औघड़ का कमाल
औघड़ का कमाल


वैसे तो 'वैम्पायर' प्रेतों की एक शाखा है परंतु यूरोप के कुछ हिस्सों में इन्हें शरीरधारी माना जाता है। ऐसे शरीरधारी जो मर कर भी नहीं मरते। प्रस्तुत कहानी ऐसे ही एक भारतीय वैम्पायर की कहानी है।
गंगाधर औघड़ को आज बहुत दिनों के बाद अपना मनपसंद शव मिला था। जिसे उसने दिन रहते ही ताड़ लिया था और अंधेरा होने के बाद चुरा लाया था। ये शव किसी बाईस-तेईस वर्ष की युवती का था। इसके परिजन इसे गंगा जी में जल-समाधि देकर चले गए थे। शव के परिजनों ने जब श्मशान में अंतिम दर्शन के लिए शव का चेहरा खोला था उस समय गंगाधर औघड़ कुछ दूर बैठा चिलम फूंक रहा था। जैसे ही उसकी नजर शव पर पड़ी उसकी बांछे खिल गई। पहली नजर में शव कुंवारी स्त्री का लग रहा था। जिसकी उसे तलाश थी। श्मशान में सारे दिन अंतिम संस्कार करने वालों का मेला सा लगा रहता था परंतु शाम होते ही सारा मेला गायब हो जाता था। इसलिए गंगाधर को रात होने का इंतजार करना पड़ा। वो एक कुशल तैराक था। अंधेरा होने पर गंगा जी में उतर कर शव को खोज लाया। रात के दस बजे से उसका कार्यक्रम शुरू हो गया। पहले उसने स्वयं गंगा जी में स्नान किया। फिर शव को निर्वस्त्र करके शव को स्नान कराया। फिर कुछ प्रारंभिक पूजा करने के बाद पूरे शव पर सिंदूर मल दिया। अब वो शव लाल सिंदूर में पुता बड़ा ही भयानक लग रहा था। औघड़ ने कुछ मंत्र पाठ किया फिर शव का मुंह खोलकर मदिरा उड़ेल दी। मदिरा की पूरी बोतल खाली हो गई। औघड़ ने दूसरी बोतल उठाई और उसे भी शव के मुंह में उड़ेल कर बोतल खाली कर दी। यह सिलसिला तब तक चलता रहा जब तक कि मदिरा स्वत: ही शव के मुंह से बाहर नहीं गिरने लगी। इस बीच औघड़ लगातार मंत्र पाठ करता रहा। रात के तीन बज चुके थे। शव पहले हिलना शुरू हुआ और फिर उठ कर बैठ गया।
"मुझे रक्त दो।"
उठते ही शव कर्कश आवाज में बोला।
औघड़ ने एक मुर्गा पहले ही से व्यवस्था कर रखा था। जो पास ही बैठा अपने बलिदान होने की प्रतीक्षा कर रहा था। औघड़ ने उसे पकड़ कर एक झटके में उसकी गर्दन काट दी। बेचारा सिर्फ एक हल्की सी आवाज ही कर पाया। औघड़ ने उसका रक्त शव को पिला दिया।
मुर्गे का रक्त पीने के बाद शव फिर बोला-
"मुझे मनुष्य का रक्त दो। इससे मुझे तृप्ति नहीं मिली।"
"तुम्हें मनुष्य का रक्त अवश्य मिलेगा। मगर तुम्हें मेरे वश में रहना पड़ेगा।"
"मुझे मनुष्य का रक्त दो... मुझे मनुष्य का रक्त दो... मुझे मनुष्य का रक्त दो...।"
शव उठकर इधर-उधर हुड़दंग मचाने लगा।
"चाहे जितना उछल-कूद कर लो। जब तक मेरी बात नहीं मानोगी तब तक मैं तुम्हें मनुष्य का रक्त नहीं दूंगा। हां, मेरी बात मान लोगी तो इतना रक्त पिलाऊंगा कि तुम्हारी रक्त पिपासा मिट जायेगी।"
