हरि शंकर गोयल

Tragedy Inspirational

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हरि शंकर गोयल

Tragedy Inspirational

अश्वत्थामा, कृपाचार्य,कृतवर्मा

अश्वत्थामा, कृपाचार्य,कृतवर्मा

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यह रचना आज से लगभग दो वर्ष पूर्व लिखी थी जब कोरोना महामारी के कारण पहली बार लॉकडाउन लगा था और महाभारत नामक धारावाहिक आया करता था। जब महाभारत समाप्त हुआ तो कुछ खाली सा लगा। उस समय जो विचार उठे उन्हें लिपिबद्ध कर लिया जो आपके सामने हैं। 

महाभारत : अश्वत्थामा, कृपाचार्य और कृतवर्मा


महाभारत धारावाहिक आज समाप्त हो गया था। मुझे बड़ा दुख हुआ। जैसे कोई श्रीकृष्ण जैसा गुरु मुझ अर्जुन जैसे भक्त पर कृपा बरसा रहा हो और अब उन्होंने कृपा बरसाना बंद कर दिया हो। मन बड़ा व्याकुल था। महाभारत पर मनन कर रहा था। 


फेसबुक खोलकर देखा तो कुछ लोग पूछ रहे थे कि कृपाचार्य और कृतवर्मा का क्या हुआ ? मैंने अपनी समझ से इसका जवाब लिख भेजा। लोगों को वह जवाब पसंद आया और उस पर अनेक लाइक आने लगे। व्हाट्स ऐप पर भी ऐसे ही मैसेज चलने लगे। मैं कुछ जवाब देता इतने में ही हमारे घुटन्ना मित्र हंसमुख लाल जी का फोन आ गया। 


भाईसाहब, आप क्या कर रहे हैं ? 

खाना खाने की तैयारी कर रहा हूं और इस वक्त कर भी क्या सकता हूं ? 

भाईसाहब, आज तो मुझसे खाना नहीं खाया जायेगा। मन ही नहीं हो रहा है। भरे गले से वो बोले। 

क्या हो गया ? मैंने घबरा कर पूछा 

भाईसाहब, महाभारत खतम हो गया ना। दिल बड़ा रो रहा है जैसे कि कोई अपना बिछुड़ रहा हो। उनकी हिलकी बंध गई थी। 

मैंने दिलासा देते हुए कहा : एक ना एक दिन तो इसे खतम होना ही था। आया है सो जायेगा, राजा रंक फकीर। इसी तरह कोई धारावाहिक शुरू हुआ था तो उसे खतम भी होना ही था। इसमें आश्चर्य क्या है ? और फिर, आपने तो गीता ज्ञान भी ग्रहण कर लिया है। फिर शोक कैसा ? 

वो बोले : हे तत्वज्ञानी। ऐसा धारावाहिक मैंने अपनी जिंदगी में कभी नहीं देखा। महाभारत धारावाहिक और भी बने हैं लेकिन बी आर चोपड़ा साहब का ये धारावाहिक ना भूतों ना भव की श्रेणी में आता है। जिस तरह महाभारत काव्य लिख कर महर्षि वेदव्यास अमर हो गए उसी तरह यह महाभारत धारावाहिक बना कर बी आर चोपड़ा भी अमर हो गए। 


मैंने भी इस बात पर अपनी सहमति व्यक्त की। फिर पूछा कि आपने फोन कैसे किया। 

वो बोले : हे मर्मज्ञ। महाभारत युद्ध के बाद कौरवों में से तीन महायोद्धा अश्वत्थामा, कृपाचार्य और कृतवर्मा जिंदा बच गए थे। बाद में वे कहां गए यह बात महाभारत में नहीं बताई। 


मैं : हे तात्। बी आर चोपड़ा साहब को पता था कि इस युग में हंसमुख लाल जैसा ज्ञान पिपासु विद्यार्थी पैदा हो चुका है और वे जानते थे कि हंसमुख लाल जी इस प्रश्न का हल कहीं न कहीं से जरूर निकाल ही लेंगे इसलिए उन्होंने इस प्रश्न को जानबूझकर अनुत्तरित छोड़ दिया। 

