।
"अरे छोटे! तू समझ नही रहा मेरी टूर वाली नौकरी है अक्सर बाहर ही रहता हूँ और तेरी भाभी की तबीयत भी ठीक नहीं रहती।"
"भैया! आप को भी मेरी मजबूरी समझनी चाहिए।"
"अच्छा ठीक है, अभी तू ले जा बाबू जी को अपने साथ, कुछ दिन बाद मैं देखूंगा क्या कर सकते है।" —बड़े भैया अपनी विवशता दिखा रहे।
"भैया ! आप तो जानते हैं मेरे बच्चे अभी छोटे हैं, रमा उन दोनों के साथ बाबू जी की देख भाल नहीं कर पाएगी मेरा तो पूरा दिन दफ्तर में ही निकल जाता है।"
"मैं जानता हूँ इस वक़्त बाबू जी को अकेला नहीं छोड़ सकते, माँ थीं तब ठीक था परररर....मैं भी अभी साथ ले नही जा सकता।" छोटे ने भी मजबूरी दिखा दी।
लाली का मन अब चिंटू को खाना खिलाने में बिल्कुल नहीं लग रहा है ।
"भैया ! आप दोनों से कुछ बात करनी है।" —लाली ने कमरे में प्रवेश करते हुए कहा।
"अभी नहीं हम जरूरी चर्चा कर रहे हैं।" —बड़े भैया गुस्साए।
"पर मेरी बात भी बहुत जरूरी है।" —लाली बोली।
"ठीक है ! तू बोल जल्दी।" —छोटे ने चिढ़ के कहा।
"अगर आप दोनों हाँ बोल दें, तो मैं बाबू जी को अपने साथ ले जाना चाहती हूँ। चिंटू के दादी - दादा के साथ उनको अकेला पन भी नही लगेगा।"
"हाँ! हाँ! क्यों नही तेरी जिद्द है तो यही ठीक, वर्ना हम दोनो भाई तो हैं ही बाबू जी की देखभाल के लिए।
'ठीक है, मैं सुबह जल्दी निकल जाऊँगी।" —लाली कहते हुए तेज कदमों से बाहर चली गई। मन मे एक ही विचार शोर मचा रहा कि फिर भी वह है तो पराई ही।