Aaradhya Ark

Tragedy Inspirational

3  

Aaradhya Ark

Tragedy Inspirational

अस्थि चर्म की माया

अस्थि चर्म की माया

12 mins
314


"इस शादी में पंडाल क्यों लगाया गया है भाभी, आजकल तो शादियाँ बैंकेट हॉल में होने का चलन है!"

चाचा जी का पहला सवाल था अरुण भैया की शादी में जब बारातियों को बड़े से जनवासा में ठहराया गया था।


जवाब अरुण भैया ने दिया था कि,


"यह ज़मीन मेरे स्वर्गीय सरजी यानि मेरे स्वर्गीय ससुर जी की है। मरते मरते भी उनकी यही इच्छा थी कि उनकी लाडली बेटी की डोली किसी किराए पर लिए गए बारातघर से नहीं बल्कि उसके अपने घर से निकले!"


सो शादी, विदाई सब उनके घर से ही सम्पन्न हुआ था।

भैया के इस जवाब से बारात में आए लोग इतना तो समझ ही गए थे कि होने वाली बहू एक खानदानी घर से है। और खान पान मोटा ही सही पर लोग किसी ज़माने में रईस रहे होंगे।


ज़्यादा दिखावा और तामझाम तो नहीं था पर बारातियों का स्वागत बहुत शानदार तरीके और आत्मियता के साथ किया गया था। सत्या भाभी की माँ तो बचपन में ही बीमारी से ग्रसित हो काल कलवित हो चुकीं थी। उनका लालन पालन उनके पिता श्री अरविंद जी ने और दादी ने मिलकर किया था। दो भाइयों की लाडली और अपने पिता की सिरमौर थीं सत्या भाभी। मायके में लाड़ दुलार के साथ कभी उन्हें दबे हुए रंग के लिए कुछ नहीं सुनना पड़ा था। उलटे उनके पिता खुद हिंदी और अंग्रेजी में डबल एम. ए. थे और बिटिया ने भी जब आगे की पढ़ाई के लिए पिता का क्षेत्र और विषय चुना तो पिता को अपनी इस विदुषी बेटी पर बहुत गर्व हुआ। दोनों भाषाओं पर समुचित अधिकार था सत्या का पर जहाँ आवश्यक ना हो वहाँ सिर्फ शेखी बघारने के लिए अंग्रेजी बोलें ऐसी मानसिकता नहीं थी।


और... यहीं शायद थोड़ी चूक हो गई थी उनसे। क्योंकि शुद्ध हिंदी में और अतिरिक्त विनम्रता से बोलने की आदत की वजह से अम्मा और कुछ दिखावा पसंद लोग सत्या भाभी को बहुत कमतर और दब्बू प्रवृति की समझने लगे थे। जबकि वास्तव में वह ऐसी बिल्कुल नहीं थीं।

बहरहाल... उनके घरवालों के प्रेम भाव और आवभगत से बाराती जहाँ खुश थे वहीँ अम्मा थोड़ी खींची खींची सी थी। उन्हें अपने बेटे की बिना दान दहेज़ के अपने ही प्रोफेसर गुरूजी की बेटी से प्रेम और फिर सबकी रजामंदी से विवाह का निर्णय अम्मा को रत्ती भर भी नहीं सुहाया था।


सब ख़ुश थे इस शादी में, और रितु की ख़ुशी तो देखते ही बनती थी। आखिर उसके अरुण भैया की शादी जो थी। दो एक बार बिजली कटी। खाने में पनीर के कोफ्ते कुछ कम पड़ गए। ताई जी की सोने की अंगूठी खो गई (जो कि बाद में मिल गई पर उन्होंने अंगूठी मिलने की बात नहीं बताई किसी से ) और ताऊ जी का पुराना मलमल का कुरता अपनी ब्रिटिश स्टाइल के कफलीन की वजह से खासा चर्चा में रहा।


इसके अलावा...अरुण भैया की शादी में सब कुछ बड़ी ही सादगी से निपट गया था। विमला मौसी जो नहीं आ पाई थी। उनकी बहू पूरे दिन से थी सो विमला मौसी के फकरे और तानों के बगैर सम्पन्न हुई थी शादी। बस अम्मा को बहू के रंग रूप और दान दहेज़ की कमी गिनाए बिना चैन नहीं था। सो शादी के बाद जब विमला बुआ का फोन आया तो अपने मन की पूरी भड़ास निकालने लगीं।


"अरे, का कहो हो जिज्जी! अरुण को बहू पूरी करिया है। अब उनो रात में देखो के दिन में... रंग तो पक्को रहोगो!"