हंसमुख लाल : हे व्यास पीठ के उत्तराधिकारी। आपके सिवाय इस गूढ़ प्रश्न का उत्तर और कौन दे सकता है। इसलिए मैं आपकी शरणागत हूं। मुझ पर कृपा करो, देव। 

मैं : आप ही नहीं समस्त भारतवर्ष इस गूढ़ प्रश्न से व्याकुल है। लोग इसका उत्तर जानने के लिए अधीर हो रहे हैं। फेसबुक और व्हाट्स ऐप जैसे प्लेटफॉर्म तलाश रहे हैं। मैंने कुछ को उत्तर तो दिया है लेकिन लगता है कि वह अभी तक जन साधारण तक नहीं पहुंच पाया है। इसलिए हे छात्र श्रेष्ठ। मैं आपके माध्यम से सारे जगत का ज्ञान वर्धन करना चाहता हूं। 


हंसमुख लाल जी प्रसन्न हो गए। उन्होंने मेरी भूरी भूरी प्रशंसा की। 


मैंने कहा : इस गूढ़ प्रश्न का जवाब देने से पहले उन तीनों ( अश्वत्थामा कृपाचार्य और कृतवर्मा) के बारे में कुछ बातें जाननी आवश्यक हैं। पहले वो बातें तुम्हें बताता हूं। 


अश्वत्थामा गुरु द्रोणाचार्य का पुत्र था। गुरु अपने पुत्र प्रेम में धृतराष्ट्र से भी दो कदम आगे थे। उनके पास गाय नहीं थी। अश्वत्थामा को दूध कहां से मिलता। इसलिए गुरु माता ने आटे में पानी मिलाकर घोलकर बनाकर बालक अश्वत्थामा को पिला दिया। बस फिर क्या था। द्रोणाचार्य अपने को धिक्कारने लगे कि इतने बड़े अस्त्र शस्त्रों के गुरु के बच्चे को पीने को दूध भी नहीं है। और उन्होंने प्रण कर लिया कि वह ऐसी व्यवस्था करेंगे कि ऐसा दिन कभी देखना नहीं पड़े। 

हंसमुख लाल जी बीच में ही बोल पड़े : हे भ्राता श्रेष्ठ। क्या मनरेगा के काम बंद कर रखे थे हस्तिनापुर सम्राट ने या जन धन खाते नहीं खुलवाये गये थे ? 

मुझे उनकी बात बहुत अखरी। डांटते हुए कहा : बहुत ग़लत आदत है आपकी यह। बीच में मत बोला करो। लेकिन तुमने प्रश्र किया है तो उत्तर तो देना ही होगा।‌

तो सुनो वत्स। उन दिनों हस्तिनापुर में लोकतंत्र नहीं था इसलिए वोट बैंक बनाने की आवश्यकता नहीं थी। जब वोट बैंक की आवश्यकता ही नहीं थी तो फिर कैसी मनरेगा और कैसा जन धन खाता ? 

हंसमुख लाल : क्षमा प्रार्थी हूं गुरु जी। आगे बतायें। 

मैंने कहा : अपना दारिद्र्य दूर करने के लिए ही वे राजकुमारों के गुरु बने। गुरु दक्षिणा में द्रुपद मांगा। और इस तरह उन्होंने आधा पांचाल राज्य अपने पास रख लिया और अश्वत्थामा को उसका राजा बनवा दिया। अश्वत्थामा को युद्ध विद्या में समस्त छल कपट भी सिखाये जो उन्होंने स्वयं के सेनापतित्व में किये। यहां तक कि अश्वत्थामा को ब्रह्मास्त्र की केवल वही शिक्षा दी जिससे वह ब्रह्मास्त्र छोड़ तो सके लेकिन वापिस नहीं ले सके। वो चाहते थे कि अश्वत्थामा का कोई बाल भी बांका नहीं कर पाये। इस पुत्र मोह ने अश्वत्थामा को कायर बना दिया। उसने कभी भी किसी युद्ध में विजय नहीं पाई। जब उसने रात में सोते हुए निर्दोष लोगों का वध किया तब तुम्हें ऐसा नहीं लगा कि आतंकवादी भी ऐसा ही कायरता पूर्ण कार्य कर निर्दोष लोगों की नृशंस हत्या करते हैं ? 