"मैं तुम्हारी बात मानती हूं।"
शव बोला।
इस पर औघड़ ने शव से त्रिवाचा भरवाया। शव ने त्रिवाचा भरा। औघड़ ने और भी क्रियाएं की और शव से कहा-
"मैं तुम्हें महादेवी नाम देता हूं। जब भी इस नाम को पुकारूं तुम्हें आना होगा। चाहे तुम कहीं भी हो। तुम्हारे ऊपर किसी भी तरह का शस्त्र असर नहीं करेगा। किसी तरह के विष, किसी प्रकार के रसायन, हवा-पानी और अग्नि भी तुम्हें क्षति नहीं पहुंचा सकेंगे। जल, थल और वायु में तुम्हारी समान गति होगी। तुम चीते की गति से भाग सकोगी। हां, लेकिन मंत्र पूरित वस्तुओं से सावधान रहना। मंत्र पूरित वस्तुएं तुम्हारा नाश कर देंगी। अब तुम जहां चाहे रहो, जिसका चाहे रक्त पियो।"
कहकर औघड़ ने अपने बायें हाथ की अनामिका उंगली चाकू से चीर डाली और उंगली से निकले रक्त को शव को पिला दिया। और पुनः कहा-
"हे अतृप्त आत्मा! मेरा रक्त पियो और सदैव मेरे वश में रहो।"
गंगाधर औघड़ ने महादेवी को स्वतंत्र कर दिया। और स्वयं अपने दैनिक कार्यक्रम में लग गया।
पुलिस हेडक्वार्टर में फ्लैश आयी कि शहर के व्यस्त इलाके में एक युवती का शव पड़ा है। एसीपी ठक्कर ने पुलिस की टीम बनाई और क्राईम सीन पर भेज दिया। पुलिस क्राईम सीन पर आयी और शव का पंचनामा करके, अपनी खानापूर्ति करके चली गई। शव के पोस्टमार्टम से पता चला कि युवती की मृत्यु शरीर से सारा रक्त चूस लिए जाने से हुई है। शव की गर्दन पर चार निशान ऐसे मिले जैसे किसी मांसाहारी पशु ने अपने दांत गडा दिए हों। इसके बाद तो जैसे हद ही हो गई। हर रोज चार-पांच शव मिलते। सभी शव बीस से तीस साल की उम्र के युवाओं के होते। कभी युवतियों के शव होते तो कभी युवकों के। पुलिस लाख कोशिश करने के बाद भी कुछ भी पता नहीं लगा पा रही थी। पन्द्रह दिन बीते जाने के बाद भी जब पुलिस पता लगा पाने में असमर्थ रही तब गृह मंत्रालय ने केस सीबीआई को सौंप दिया। सीबीआई अधिकारियों ने अनिरुद्ध कुशवाहा नाम के दबंग अधिकारी को केस सौंपा। अनिरुद्ध ने अपने हिसाब से अपने जैसे अधिकारियों और कर्मचारियों की टीम बनाई और काम पर लग गये। सप्ताह भर बाद कुशवाहा की टीम को खून पीने वाले उस हत्यारे की सूचना मिली। कुशवाहा ने आनन-फानन में उस जगह को घेर लिया जहां उसके होने की सूचना मिली थी। हत्यारी को देखकर कुशवाहा और उनकी टीम के दबंग अधिकारियों के रोंगटे खड़े हो गए। हत्यारी ने एक युवती की गर्दन पर अपने दांत गड़ा रखे थे। हत्यारी उस युवती का खून चूस रही थी। यदि खून का कोई कतरा गर्दन पर इधर-उधर फैलता तो हत्यारी उसे भी अपनी जीभ से चाट कर साफ कर देती थी।
