अस्तित्व

अस्तित्व

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जब मैं तुमसे पहली बार मिली थी, तुम ज़िन्दगी के सन्नाटे के बीच, दीवारों के बियाबान से टकरा कर अपने अकेलेपन के चीत्कार को हवाओं में सुन रही थी, कोई नहीं था पास....स्मृतियों के सिवा !

ज़िन्दगी के उत्तरार्ध में सभी अपनी स्मृतियों की रंगशाला में अपना-अपना पार्ट याद करते हैं।

ये अकेलापन प्रशनचिन्ह सौंपता है ? क्या प्रयोग करने और जीने को दो ज़िन्दगी नहीं मिल सकती ?

तुम फ्लैश बैक में मुझे अपने लड़कपन में ले जाती हो, तुम्हारे व्यक्तित्व के कई आयाम खुलते हैं, मुझे समझ नहीं आता कि मैं किस आकृति से मिलूँ।

तुम्हारे ज़िन्दगी के इस फ्लैश बैक में कुछ ना कुछ बदल जाता है, तुम्हारी ज़िन्दगी में वैसे ही इतने सारे शैड्स है, कभी दादा की दुलारी अपनी ज़िद पूरी करती आकृति, कभी दादा-दादी के बिना निहत्थी हो गई आकृति, कभी शादी के सपने देखती, तो कभी अपने हाथों से उसे तोड़ती, शादी से इंकार करती आकृति...!

नए शहर और नए लोगों में अपने आप को आकार देती, सब कुछ छोड़कर ,गाँव की नौकरी, गाँव की नई पीढ़ी को तराशती आकृति....!

तुम्हारी रचनाकार के लिए ये रेखांकन योग्य था कि तुमने "अपनी छत" तलाशी, शादी के भरोसे को तोड़ने वाले अपने भावी पति को इंकार कर, पिता की छत से "अपना आशियाना" बनाया स्त्री की 'अपनी छत' ,अपना पैसा उसे ताक़त सौंपता, वरना यह रिकार्ड तो हर घर में चौबीसों घंटे बजता रहता है, निकल जा मेरे घर से लेकिन रुको जरा मेरे वक़्त की यात्रा करोगी.. 

'आकृति ,मुझे मालूम है कि मेरे लिखे को अग्नेय दृष्टि से देख, पढ़ रहे हैं। कह रहे हैं कि आधी आबादी के बढ़े हिस्से को, इस तरह के स्वप्न नहीं आते, जिन्हें आते हैं, उनमें अधिकांश को रास्ते नहीं मिलते।

जिन्हें रास्ते मिलते हैं, उन्हें ख़ूब जुझना पड़ता है.... शायद आधी-आबादी का हज़ारवां हिस्सा अपने एकांत का सुख महसूस कर पाता है।

"वर्जीनियावूल्फ"का 'अपने कमरे'का प्रश्न आज भी ज़िन्दा है। "मेरा घर कहाँ है" ? या फिर "स्त्री का अपना घर क्यों होना चाहिए ?"

आकृति मुझे ,अच्छा लगा कि तुमने हर परिस्थिति से ताक़त बटोरी, पढ़ -लिखकर निर्णय का विवेक जागृत कर सकी।

अपने होने वाले पति से मिले धोखे को तुमने आँख बंद कर स्वीकार नहीं किया, विवाह से इंकार कर "अपनी राह " ख़ुद चुनी ।

यह बड़ी बात थी, बड़ा निर्णय था कि "अपनी छत"की तलाश, किसी 'महानगर' में बड़ी सी नौकरी और ऐशो-आराम की ज़िन्दगी में नहीं तलाशी....

"तुमने अपनी शिक्षा का उपयोग 'सुदूर गाँव' के निचले तबके को शिक्षित, जागृत और विवेक सम्पन्न बनाने में किया ।

सच, कहा जाए तो तुम्हारी पूंजी है, वारिस भी ..एक बढ़ी फौज.. जो तुम्हारे "दिए "का आलोक अपनी ओर आने वाले अंधेरे के खिलाफ लड़ने में उपयोग कर रही है।

"आकृति तुम्हारा धैर्य और आत्मविश्वास देखकर लगा स्त्रियाँ कभी कमज़ोर नहीं होती ,सिर्फ उनको कमज़ोर हमारा ये पुरूष प्रधान समाज करता है, हमारे यहाँ आज भी नारी को 'अबला, बेचारी, और अधीन समझता हैं ।

समाज में पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने स्त्री को जन्म से ही अधीन बना दिया , बच्चों को बाप का गोत्र मिलेगा, जिस माँ ने नौ महीने पेट में रखा,अपनी जान की बाज़ी लगाकर बच्चे को दुनिया में लाई ,उसका कोई हक़ नहीं ....

"लेकिन अब की स्त्री किसी के अधीन नहीं, वो तुम जैसी सशक्त और "अपना आशियाना" ख़ुद तलाश रही है....


प्रश्न, लेकिन रुको...

तुम ज़रा मेरे वक़्त की यात्रा करोगी, स्वंतत्रता के समय की 4%अकेली स्त्री, अब 36%हो गई हैं। पहले मजबूरी में अकेले रहने का निर्णय, अपना एकांत तलाशता "विवाह संस्था" पर उंगली रख रहा है ?

तुम्हारा जीवन भी तो "विवाह- संस्था के बाहर खड़े रह जाने की देन है, यदि तुम्हारी मौसी ने एक रस्म के बहाने तुम्हें अपने बेटे की मंगेतर न बनाया होता तो ,बचपन की यही सगाई बड़े हो कर सवाल कैसे खड़े करती ?

तुम भी ब्याह दी जाती, नानी, दादी बन, नाती-पोते खिलाती। मगर तुमने अपना अस्तित्व को बचाए रखा, तुमने उस उधार की ज़िन्दगी को नकार दिया अपना रास्ता ख़ुद चुना, आकृति तुम तारीफ के क़ाबिल हो। 


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