Bhawna Kukreti

Tragedy

4.8  

Bhawna Kukreti

Tragedy

औरतें

औरतें

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मई की बेहद गर्म दोपहर, तपती मैटाडोर खचाखच भरी थी, उमस से बुरा हाल हो रहा था । एक अजीब सी घुटन भरी हुई थी जरा हवा चलती और वह घुटन आगे से लेकर पीछे तक पहुंच जाती ।"उफ्फ़ !! यह कैसी जिंदगी हो गयी है !"कहकर उस अधेड़ औरत ने अपने चेहरे पर आया पसीना पोछा । बगल में बैठी औरत बोली "हां, इससे तो अच्छा घर में रहने वाली औरतें हैं ।कम से कम घर का काम निपटा कर सुकून से दो पल बैठ तो सकती हैं। यहां तो ऑफिस से धक्के खाकर घर पहुंचो तो सीधे किचन में घुसो। देर रात तक भी अगली सुबह क्या बनेगा,किसको क्या देना है,ऑफिस में क्या करना है,क्या होना है इस चिंता में रात की नींद भी सही नहीं होती।","चल भाई, कब तक रुकेगा ,गर्मी से मरे जा रहे" किसी न पीछे से जोर से कहा। मैटाडोर रेंगती चल पड़ी।


उन दोनों की बातें मैटाडोर में उनसे आगे बैठी सीट पर एक औरत सुन रही थी ।उसने पलट के उन दोनों को देखा और मुस्कुराई, सोचने लगी,दिन भर काम में खटते-खटते भी किसी की भी अपेक्षाएं पूरी नहीं होती। बात-बात पर ताने, बात-बात पर कमियां निकाली जाती हैं ।दो घड़ी बैठो तो उस पर भी उलहाने मिलते हैं । ना भी मिले तो दिमाग कहां शांत होता है ।घर के कोने कोने से खुद ही अपने लिए काम ढूंढता है। रात होते-होते थक के बदन चूर हो जाता है लेकिन सुबह उठकर फिर वही रूटीन शुरू होना है फिर वही हल्ला ।वही रूटीन काम वही जिंदगी कुछ भी तो नया नहीं होता ।यह कम से कम अपने काम से दो पैसे तो कमा लेती हैं। अपने मन का पहनती,ओढ़ती हैं। यहां तो दो पैसे के लिए भी तरसना पड़ता है ।यह सोचकर उसने गहरी सांस ली और चेहरे पर आए पसीने को पोंछा। बगल की खिड़की का काँच सरकाया तो बाहर से तेजी से गर्म बदबूदार हवा का झोंका आया ।शायद मैटाडोर किसी कूड़े के ढेर के बगल से निकल रही थी।पीछे बैठी औरतें चिल्लाई "अरे बंद करो ,ऐसे ही सर फटा जा रहा है। बीमार करवाओगी क्या?" उसने धीरे से वापस खिड़की बंद कर दी ।एक आदत हो गई थी कि कोई जोर से बोले तो चुपचाप अपने कदम पीछे खींच लो ।

पीछे की औरतें आपस मे बोलने लगीं,"एक भी छुट्टी नहीं बची है और मेडिकल अभी लेना नहीं चाहती ।मेरे बच्चों के एग्जाम हैं सोच रही हूं उनको तैयारी कराने के लिए उस वक्त ले लुंगी।"मगर बॉस लेने देगा तब ना,उसे तो टारगेट पूरा चाहिये,देखा नहीं कैसे एक झटके मे मैडिकल के नाम पर नौकरी से सुधा को बाहर किया था! बेचारी उसकी सैलरी से ही उसके घर का लोन और बच्चों की फीस जाती थी।"

"हाँ दुधारू गाय थी अपने घर की, अब क्या कर रही सुधा ?कुछ पता?","हाँ ,बेचारी बुरी हालात मे है,कोई आमदनी का जरिया नही हो रहा।घर मे खटती है, मगर कोई कद्र नहीं।"," सही कह रही हो जब तक कमा-कमा के दो तभी तक पूछ है वरना क्या घरेलू क्या कामकाजी?" आगे बैठी औरत फिर पिछे मुड़ी और बोली " मैडम जी औरत की कीमत तभी तक जब तक जान्गर काम आती रहे।" तीनों ने एक दूसरे को देखा ।

गर्मी अब बर्दाश्त से बाहर थी।"बहन जरा सा खिड़की खोल दो,गर्म हवा सही,साँस तो आयेगी।" खिड़की जरा सी खुल गयी।घुटन धीरे धीरे कम होने लगी,लोग भी उतरते चले गये।आखिर में ड्राईवर कन्डक्तर के अलावा महज ये तीन औरतें मैटाडोर मे रह गई थीं।अब मैटाडोर फूल्ल स्पीड में थी और खूब झटके दे देकर सड़क पर भाग रही थी। औरतें खुद का सीट पर सन्तुलन बनाये रख अपने ठिकानो का इन्तज़ार कर रहीं थीं।एक सर का पल्लू संभालने पर ध्यान टिकाए थी बाकी दो अपना पर्स ।


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