उधर से विमला मौसी ने नई बहुरिया सत्या की पढ़ाई लिखाई के लिए कुछ पूछा होगा शायद कि अम्मा फिर बोल पड़ी,"औ जिज्जी, हई तो प्रोफेसर पिन अरुण के पुरो मुट्ठी करियो रखो हई। जौ कौनो एक अच्छी बात होवे ते बताऊँ। अरुण को ब्याह में तो एकदम ठगा गईं हम जिज्जी। बहुरिया ऐसी मिलयो कि जइसे...मुँह ना कान, बिच्चे में दुकान। बस ई समझ लेओ के सोने की चाह में पीतल उठाए लायो ई अरुण! "अम्मा अपना दुख अपनी बड़ी बहन विमला मौसी के सामने रोये जा रही थी जो अपनी बहू के गर्भावस्था के पूरे दिनों में होने की वजह से नहीं आ पाई थी। इस बात से अनभिज्ञ कि उसी कमरे में एक ओर अरुण लेटा हुआ था। या शायद अम्मा जानबूझकर ही इतनी बुराई कर रही थी सत्या भाभी की ताकि अरुण भैया सुन लें, क्योंकि अम्मा की पसंद राधिका को दरकिनार करके अरुण भैया ने अपने कॉलेज के हिंदी के प्रोफेसर की बेटी सत्या से जो प्रेमविवाह किया था।


रंग - रूप और दान - दहेज़ दोनों में ही तो फीकी निकली थी सत्या भाभी। अब अम्मा को भाती भी कैसे?

हाँ, मुझे बहुत पसंद आई थी मेरी छोटी सत्या भाभी। क्योंकि उनमें विमला मौसी की बहू (सुकीर्ति भाभी ) की तरह ना तो घमंड था और ना ही दिखावा।

पहले ही दिन मुझे उनकी स्पष्टवादिता और दोस्ताना व्यवहार बहुत पसंद आया था जब उन्होंने पेटी खुलवाई के रस्म से पहले मुझे चुपके से बुलाकर कहा था,


"रितु जीजी! आपके लिए मैं ने पेटी में अलग से गुलाबी लहंगा रखा है, आप वह ले लेना। इसके अलावा और भी कोई ड्रेस या साड़ी पसंद हो तो ले सकती हो पर वह कत्थई साड़ी मत लेना। वह मुझे बहुत प्रिय है क्योंकि मेरे बड़े भैया ने नौकरी मिलने पर अपनी पहली कमाई से मुझे लेकर दी थी!" और फिर..... मैंने भाभी का कहा हुआ वही गुलाबी लहंगा ही लिया था जो बाद में पहनने पर मुझ पर खूब जंचा था। हालांकि अम्मा इशारा करती रहीं कि कुछ और ले लो। रिश्ते की बुआ, चाची और चचेरी बहनों ने भी बहुत कहा कि इतने बड़े सुटकेस से सिर्फ एक ड्रेस क्यों और ले लो। पर सत्या भाभी की स्पष्ट कही बातों ने मुझ पर जादू सा असर किया था जो मैं उनकी बात मानती चली गई।

शुद्ध हिंदी और वाणी में मिठास सबसे बड़ी खासियत थी छोटी भाभी यानि मेरी फेवरेट सत्या भाभी की। और तो और... उन्हें कभी भी हिंदी बोलने में संकोच करते या हीनभावना से ग्रसित नहीं देखा। उनकी जिह्वा पर तो जैसे सरस्वती विराज़मान रहती थी। पूरे घर में भैया के बाद अगर किसीको उनकी प्रतिभा के बारे में पता था तो वह मैं थी।


सूर, कबीर के दोहे तो उन्हें मुँहजबानी याद थे। पर अम्मा को उनके चेहरे के ताम्बई रंग के आगे सोने जैसा मन और अतुलनीय प्रतिभा कहाँ दिखती थी?