हंसमुख लाल : लगता है गुरूदेव। अवश्य लगता है। 

मैंने आगे कहा : जब उसने ब्रम्हास्त्र को उत्तरा के गर्भ में पल रहे ‌अजन्मे बच्चे पर छोड़ा तब तुम्हें इन कायर आतंकवादियों की याद नहीं आई कि ये कायर आतंकवादी भी छोटे छोटे बच्चों पर भी रहम नहीं करते, उन्हें मौत के घाट उतारने में उनके हाथ जरा भी नहीं कांपते। 

हंसमुख लाल : बिल्कुल सत्य कह रहे हो गुरुदेव। मैंने कहा : वही अश्वत्थामा अब आतंकवादियों के वेश में कायरता पूर्ण कार्य कर रहा है। इसलिए जब किसी आतंकवादी को देखो तो यह मानो कि वह अश्वत्थामा ही है। 

हंसमुख लाल : हे हरि। मैं धन्य हो गया।अब यह भी बताओ कि कृपाचार्य और कृतवर्मा का क्या हुआ ? 

मैंने कहा : कृपाचार्य कुल गुरु थे और कुल गुरु का युद्ध में भाग लेना आवश्यक नहीं था। लेकिन कृपाचार्य भी अपने आप को हस्तिनापुर का ऋणी मानते थे और अपने पद व प्रतिष्ठा को बनाए रखने के लिए उन्होंने दुर्योधन के पक्ष में युद्ध में भाग लिया। यहां तक कि द्रोणाचार्य के नियम विरुद्ध निर्णयों में भी उनका साथ दिया। इसका मतलब यह हुआ कि कृपाचार्य एक लालची, स्वार्थी व्यक्ति थे जो अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए कुछ भी कार्य कर सकते थे। एक निहत्थे अभिमन्यु के वध में भी साथ दे सकते थे। रात के अंधेरे में अश्वत्थामा के कायराना काम में उसका साथ दे सकते थे। इसलिए जब भी तुम ऐसे व्यक्ति को देखो जो अपने लालच और स्वार्थ में अंधा होकर नियम विरुद्ध, देश विरुद्ध और समाज विरुद्ध काम करे उसे कृपाचार्य ही समझो। 


जहां तक कृतवर्मा की बात है तो वह श्रीकृष्ण भगवान की सेना का सेनापति था। भगवान ने अपनी सेना कौरवों को दे दी थी इसलिए कृतवर्मा कौरवों की ओर से लड़ा। वैसे देखा जाए तो कृतवर्मा के लिए कौरव व पांडव दोनों ही समान थे। दोनों में से कोई भी जीते, उसे तो कुछ मिलने वाला नहीं था लेकिन उसके बावजूद उसने अभिमन्यु वध में भाग लिया। उसके वध के पश्चात बर्बर नृत्य में भाग लिया जबकि उसका कोई लेना-देना नहीं था। चूंकि वह कौरवों की ओर से लड़ रहा था इसलिए वह पांडवों का बुरा चाहता था। 

तो कृतवर्मा ऐसे लोगों का प्रतिनिधित्व करता है जिनको किसी और से कोई लेना-देना नहीं होता। कोई स्वार्थ नहीं होता लेकिन वे ईर्ष्या भाव रखते हैं। वे किसी और की तरक्की नहीं देख सकते हैं। उन्हें येन केन प्रकारेण नीचा दिखाने का प्रयास करते हैं। यहां तक कि अपनी ईर्ष्या के कारण वे कोई भी अपराध कर बैठते हैं। इसलिए कृतवर्मा ऐसे लोगों में आज भी जिंदा है। 


हंसमुख लाल जी गदगद हो गये। बोले : हे परम मर्मज्ञ। आपने मेरे ही नहीं अपितु सकल जगत के ज्ञान चक्षु खोल दिए हैं। आप धन्य हैं, धन्य हैं। आपको बारंबार प्रणाम है। 


मैंने कहा कि सब वासुदेव की कृपा है वत्स। आप भी उनका स्मरण, ध्यान किया करें। ऐसी कृपा आप पर भी बरसने लगेगी। 



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