"ऐ! खबरदार! छोड़ उसे।"
कुशवाहा ने गरज कर कहा। मगर वो अपना काम करती रही। जैसे उसने सुना ही न हो।
"छोड़ उसे। वरना गोली मार दूंगा।"
कुशवाहा ने दुबारा ललकारा। वो फिर भी अपना काम करती रही।
"सर! इसे गोली मार ही दिया जाय। सर, आर्डर करिये। ये चारों तरफ से घिरी हुई है। एक ही बार में इसके शरीर में इतनी गोलियां समा जायेंगी कि ये एक पल भी नहीं जी सकेगी।"
बगल में खड़े गुरनाम ने कहा।
"मैं चाहता तो था कि इसे जिंदा पकड़ा जाए। मगर जो ईश्वर की मर्जी।... फायर।"
कहते हुए कुशवाहा ने आज्ञा दे दी। एक साथ सात गोलियां हत्यारी के शरीर से टकरायीं। मगर ये क्या? उस हत्यारी के शरीर से टकराकर गोलियां जमीन पर गिर पड़ी। अब वो पलटी। उसने कुशवाहा की ओर देखा। कुशवाहा के शरीर में एक ठंडी लहर दौड़ गई। उसके जैसा दबंग व्यक्ति भी भय से थर-थर कांप गया। हत्यारी के पूरे शरीर में जीवन के कोई लक्षण नहीं थे। मुर्दों जैसी पथराई आंखें, बेरंग और सपाट चेहरा, चेहरे पर कोई भाव नहीं। लेकिन वो क्रियाएं जीवितों जैसी कर रही थी।
"हा...हा...हा...हा...हा...।"
वो हंसी। वीभत्स हंसी हसी। उस युवती को छोड़कर कुशवाहा की ओर लपक पड़ी। उसे अपनी ओर आते देख कुशवाहा ने उस अंधाधुंध गोलियां बरसानी शुरू कर दी। उसके देखा-देखी उसके साथियों ने भी गोलियां बरसाईं। मगर सब व्यर्थ। सिवाय गोलियों की बरबादी के और कुछ भी नहीं हुआ। हत्यारी कुशवाहा के करीब पहुंच कर एक दर्दनाक चीख मारकर कुशवाहा को धक्का देकर भाग खड़ी हुई। कुशवाहा बेहोश हो गए।
कुछ पलों की बेहोशी के बाद साथियों के प्रयास से कुशवाहा होश में आ गए।
"आश्चर्य है कि उस हत्यारी ने मेरा खून क्यों नहीं पिया? मेरे पास आकर वो चीखकर क्यों भाग गई?"
कुशवाहा ने अपने साथियों से कहा।
"सर! ऐसा तो नहीं कि आपने कोई यंत्र या ताबीज जैसी कोई चीज पहन रखी हो। इन चीजों में बड़ी ताकत होती है।"
सब इंस्पेक्टर शुक्ला ने कहा।
कुशवाहा को याद आया। कुछ दिन पहले ही वो और उनकी पत्नी दुर्गा जी के एक प्राचीन मंदिर में दर्शन के लिए गए थे। वहां उनकी पत्नी ने एक सस्ता सा लाकेट, जिसमें दुर्गा जी की एक छोटी सी मूर्ति लटक रही थी, अपनी कसम देकर पहना दी थी। लाकेट पर उन्हें विश्वास नहीं था मगर अपनी पत्नी की कसम के कारण उन्होंने उस लाकेट को नहीं उतारा था। शायद आज उसी ने उनकी जान बचायी थी।
"सभी लोग ध्यान से सुनो। सब के सब किसी न किसी देवी-देवता का कोई न कोई यंत्र बनवा कर पहन लें। हत्यारी इससे डरती है।"
"ॐ...ॐ...ॐ...।"