बिन माँ की बच्ची थीं सत्या भाभी। कदाचित अपनी सास में एक माँ को ढूंढती होंगी और यक़ीनन उन्हें अम्मा में माँ का रूप नज़र आता होगा। तभी तो उनका व्यवहार कभी भी अम्मा के प्रति खराब नहीं हुआ था और ना ही अम्मा के तानों उलाहनों से कभी उनका मन मलीन हुआ था। ना जाने किस मिट्टी की बनी थीं वो कि चेहरे पर से मुस्कुराहट कभी हटती नहीं थीं और उनकी धवल दंतपंक्तियाँ जैसे चेहरे के रंग का गहरा होना एकदम छुपा देती थीं। क्योंकि नज़रें उनकी चमकीली आँखों और मुस्कुराहट पर जो चली जाती थीं। और... फिर इसे और मुखर करने के लिए वाणी की मधुरता और ज्ञान का अकूत भंडार लिए साथ चलती थीं तो एक सिर्फ उनके श्यामवर्णा होने पर बहुत कम लोगों का ध्यान जाता था।


हाँ... एक जगह ज़रूर कच्ची थीं मेरी सत्या भाभी। वह थी रसोई। बिन माँ की बच्ची आधी अधूरी, कच्चा पक्का खाना ही बना पाती थी बस। और इस कमी पर अम्मा फूल वॉल्यूम में अपने तानों और उलाहनों का आर्शीवचन का लगभग नियमित डोज़ उन्हें देती थीं। जिसका फायदा कालांतर में भाभी को ही हुआ। वह ऐसे कि अम्मा की डांट खा खाकर और उनसे पूछ पूछकर वह धीरे धीरे खाना बनाने, घर को व्यवस्थित रखने में भी पारंगत होती चली गईं। उनकी लगातार सीखने की आदत ने मुझे भी बहुत प्रभावित किया था।


और... और... एक बात जो मैंने खास तौर पर नोटिस किया कि अब अरुण भैया भाभी को पहले से भी ज़्यादा प्यार करने लगे थे। उनका ध्यान भी ज़्यादा रखने लगे थे जिससे अम्मा की नाराज़गी और बढ़ जाती और कहर बरपता बेचारी सत्या भाभी पर।


"रूप रंग कुछ ना है पिन हमाऊ छोरो को जादू टोना कइके पुरो बश में करी राखो हई ई बहुरिया!"


अम्मा भैया भाभी के प्रेम से जलभुनकर विमला मौसी संग अपनी "आओ बहन चुगली करें " का सेशन लगभग रोज़ ही फोन पर रखने लगी थीं। क्योंकि अब कोलेज़ के बाद भाभी घर और रसोई का काफ़ी सारा काम भी सँभालने लगीं थीं लिहाज़ा अम्मा के पास अब काफ़ी फालतु समय बचने लगा था।


उन्हीं दिनों मुझे एक खुशखबरी सुनने को मिली जिसे सुनकर मैं तो ख़ुशी से नाच ही पड़ी थी।

मैं बुआ जो बननेवाली थी। अब मुझसे भी कोई छोटा या छोटी इस घर में आनेवाला या आनेवाली थी। आहा... कितना मज़ा आएगा जब बच्चे की तोतली आवाज़ में अपने लिए "बुआ" का सम्बोधन सुनूँगी। अब तक तो रितु या रितुरी ही सुनती आई थी।अब बनूँगी बुआ और ज़माउंगी धौस... कितना मज़ा आएगा ना?


इधर इस खशखबरी के बाद सत्या भाभी पर तानों का डायलॉग थोड़ा बदल गया था।


सबसे विकट स्थिति तब बनती जब सत्या भाभी को अम्मा कुछ खाने देती और साथ में उनकी कमी भी ज़रूर गिनाती। सत्या भाभी जब गर्भवती हुईं तब कॉलेज में भी बहुत काम था। इम्तिहान जो चल रहे थे इसलिए ज़्यादा छुट्टी भी नहीं ले सकती थीं। सरकारी नौकरी में होने की वजह से उन्होंने मटेर्निटी लीव तो सातवें महीने में ली पर अम्मा तो गर्भ का पता चलते ही उन्हें कभी नारियल कभी सुबह सुबह ही संतरे खाने को दे देती कि खाली पेट में इसका जूस डायरेक्ट गर्भ में पल रहे शिशु तक पहुँचेगा और वह गोरा पैदा होगा। कभी एक ही दिन में दो तीन बार दूध का ग्लास लेकर भाभी के पीछे पड़ जाती और हर बार एक ताना ज़रूर दे देती जिससे सत्या का हृदय छलनी छलनी हो जाता।"पी लेओ दूध बहू, ई हम कोई तुम्हरे लान नहीं कह रहे। जे पीने से से हमाऊ पोते का रंग निखरोगो। जे कहीं तुम्हाओ पक्को रंग चढ़ गयो तो अगली नस्ल भी करिया हो जाओगो!"


