Meeta Joshi

Inspirational

4.5  

Meeta Joshi

Inspirational

अपशकुनी

अपशकुनी

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शायद वो अपनी वखत जानती ही न थी।मैं जब उसे देखती,उसकी मासूमियत उसकी ओर आकृष्ट कर देती।बचपन से बड़े होते देखा।छोटी सी थी,पिता उसके होते ही घर छोड़ गए।कहते हैं सन्यास ले लिया था।बड़े कष्ट उठा माँ ने पाला।माँ भी चल बसी।दादी को उससे बिल्कुल मोह न था,बात-बात पर उसे अपशकुनी कह पुकारती।माँ के साथ हमारी हवेली में काम करने आया करती।जहांँ उसके साथ के बच्चे नाक पोंछने तक नहीं जानते थे,वो उस उम्र में पूरी हवेली साफ कर देती।माता-पिता के चले जाने का उसे कोई मलाल न था।हाँ अकेले में कभी-कभी माँ से गुस्सा हो जाती और बाहर आँगन में तारों की तरफ देख अपना दुःख, तकलीफ सब रोते-रोते माँ को कह खाली हो लेती।

मस्तमौला स्वभाव था,जहाँ जो मिल जाता खाती और अपना दिन बिता दादी के पास सोने चली जाती।"आ गई अपशकुनी,क्या नसीब लेकर आई है।पहले बाप को भगाया फिर माँ को खा गई।"

छोटी सी मृणालिनी जब तक समझती न थी "दादी-दादी" कह उनके दुत्कारने के बाद भी लिपट जाती,जितना दादी दूर भगाती उतनी दादी की भक्त।क्या करती बिचारी का एक मात्र सहारा वही थी।


बड़ी होती गई।मुझे मालकिन कहती।मुझे उससे शुरू से लगाव था।मैंने पढ़ाई का बीड़ा उठा लिया,लोग कहते,"सेठानी क्यों अपशकुनी को घर में कदम रखने देती हो।"

आज किसी ने मृणालिनी के सामने कह दिया,"इसके पाँव पड़े इसीलिए अभी तक आपके बच्चे भी नहीं हुए।"

अब बच्ची न थी,समझ गई मेरा आना मेरी मालकिन के लिए शुभ नहीं।काफी दिन हुए मालकिन से मिलने न गई।


देखा तो सिर पर पल्ला ढक एक औरत घर की तरफ आ रही है लग रहा था कोई चोरी छुपे किसी का पता ढूंँढ रहा है।


"मृणालिनी का घर....?"


"कौन....वो जिसे सब अपशकुनी कहते हैं।आप कौन?"


"देखिए आप बता सकते हैं तो....?"


"हाँ वो सामने वाला घर उसी का है।"


टूटा-फूटा जर्जर सा मकान....।


उस महिला ने घर के बाहर जा आवाज़ लगाई,"मृणालिनी....!"


चिर परिचित सी आवाज़ सुन वो दौड़ी चली आई,"मालकिन आप यहाँ!मुझे बुला लिया होता!कोई काम!"


"अंदर नहीं बुलाएगी।"


"दादी, देखो कौन आया है।मालकिन!"


"आप बैठिए ना" दादी ने स्नेह भरे शब्दो में कहा।


"कोई गलती हो गई क्या इससे?मैंने कईं बार कहा,मत जा,सब अपशकुनी कहते हैं,कहीं तेरी वजह से ही मालकिन के....!"


"देखिए मेरे सामने इसे अपशकुनी ना कहें।मेरे घर ये जिस दिन से नहीं आई,घर सूना पड़ा है।सालों बीत गए।इसके पाँव पड़ते ही जैसे हवेली में एक जान सी आ जाती है।मैं आपसे ये कहने आई थी कि इसे आगे पढ़ने दीजिए।शहर में मेरे माता-पिता हैं।उनके घर रह,पढ़ भी लेगी और उनकी देखभाल के बदले इसका खर्चा-पानी आपको दे दूँगी।इसे वहाँ कोई कमी न होगी।"


"मृणालिनी मालकिन के पीहर चली गई।सर्वेन्ट क्वार्टर में कुछ दिन रहने के बाद,वो उनके घर का हिस्सा बनती गई।उसकी सौम्यता,सुंदरता अब और निखर के आने लगी।मालकिन के माता-पिता उसे अपनी बेटी की बेटी मान रखते और वो उनके घर की,उनकी देखभाल तन-मन से करती।दिन बीतने लगे।शहर का वातावरण व भरपूर प्यार जिसका अर्थ वो बचपन से ही न समझ पाई थी सब मिलने लगा।एक संतुष्ट दिल,स्वस्थ शरीर की चाबी है।वही हुआ,उसकी सुंदरता निखर कर आने लगी।एक दिन मालकिन के दूर के रिश्तेदार अपने बेटे के लिए लड़की देखने आए।लड़का साथ आएगा इस बात से अनभिज्ञ मृणाल अपने अंदाज में नहा कर निकली।कमर के नीचे झूलते हुए उसके बालों में से जब पानी टप-टप कर उसके चेहरे पर गिर रहा था उसकी सुंदरता देखते बनती।अनिरुद्ध भी इस बात से बेखबर था,जैसे ही दोनों टकराए,अनिरुद्ध उसको देख अपने होशो-हवास खो बैठा।दो-तीन दिन वहाँ रहने के बाद उसने मृणाल से विवाह करने का फैसला घर वालों को सुना दिया।