ॐकार की ध्वनि कुछ देर तक तो उस कक्ष में गूंजी फिर शांत हो गई। शायद ॐ की गुंजार कर रहा व्यक्ति किसी मानसिक या उपांशु जप में लग गया था। एक घंटे के बाद एक दिव्य सा दिखने वाला व्यक्ति उस कक्ष से बाहर आया। ये निरंजन बाजपेई है। ईश्वर के अनन्य भक्त। सदा दूसरों की सेवा में लगे रहने वाले। इनका भवन बहुत बड़ा नहीं तो बहुत छोटा भी नहीं था। पूरा जीवन सरकारी अधिकारी के तौर पर काम करने के बाद अब ये पेंशन पाते हैं। इन्होंने कभी किसी से एक रूपया भी रिश्वत के तौर पर नहीं ली। अपने भरसक सरकार और समाज की सेवा ही करते रहे। कक्ष से बाहर आकर इन्होंने चाय गुहार लगाई और अखबार लेकर बैठ गये। पहले पन्ने पर ही कुशवाहा और उनकी टीम का कारनामा छपा था। निरंजन बाबू ने पूरा समाचार पढ़ा और आंखें बंद करके ध्यान मग्न हो गये।
"हूं...। तो ये बात है।"
निरंजन बाबू बुदबुदाये। तभी उनकी बहू चाय-नाश्ता लेकर आ गई।
"बाबूजी, चाय!"
"बेटी, मैं चाय पीकर बाहर जा रहा हूं। कुछ काम है। दोपहर तक वापस आ जाऊंगा।"
"अच्छा बाबूजी।"
बहू फिर वापस रसोई में चली गई। निरंजन बाबू भी चाय पीकर घर से निकल पड़े।
"औघड़! ये सब क्या कर रहे हो। जानते हो तुम्हारी इस करतूत ने शहर में कितना बवाल मचा रखा है?"
"तुम्हारा समाज इसी लायक है।"
"ईश्वर से डरो औघड़! जिस दिन उसका तीसरा नेत्र खुल गया किसी काम के नहीं रहोगे।"
"देखा जाएगा।"
"देखो औघड़! तुम अच्छी तरह जानते हो कि तुम्हारी इस करतूत का मैं सबसे बड़ा जवाब हूं। तुम्हारी उस वैम्पायर को मैं चुटकियों में नाश कर सकता हूं। मगर मैं चाहता हूं कि तुम स्वयं इस समस्या का अंत करो। शायद ईश्वर तुम्हें क्षमा कर दे। मैं तुम्हें शाम तक का समय दे रहा हूं। इस बीच अपने निर्णय की सूचना मुझे भेज देना अन्यथा मैं तुम्हें भी कोई दण्ड दे सकता हूं।"
कहकर निरंजन बाबू वापस लौट आए। शाम होने से पहले ही औघड़ ने अपने निर्णय का मानसिक संदेश निरंजन बाबू को भेज दिया। उसका निर्णय जान कर निरंजन बाबू को प्रसन्नता हुई।
उसी रात।
औघड़ ने अपनी महादेवी को बुलाया। वो आयी। उसके आते ही औघड़ ने उसे चारों तरफ से मंत्रों से जकड़ दिया। एक अदृश्य कवच महादेवी के चारों ओर बन गया। जिसके बाहर वो नहीं निकल सकती थी। इस पर औघड़ रुका नहीं। लगातार मंत्र पाठ करता रहा। अंततः जिस तरह उसने उसे शव से वैम्पायर बनाया था, उसी तरह उसे वापस शव में बदल दिया और उस शव को गंगा जी में प्रवाहित कर दिया। अगले दिन सुबह श्मशान के लोगों ने उसे मृत पाया। उसने अपने शरीर को जगह-जगह से काट कर सारा रक्त श्मशान की रेत में बहा दिया था। उसने आत्महत्या क्यों की ये बात अब केवल निरंजन बाबू जानते थे। या फिर गहन ब्रह्माण्ड में बैठा ईश्वर।