मैं पढ़ते पढ़ते चुपचाप भाभी को देखती जो दूध के पीते हुए ग्लास से आधा मुँह ढककर अपने आँसू को भरसक छुपाने और आँखों से बाहर छलक जाने से रोकती थीं।मुझसे अम्मा की ज़्यादती कई बार नहीं सही जाती तो मैं बोल पड़ती,


"अम्मा, बच्चे का रंग हमारे डी.एन. ए. से ट्रांसफर होता है। दूध पीने से फल खाने से गर्भस्थ शिशु को सिर्फ पौष्टीकता मिलेगी!"


पर... बदले में अम्मा मुझे झिड़कते हुए कहती,

"बस... इब ज़्यादा अंग्रेजी ना झाड़ो। तुम ब्याह के ससुराल जाओगी तो सास कोई तुम्हाओ अंग्रेजी से खुश ना होवेगी...उनो तो तुम्हाई सुघड़ता ही पसंद आवेगो!"मैं भी छुटते ही अम्मा से बहस करने को तैयार रहती,

"फिर तो अम्मा! आपको सुकीर्ति भाभी से बहुत खुश रहना चाहिए क्योंकि वह तो हर काम में सुघढ़ हैं और टूटी फूटी, गलत सलत ही सही पर अंग्रेजी बड़ा झाडतीं हैं!"


अब अम्मा के पास और कुछ कहने को नहीं होता तो मुझे आग्नेय नेत्रों से देखते हुए भाभी पर एक तंज ज़रूर कस देतीं कि,बेटा तो बेटा,अब बेटी को भी जादूगरनी ने अपने सँग मिलाय लियो।


भाभी के कॉलेज से उन्हें सबसे प्रिय और प्रसिद्ध होने की वजह से उस साल का बेस्ट प्रोफेसर अवार्ड के लिए चुना गया। गर्भावस्था के पूरे दिनों की वजह से वह जाने में असमर्थ थी सो इंटरव्यू के लिए टीम घर पर ही आ गई।


अम्मा उन सबके लिए चाय नाश्ते का इंतज़ाम करवाते हुए खुश भी लग रही थीं और थोड़ी चिंतित भी। जब मैंने उनसे पूछा तो उन्होंने अपनी परेशानी बताई कि कहीं वो लोग अम्मा से कुछ पूछेंगे तो वह हिंदी में शायद ठीक से जवाब ना दे पाएं क्योंकि उनकी जुबान पर प्रादेशिक भाषा ही रहती थी।


तभी किसी काम से सत्या भाभी किचन में आई और हमारी बात सुनकर अम्मा से बोली,"आप बिल्कुल फ़िक्र मत कीजिए माँजी!मैं ऐसी कोई स्थिति नहीं आने दूँगी!"


जब इंटरव्यू के दौरान किसी ने भाभी से पूछा कि वह संयुक्त परिवार में रहकर इतनी सफलता पूर्वक अपनी नौकरी और घर कैसे मैनेज़ कर पा रही हैं तो भाभी ने बड़े ही प्रेम और आदर से अम्मा को बुलाया और उन्हें अपनी कुर्सी पर बैठाकर खड़ी होकर बोलीं,


"अपनी माँजी के सहयोग से मैं सबकुछ कुशलता पूर्वक संभाल रही हूँ। इनका वरदहस्त मेरे सर पर हमेशा रहता है तभी मैं........"