"मृणालिनी मैं तुमसे शादी करना चाहता हूँ।"


"नहीं अनिरुद्ध जी।मैं जानते-समझते हुए भी किसी का जीवन बर्बाद नहीं कर सकती।मैं अपशकुनी जिसकी ज़िन्दगी में कदम रखती हूँ...."कह रोने लगी।


आज दादी का फ़ोन आया,वो दादी जो उसे भेज अपने कर्तव्यों से मुक्त हो चुकी थी।"मृणाल ...!"


दादी के मुँह से ये शब्द सुन उसे यकीन ही नहीं हुआ।

"क्या कहा दादी....?"

"हाँ मृणाल....।"


"नहीं,मैं तेरी अपशकुनी हूँ दादी।इतना पराया मत कर मुझे,तू जिस नाम से बुलाती है ना वही बुला अपशकुनी।"


"नहीं बेटा तू अपशकुनी नहीं....नहीं है तू अपशकुनी।तेरे घर के बाहर कदम रखते ही तेरे दादाजी....।".


"क्या! दादाजी चले गए....सच में मैं अपशकुनी हूँ दादी।ना मैं यहाँ आती और ना..!"


"नहीं बेटा,जिसकी किस्मत में जो लिखा होता है,मिलता है।अनिरुद्ध से शादी कर ले।"


शादी की सभी रस्में पूरी हुईं।अपने नसीब से जीवन भर लड़ने वाली को आज सच्चा प्यार करने वाला साथी मिल गया।बारात विदा होकर चल दी।सभी बाराती बस में थे और अनिरुद्ध,मृणाल व अन्य लोग गाड़ी में।पहाड़ी रास्ता था,रास्ते में तेज अंधड़ और बारिश ने आफत मचा दी।मृणाल का दिल बेचैन था।अजीब-अजीब खयालात मन को घेरे हुए थे।किसी अनिष्ट की आशंका से दिल बेचैन हो रहा था।जैसे ही अनिरुद्ध ने अपना हाथ उसके हाथ पर रखा,दिल की धड़कन तेज हो गई।सोचने लगी इतनी अच्छी किस्मत उसकी कहाँ कि कोई उसकी तकलीफ को समझ उस पर मरहम लगाए और वो मरहम,दवा बन उसकी तकलीफ मिटाए।सोच ही रही थी कि अचानक एक जोर का धक्का लगा किसी को कोई सुध न थी।बस ये महसूस हुआ कि कोई बहुत बड़ी दुर्घटना घटी है।

अगले दिन आँख खोली तो मृणाल अनगिनत अनजान लोगों के बीच में थी।जहाँ तक नजर जाती लाशें ही लाशें थीं।बेसुध सी,अपनों को खोजती।जब कोई नजर न आया तो बिलख कर रोने लगी हूँ,"हाँ हूँ मैं अपशकुनी....पैदा होते ही बाप को खा गई फिर माँ को दादा को और आज....।"


अचेतन में चली गई।डॉ. ने कहा सदमा लगा है,होश में आने के बाद पता चलेगा।दो दिन बाद आज आँखें फरकाई तो कानो मैं परिचित सी आवाज़ थी,"मृणालिनी मेरी बच्ची।"दादी भी थी।फूट-फूट कर रोई।"मालकिन....।"


"नहीं मृणाल तुम जैसे समझ रही हो ऐसा कुछ नहीं।देखो तुम्हारा पूरा परिवार तुम्हारा इंतजार कर रहा है।"


सास ने गले लगाकर कहा,"तेरे पाँव शुभ पड़े बेटा।इतना बड़ा हादसा हुआ,कितनी जानें चली गईं लेकिन घर वाले सब सुरक्षित हैं,ये सब तेरी वजह से है मेरी बच्ची....यह सब तेरे शुभ-कदम पड़ने से सम्भव हुआ।"

मृणाल को अपनी किस्मत पर विश्वास ही नहीं हो रहा था।बचपन से आज तक अपशकुनी कहलाई जाने वाली मृणाल किसी के लिए शुभ भी हो सकती है।

अब समय था जीवन साथी से मिलने का।अनिरुद्ध ने हाथ आगे कर वादा लिया,"अब कभी ख़ुदको अपशकुनी नहीं कहोगी।"

ये तो हादसे हैं जो जीवन में कभी भी कहीं भी घटित होते हैं।इनसे उबरने के प्रयास करें ना कि इनमें उलझ किसी को अपशकुनी करार दे दें।सुख-दुख,परेशानी और संघर्ष को जीवन का हिस्सा मान सहज सरलता से जीवन व्यतीत करे।



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