तभी सबने अद्भुत दृश्य देखा,


उधर भाभी बोले जा रही थी इधर अम्मा की आँखों से अनवरत आँसू बहे जा रहे थे।


कुछ भावातिरेक और कुछ पश्चातताप के आँसुओं के साथ अम्मा ने उठकर भाभी को गले लगा लिया। बाकी लोग यह दृश्य देखकर यही समझे कि सास बहू में अनहद प्रेम है तभी तो एक दूसरे को माँ बेटी की तरह गले लगाए हुए हैं।


पर...उस वक़्त सच में सास बहू अपने प्रेम में माँ बेटी की झलक पा रही थी। भाभी माँ के आंसुओं संग बहनेवाले पश्चाताप को महसूस कर रही थीं तो अम्मा भी आजतक बहू को दिए हुए ताने उलाहने और व्यंग्यवानों का संताप समझ रही थीं।


इस परिवार के लिए यह एक नयनाभिराम दृश्य था। हर कोई दोनों के बीच नव किसलय की तरह प्रस्फुटित प्रेम को समझ रहा था।


आज अस्थि - चर्म की चमक के आगे गुण गौण नहीं हुआ था!


उस दिन के बाद से लेकर आज तक अम्मा और भाभी में प्रेम बना रहा था।

बाद को विमला मौसी जब कभी भाभी के रंग रूप और उनके मायके से आए हुए दान दहेज़ पर कटाक्ष करने की कोशिश करतीं अम्मा यह कहकर उनका मुँह बंद करा देती कि मेरी बहुरिया छोटे घर से आई हो या बड़े घर से,उसका दिल बहुत बड़ा है!"


अन्य रिश्तेदार भी अब भाभी को सम्मान की दृष्टि से देखने लगे थे। अम्मा ने ऐसे लोगों की बातों को तवज़्जो देना लगभग बंद कर दिया था जो घर में घुसपैठ करते थे।


भाभी वैसे भी आकर्षक लगती थी। अब मातृत्व ने उनकी गरिमा और बढ़ा दी थी। और सबसे बढ़कर अब घर में उनका अपमान नहीं होता था।

छिछले लोगों से अम्मा अब बहुत परहेज़ करने लगी थी। सत्या भाभी के शब्दों की मिठास और बड़ों को सम्मान देकर बात करनेवाली आदत ने अम्मा का दिल जीत लिया था। यहाँ यह बता देना भी ज़रूरी है कि शादी के डेढ़ साल बाद भाभी को एक प्यारी सी बेटी और अम्मा को सलोनी सी पोती के दर्शन हुए।


और .... बच्चे का रंग....?


वैसे तो अब अम्मा को किसी के रंग से फर्क नहीं पड़ता पर उन्होंने बड़े ही प्रेम से अपनी पोती का नाम रखा "कृष्णा"

और उसपर बहुत प्यार लुटाती हुई वह कबका भूल चुकी थीं कि कभी रंग और रूप की चमक उनकी प्राथमिकता हुआ करती थी।


आखिर... सबकी चहेती भाभी ने अपने गुणों के आगे सुंदरता और सुघड़ता के नए मापदंड जो बना दिए थे।


अंततः अम्मा भी रूप की चमक के आगे गुणों की कद्र करना सीख गई थी। अब सत्या भाभी सिर्फ मेरी फेवरेट भाभी ही नहीं पूरे परिवार की फेवरेट बन चुकी थी।


अब कोई भाभी के रंग रुप को लेकर ज़रा भी कुछ कहता, अम्मा छुटते ही यह कहकर उनका मुँह बंद करा देती...


"रंग पक्का है तो क्या हुआ दिल तो सच्चा है मेरी बहुरिया का!"


अब घर में सब सत्या भाभी को बहुत प्यार करने लगे थे। अम्मा तो जैसे अपनी बहुरिया और पोती कृष्णा पर अपनी जान छिड़कती थी। अम्मा जब प्यार से उन्हें "ओ दुल्हिन, कहाँ हो!" कहकर लाड़ दिखाते हुए बुलाती तो

पीछे से भाभी के होंठो पर स्मित सी मुस्कुराहट आ जाती और उस चमकीली मुस्कान की रौशनी से पूरा घर उजास से भर जाता। भाभी के प्रेम का रंग चढ़ा था सब पर और सबसे ज़्यादा अम्मा पर। सास बहू का अनहद प्रेम एक मिसाल बन चुका था। अब अम्मा को भाभी का ना तो रंग अखरता था और ना ही अरुण भैया का उनपर प्यार लूटाना। क्योंकि अब अम्मा भी रूप की चमक से परे गुणों की कद्र करना जो सीख गई थी।


(समाप्त )






Rate this content
Log in

Similar hindi story from Tragedy